बायलाइन | हाउस हसबैंड ऑन ड्यूटी

  • 10:16 pm
  • 27 January 2024

जैसे हाउस वाइफ़ का काम कोई नौकरी नहीं है, ठीक वैसे ही हाउस हसबैंड होना या बनना कोई करियर नहीं है. बावजूद इसके सुबह से लेकर शाम तक कोई न कोई काम लगा रहता है. कोई नोटिस करे या न करे लेकिन खुद और टांगों को पता रहता है वह ड्यूटी पर हैं. अपनी पी-एच.डी. पूरी करने की ख़ातिर अख़बार की नौकरी छोड़कर ‘हाउस हसबैंड’ बने विपिन धनकड़ ने अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी और परिवार को केंद्र में रखकर अपने संस्मरणों की एक किताब भी लिख डाली है – हाउस हसबैंड ऑन ड्यूटी. वैसे तो इस किताब को घऱेलू कामकाज में मुब्तिला एक पति का रोज़नामचा कह सकते हैं, पर इस बहाने विपिन ने अपने आसपास की दुनिया और वहाँ हो रहे बदलावों को जिस तरह देखा और जिस बेलाग ढंग से उन्हें रेखांकित किया है, वह ग़ौरतलब है. किताब में तमाम वाक़यों के बीच जहाँ-तहाँ आ जाने वाली उनकी टिप्पणियों को पढ़ना भी बेहद मज़ेदार तजुर्बा है.

अख़बार के दिनों में जिस विपिन को मैंने जाना था, इस किताब का लेखक उससे एकदम मुख़्तलिफ़, उसके मुक़ाबले कहीं ज़्यादा सजग, मुखर और संवेदनशील है. ख़बरों की दुनिया और ख़बरें लिखने के बने-बनाए साँचे किसी नौजवान की प्रतिभा और उसके हुनर को किस तरह सीमित दायरे में बाँध रखते हैं, यह किताब उसकी मिसाल भी है. हो सकता है कि अपने दोस्तों से बातचीत में वह खुलकर अपना नज़रिया वह तब भी साझा करते रहे हों, मगर समय और समाज को देखने वाली इस निगाह से मेरा परिचय तब हो नहीं सका था.

इस किताब और लेखक की नई ज़िंदगी का लब्बोलुआब समझने के लिए विपिन के ही शब्दों में, “दुकानदार, सब्जीवाले, फेरीवाले, टहलने वालों से जान पहचान हुई है. खरीदारी में पारंगत नहीं हुआ हूँ लेकिन नौसिखिया अब नहीं रहा. कपड़े की औकात बिना हाथ में लिए आंक सकता हूँ. पपीते के रंग से उसके पके होने का पता लगा सकता हूँ. फास्ट फूड और स्ट्रीटफूड कहाँ अच्छा मिलेगा, यह मालूम है. किस गली में किस रंग का कुत्ता है और वह काटता है या सिर्फ भौंकता है, इसका ज्ञान हो चला है. दूध और मट्ठा किस दुकान पर ताजा मिलेगा यह जानता हूँ. वैशाली में नई दुकानें खुलने का पता पड़ोसियों को बाद में चलता है, मुझे पहले दिख जाती हैं. कोई दुकान कई दिनों से बंद है और उस पर मेरी नजर न जाए, ऐसा होना मुश्किल है. जान पहचान वाला है तो उसे फोन करके हालचाल पूछ लेता हूँ. इस तरह के अनगिनत काम हैं. जिन्हें कर रहा हूँ. यह जानते हुए भी कि ये कोई काम नहीं हैं.”

इसकी सबसे आख़िरी पंक्ति को केंद्रीय तत्व माना जा सकता है. सिर्फ़ घर संभालने वाली या फिर नौकरी करते हुए घर-बाहर दोनों की ज़िम्मेदारी संभालने वाली औरतों की ज़िंदगी में, उनकी दिनचर्या में शामिल तमाम बातें ऐसी होती हैं, जो उनका ध्यान और श्रम दोनों ही माँगती हैं मगर जिनका शुमार किसी काम में नहीं किया जाता है. और घर संभालने के साथ अपनी बढ़ी हुई समझ की बदौलत विपिन न सिर्फ़ गहराई से यह सब कुछ महसूस करते हैं, बल्कि पढ़ने वालों को महसूस भी कराते हैं.

अभी इस किताब के बारे में लिखते हुए मानव कौल का नाटक ‘तुम्हारे बारे में’ के कुछ आख़िरी दृश्यों-संवादों को याद कर रहा हूँ, जिसमें स्त्री के रसोईघर में होने की आश्वस्ति और उड़ने की उसकी ख़्वाहिशों के जवाब में यह कहा जाना शामिल है कि ‘हाँ, बिल्कुल उड़ो. किचिन में उड़ो न, किसने रोका है.’ नाटक के आख़िरी दृश्य में एक स्त्री पात्र की बनाई एक पेंटिंग ईज़ल पर दिखाई देती है, वहाँ एक ख़ूबसूरत पिंजरे की तस्वीर बनी है, जो देखने में पिंजरा लगती है और ताज़ भी. स्कूल से घर लौटने के बाद अपनी पत्नी बाली की निश्चिंतता और बेफ़िक्र होकर सोने का ज़िक्र करने के साथ ही ख़ुद अपनी नौकरी के दिनों और फिर बाद में अपने बेटे अद्वैत की सोहबत, उसकी ख़ुशी और बनते हुए व्यक्तित्व का बयान करते हैं तो दरअसल वह सिर्फ़ अख़बारनवीस की घरेलू ज़िंदगी की कसमसाहट का ब्योरा नहीं दे हो रहे होते हैं, इस पिंजरे का ख़ाका भी खींच रहे होते हैं.

अपने संस्मरणों को उन्होंने चार हिस्सों में बाँटा है – पीएचडी, परवरिश, किचिन के क़िस्से और बातें इधर-उधर की. अपनी ज़िंदगी के बयान में उन्होंने भरसक साफ़गोई से काम लिया है, सो कई जगह ये क़िस्से चौंकाते हैं, बेचैन करते हैं और गुदगुदाते भी हैं. इधर-उधर की बातों में डेंटिस्ट के ठिकानों के चक्कर से लेकर वह गिटार वाला लड़का, फेरी वाले, गाड़ी और मकान की तलाश, सैलून वाले, किताब उत्सव और रैपिड रेलगाड़ी के हवाले से ज़माने का दस्तूर दर्ज करते हैं, और उस पर अपना नज़रिया भी साझा करते चलते हैं.

पढ़ते हुए किताब में कई जगहों पर मैंने उनकी ख़ूब चुटीली-व्यंग्यात्मक टिप्पणियों को रेखांकित किया मगर सारी यहाँ साझा कर देने वाले से किताब पढ़ने वालों का मज़ा किरकिरा हो सकता है. फिर भी उनमें से कुछ यहाँ दे रहा हूँ –
– मेरे मुताबिक रिसर्च मेथेडोलॉजी में ईगो और एक्सप्ल्याटेशन नाम के दो चैप्टर होने चाहिए. जिनमें करने की जगह इनसे कैसे बचें रिसर्च स्कॉलर को बताया जाना चाहिए. मैं दावे से कह सकता हूँ वो पी-एच.डी. जो पूरी नहीं हो सकीं उनकी जड़ खोदेंगे तो इन दो कारणों में कोई न कोई जरूर मिलेगा.

-गली-मुहल्ले में जब भी कुत्ता देखता हूँ तो लगता है जैसे कोई खबर जा रही है. मैं भी न बन जाऊं इसलिए पास से संभलकर गुजरता हूं.

-मुझे लगता है कारगिल फिल्म का गीत कंधे से मिलते हैं कंधे कदमों से कदम मिलते हैं सैनिकों के लिए नहीं बस यात्रियों के लिए लिखा गया है. फिल्माया वह सैनिकों पर गया है. जब तक खड़े और बैठे यात्रियों के कंधे से कंधे नहीं मिल जाएं बस नहीं चलती.

-टीचर हाथ उठा दे तो पैरेंट्स आसमान सिर पर उठा लेते हैं. पहले पीटीएम भले न होती हो लेकिन पिटाई खूब होती थी. अब पिटाई नहीं होती पर पीटीएम खूब होती है.

-मलाई और दूध बर्बाद न होने देने का मेरा रिकॉर्ड ठीकठाक है. उबालते वक्त दूध निकल जाने को फिजूलखर्ची से जोड़कर देखा जाता है लेकिन ऐसा होने पर बाली मुझे घूरके देखती है, “आपसे दूध भी ठीक से नहीं उबाला जाता.” हाउस हसबैंड को गलती होने पर ताना ओर डांट का पॉजिटिव लेना चाहिये. इसके दो फायदे हैं. घर में शांति बनी रहेगी और सीखने का प्रोसेस नहीं रूकेगा.

संकोची विपिन का इसरार था कि कोई समीक्षक उनकी किताब पर लिखे, पर उन्होंने यह किताब मुझे भेजी थी. वह अर्सा छोटा ज़रूर था मगर कभी उनका लिखा हुआ छपने से पहले और बाद में भी मैं पढ़ता ही रहा था सो इस पर मुझे अपनी राय देना ही ज़रूरी लगा. इसे पढ़ते हुए कुछ जगहों पर वर्तनी की अशुद्धियाँ कसक पैदा करती रहीं, पर वह शायद अपनी पुरानी आदत की वजह से जब अपने कम्प्यूटर पर मिल जाने वाली उनकी ख़बरों की कॉपी दुरुस्त कर दिया करता था. अभी बाबुषा कोहली की एक कविता सुनकर लौटा हूँ – वर्तनी की शुद्धता पर ज़ोर बहुत है जीवन में शुचिता बहुत कम/ राजधानी में कवि बहुत हैं कविता बहुत कम. सो वह कसक भी जाती रही.

विपिन के तजुर्बे और उन तजुर्बों के इस दस्तावेज़ को अपने तजुर्बों से तुलना के लिए, एक अख़बारनवीस की ज़िंदगी के झमेलों, स्वेच्छा से घर संभालने वाले पति के मानस को समझने के लिए, दिमाग़ पर बहुत ज़ोर दिए बग़ैर पढ़ने का मज़ा लेने और अपने आसपास की दुनिया को जानने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए.

किताब | हाउस हसबैंड ऑन ड्यूटी
प्रकाशक | पुस्तकनामा, ग़ाज़ियाबाद
दाम | 299 रुपये

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