दादा साहेब फाल्के और त्र्यंबकः उसके शहर में उसी को ढूंढ़ना मुश्किल

  • 10:21 am
  • 23 February 2025

दिल मुझे उस गली में ले जा कर
और भी ख़ाक में मिला लाया
– मीर तक़ी मीर

‘वो यहीं कहीं ही पैदा हुए और पले-बढ़े थे’, सरकारी स्कूल के एक अध्यापक ने मुझे बताया. ‘1870 से 1890 में त त्र्यंबक छोटा-सा गाँव रहा होगा, जहाँ गोविन्द बड़े हुए, किसी ब्राह्मण पाठशाला में पढ़े और बड़े होने के बाद कुछ दिन यहीं मंदिर में पंडिताई भी की थी, इसके सिवा मैं कुछ नहीं जानता’.

उनके जन्मस्थान और घर आदि के बारे में न तो त्र्यंबक की नगरपालिका के रिकॉर्ड में ही कुछ मिलता है और न ही वहां किसी सरकारी महक़मे में फाल्के परिवार के घर का पक्का स्थान या पता मालूम है. ऐसा कहा जा रहा है कि जल्द ही उनके परिवार का घर ढूंढ कर उसे राष्ट्रीय स्मारक व म्यूज़ियम बना दिया जाएगा. चलिए, इंतज़ार करते हैं.

धुंडिराज गोविन्द फाल्के या दादा साहेब फाल्के, जिस नाम से देश का सबसे प्रतिष्ठित फ़िल्म अवार्ड भी है – ‘दादा साहेब फाल्के लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड’, एक ऐसी शख़्सियत जिसे हिंदुस्तानी सिनेमा का ‘पितामह’ कहा जाता है. ये वो शख़्स है जिसने भारत की पहली 40 मिनट लम्बी फ़ीचर फ़िल्म बनाई, और जिसने अपने पूरे जीवन में 94 फ़ीचर और 27 छोटी लम्बाई की फ़िल्में बनाईं, एक नाम जो सिर्फ़ हिदुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया अपने फ़िल्म बनाने की तकनीकी महारत के लिए जाना जाता है, वो नाम और उस नामी गिरामी कारकुन का शहर अपने तीर्थ के लिए तो जाना जाता है पर सिनेमा के लिए नहीं – त्र्यंबक क़स्बे की धूल भरी सड़क, जो सीधे त्र्यंबकेश्वर के प्रसिद्ध शिव मंदिर को जाती है, उसके एक तरफ़ की सिर्फ़ कुछ दुकानों के बोर्ड पर उनका नाम है. कोई दुकानदार भी यक़ीन से यह नहीं कह सकता कि उस सड़क का नाम वही है.

राष्ट्रीय राजमार्ग 848 पर नासिक शहर से लगभग 30 किलोमीटर दूर त्र्यंबकेश्वर मंदिर और त्र्यंबक शहर हिन्दुओं का जाना-माना और प्रमुख तीर्थ है. यह स्थान 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है, जहाँ लगभग तीन लाख तीर्थ यात्री और सैलानी हर साल आते हैं . इसी क़स्बेनुमा शहर में गोदावरी नदी पर हर 12 साल में एक कुंभ मेला लगता है, जिस दौरान 15 से 18 लाख लोग इस छोटे से शहर में आते है, टिकते हैं, स्नान कर इस मंदिर में भगवान् की पूजा-अर्चना करते हैं और लौट जाते हैं. ये वो शहर है जो लाखों लोगों के लिए वो सब हासिल कराता है पर मुश्किल से अपनी ज़रूरतों को पूरा कर पाता है. यह पंडितों और शिव भक्तों का शहर है, जहाँ हर रंग-रूप धारण किए भगवा पोशाकों में त्रिपुण्ड सजाये साधु लोग तो मिल जायेंगे पर नाटक या फ़िल्म भक्त शायद ही मिले.

हर साल तीन लाख और हर 12 साल बाद 15 लाख लोगों के यहाँ आने के बावज़ूद नासिक हवाई अड्डे पर कुल दो शहरों से जहाज़ आते हैं, एक दिल्ली से और दूसरा हैदराबाद से. साई बाबा के भक्तों का शिरड़ी भी यहाँ से कुल 90 किलोमीटर ही है.


फाल्के के ज़िक्र वाला साइन बोर्ड और त्र्यंबक मंदिर. फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा

त्र्यंबकेश्वर के प्रसिद्ध शिव मंदिर तक पहुंचती कुछ दुकानों पर लगे साइन बोर्ड के अलावा, जिन पर “दादा साहेब फाल्के मार्ग” लिखा है, मैं इस नाम की किसी भी सड़क की कोई आधिकारिक पट्टी या पहचान नहीं ढूंढ पाया. त्र्यंबक शहर काले पत्थर से बने पुराने शिव मंदिर में दर्शन करने आये तीर्थयात्रियों से पैसे कमाने में व्यस्त है, पूरा शहर भोले बाबा की कृपा से चलता है. मंदिर के ऊँचे गोपुरम का सीधा मुक़ाबला उसके पीछे चल रही काले पत्थर वाली ब्रह्मगिरी पहाड़ियों से है, दोनों में होड़ लगी है, “आओ, देखें – झुलसा देने वाली गर्मी बरसाते सूरज में कौन काले हीरे-सा चमकता है. मंदिर जीत जाता है, पहाड़ को कोई नहीं देखता. ठीक वैसे ही जैसे कि इन्हीं पहाड़ों की छाया में जन्मे और पले दादा साहेब फाल्के को यहाँ कोई नहीं जनता. इन पहाड़ों से और गोविन्द फाल्के से जो मिलना था वो ये ले चुके.
त्र्यंबकेश्वर मंदिर के बाहर लगी बड़ी-सी एलईडी स्क्रीन मंदिर के गर्भगृह से पूजा-अर्चना की हर लाइव तस्वीर, हर ब्यौरा अंदर से सीधा प्रसारित करती है, बीच-बीच में उस स्क्रीन पर इश्तिहार भी चलते हैं लेकिन शहर के रहने वाले, यहाँ के बाशिंदों में से शायद ही कोई दादा साहेब फाल्के को जानता हो. ये वो व्यक्ति है, वो नाम है जिसने हिंदुस्तानी सिनेमा की उंगली पकड़ कर उसे चलना सिखाया, वह व्यक्ति जिसने पहले-पहल कार्बन-लाइट और प्रोजेक्टर की मदद से परदे पर चित्रों और छवियों को उतारा और फिर चलती-फरिती तस्वीरों को लोकप्रिय बनाया.

त्र्यंबक शहर की संकरी, भीड़ भाड़ वाली सड़क जिस पे गाय और गोबर भी अपना स्थान बनाये हैं, और उस सड़क पे ही लगी सब्ज़ी मंडी के पीछे एक छोटा-सा सिनेमा हाल भी है. उस सिनेमा हाल को देखकर ऐसे लगता है कि इसकी दीवारों पर पुताई 50 साल पहले हुई थी या इसका मालिक इसे छोड़ भागा है. हॉल के बाहर लगे दो साल पुराने पोस्टरों से पता चलता है कि वहां कम ही लोग पिक्चर देखने आते हैं – पर उस सिनेमा हाल पे भी फाल्के के नाम का कोई उल्लेख, कोई ज़िक्र नहीं है. टिकट वाली खिड़की बंद है. गंदे से बरामदे में एक शख़्स कुर्सी पे बैठा बीड़ी पी रहा था जो धुंडिराज गोविन्द फाल्के या दादासाहेब फाल्के का नाम सुन बाहर देखने लगा जैसे वो उसी रास्ते से अभी चले आएंगे. मेरे साथ बाहर आकर उसने किसी से मराठी भाषा में कुछ ऐसा सवाल किया, ‘ये, दादा साहेब फाल्के को जानते हो क्या?’

अंजनी और ब्रह्मा पहाड़ियों के बीच की घाटी के तले में बैठा त्र्यंबक अपने दक्षिण-पश्चिम में सह्याद्रि पहाड़ियों या मनोरम पश्चिमी घाटों से घिरा है. ये अभी गाँव-सा ही है अभी नगर भी नहीं हुआ और नासिक शहर का एक हिस्सा है. गोदावरी नदी इन पहाड़ियों के पश्चिम से निकल नासिक शहर को बीच से काटती इसके आसपास की ज़मीन को सिंचित हुई निकल जाती है. नासिक शहर के बीच तो ये नदी गंदे नाले से भी बदतर है.

ब्रह्मागिरी पहाड़ियों के नीचे बसे गांव सूखी चट्टानी दीवारों से घिरे हैं, जिनके तालों में बारिश के पानी को समेटें दर्जनों छोटी-बड़ी झीलें चाँदी की बिंदियों-सी चमकती दिखाई देती हैं. यहाँ आसपास ज़्यादातर आदिवासी बस्तियां हैं, जो बड़े पैमाने पर चट्टानी ढलानों और उसके नीचे की समतल जगह पर बसी हैं. क्या इन्हीं पहाड़ियों ने दादा साहेब को कलाकार बनाया होगा? एक ब्राह्मण अपने परिवार और जजमानों को छोड़ कला की पढाई करने बम्बई क्यों चला गया, क्यूँ छोड़ दिए उसने पूजा-पाठ के नित्यक्रम और यज्ञ? मेरा मानना है कि हो न हो ये सब शिव-शंकर का ही सुझाया होगा, उन्होंने ही पहचानी होगी गोविन्द फाल्के में छुपी प्रतिभा, उन्होंने ही दिखाया होगा बम्बई का रास्ता. जय भोले.

साऊथ अफ्रीका की टेबल पहाड़ियों जैसी यहाँ की पहाड़ियों के ऊपर के हिस्से मेज़ों से सपाट और चपटे हैं जिनके आसपास आदिवासियों की बस्तियां हैं, जिन्होंने इस तपने वाले इलाके में होने वाली थोड़ी बारिश की हर बूँद को संजोना और संभालना सीखा है. पत्थरों में काटी गई गहरी और लम्बी नालियां पानी को खेतों, झीलों और तालाबों तक ले जाती हैं. यहाँ की लाल मिट्टी से उपजे फल और सब्जियों का स्वाद कुछ अलग है. यह इलाक़ा अपने प्याज़, अनार, गन्ने और खट्टे-मीठे अँगूर की फसल के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. पिछले तीस सालों में यहाँ अंगूर के बहुत से नए बाग़ान लगे हैं, जिनके चलते यहाँ वाइन और शराब बनाने की एक दर्ज़न ब्रुअरीज़ बन गई हैं. अंगूर की फ़सल केवल अमीर किसानों की मदद करती है, ग़रीब या छोटा किसान तो इस से होने वाली कमाई से महरूम रह गया है. वो किसान या तो अन्न, गन्ने या सब्ज़ी आदि की खेती करता है या मवेशियों और मुर्गी पालन करता है. यहाँ की सूखी पथरीली ज़मीन पे काश्तकारी मुश्किल काम है.

गोदावरी नदी, वैतरणी झील और गंगपुर झीलों के करीब कई छोटे चैनलों द्वारा पानी इस इलाक़े में दूर-दूर तक पहुंचाया जाता है. जिले के बाक़ी हिस्सों में पानी दुर्लभ है और साल भर इसकी किल्लत रहती है. इस बंजर इलाक़े में जंगल बचा ही नहीं है, सब काट दिए गया है. पहाड़ियों के कटाव के बीच से जहाँ-तहाँ कोई भी नासिक, त्र्यंबकेश्वर और आगे दक्षिण-पश्चिम में देख सकता है. इन पथरीली घाटियों और पहाड़ियों में तेंदुए, लकड़बग्घे लोमड़ी, कुत्ते, और छोटी तादाद में बकरी के अलावा कोई जानवर नहीं है, हालांकि आपको नासिक शहर में सड़कों के किनारे पत्थर में तराशे हाथी मिलेंगे. मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी और उनकी बहादुरी का दम भरते हवा में टांगें उठाये, कूदने और रौंदने के लिए तैयार पत्थर के घोड़े भी यहाँ खूब हैं. शहर के कुछ इलाक़ों में चमकदार सफ़ेद पेंट की गई तेज-सींग वाली सुन्दर युवा गाय भी हैं, जो बाहर से आने वालों को अपनी काजल भरी सुन्दर आंखों से देख कर हैरान कर देती हैं. हिंदुस्तान के किसी शहर में भी मैंने सड़कों पर ऐसी एक भी स्वस्थ या सुंदर गाय को कभी नहीं देखा.


त्र्यंबक में ब्रह्मगिरी पहाड़ी पर त्रिदेवता. फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा

नासिक शहर के बीचो-बीच चलने वाले मुंबई-आगरा एक्सप्रेस-वे को लाल पत्थर की पहाड़ियाँ काटकर चौड़ा किया जा रहा है. ये वही पहाड़ियां हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि उनमें स्वयं भगवान ब्रह्मा का वास है. मोटी लाल धूल अब यहाँ की हवा का हिस्सा है. एक बहुत बड़ी चट्टान जो कभी नीचे लुढ़क आई होगी मुझे बुलाती है और मैं उस पर बैठ सूर्यास्त के रंगों को निहारता हूँ. दूर जहाँ सूरज डूब रहा है, वहां पर गुलाबी, बैंगनी और विलय होते लाल-नारंगी रंग मुझे मुग्ध कर लेते हैं पर जैसे ही मैं पीछे पलट कर देखता हूं वो जादू टूट कर बिखर जाता है. पीछे पूर्व दिशा में फाल्के के गांव की ओर थके और बुझे हुए सलेटी रंग मेरे मन को बेचैन करते हैं. यकायक मुझे एहसास होता है कि फाल्के परिवार त्र्यंबक छोड़ बम्बई क्यों चला गया होगा. पश्चिम में जादुई रंग हैं, आकर्षण है, गति है, विज्ञान है, तक़नीक है और प्रगति भी. पूर्व एक उदास फ़लसफ़ा रहा होगा. त्र्यंबक में समय तब भी थमा हुआ था, रुका हुआ था वैसे ही आज भी है. जाने कितने फाल्के रोज़ त्र्यंबक छोड़ बम्बई और दूसरे बड़े शहरों को जाते होंगे.

फाल्के और उनके भाई बम्बई चले आए, जहां दादा साहब ने अपना मैट्रिक पूरा किया और बाद में सर जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट में भर्ती हो गए. कला की डिग्री पूरी करने पर उन्होंने पेंटिंग, आर्किटेक्चर, मॉडलिंग, प्रिंटिंग, लिथोग्राफ़ी, प्रिंट-मेकिंग, ब्लॉक-मेकिंग, फ़ोटोग्राफ़ी और यहां तक कि थिएटर बिल्डिंग डिज़ाइन भी सीखा. जिसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक मिला. यहाँ उन्होंने कुछ अंग्रेज़ी, जर्मन और फ्रांसीसी चल-चित्रों (मोशन पिक्चर) को देखा और वो चलती छवियों से मन्त्र-मुग्ध हो गए थे.

नौजवान गोविन्द फाल्के ने इंग्लैंड में फ़िल्म बनाना सीखा, उसकी बारीकियां समझी, तकनीक सीखी, फ़िल्म कैमरा खरीदा और वापस आने से पहले फ़िल्म की रील का आर्डर भी दे दिया. फ़िल्म-निर्माण के अपने शुरुआती सालों में वो नाकाम रहे और कई बार निराश भी हुए. पर सब मुश्किलों के बावज़ूद गोविन्द फाल्के ने “राजा हरीशचंद्र” फ़िल्म बनाई . फ़िल्म ब्लॉक-बस्टर रही और उसने ख़ूब पैसे कमाए. इस फ़िल्म ने हिंदुस्तानी जनता को चौंका दिया जो तब तक चलती तस्वीरों के बारे में नहीं जानती थी. उनके लिए ये जादू था. इस फ़िल्म के निर्देशक, स्क्रीन-लेखक, संपादक, प्रोडक्शन डिज़ाइनर, मेकअप आर्टिस्ट और यहां तक कि एक्टिंग भी गोविन्द फाल्के ने ही की. “हरीशचंद्र” की गुड्डी चढ़ी तो कई अमीर सेठों ने इस फ़िल्म को अलग-अलग शहरों में दिखाने का ज़िम्मा ले लिया. इसके लिए उन्होंने गोविन्द फाल्के को अच्छी-ख़ासी रक़म दी और फ़िल्म रील की कई कापियां बनाने के लिए भी आर्डर दिया. इस एक फ़िल्म को ले कर कई छोटे-बड़े सिनेमाघर बन गए.

महाराष्ट्र में तब के मुख्यमंत्री, पृथ्वीराज चौहान ने 2012 में अपनी मृत्यु से पहले राज्य विधानसभा में घोषणा की थी कि दादा साहेब फाल्के के “घर” को एक राष्ट्रीय स्मारक में बदल दिया जाएगा और वहां एक संग्रहालय बनाया जाएगा. ये बस घोषणा हो कर ही रह गई क्योंकि नासिक और त्र्यंबक के प्रशासन उस घर का पता ही नहीं लगा सका, जहां भारतीय सिनेमा के दिग्गज़ गोविन्द फाल्के का जन्म हुआ था या जहाँ वो अपने शुरुआती जीवन के दौरान रहते थे.

आख़िरकार, 2016 में त्र्यंबकेश्वर से दूर नाशिक के बाहरी इलाके में मुंबई-आगरा हाईवे पर दादा साहेब फाल्के का स्मारक बनाया गया, जो कि उस इलाक़े की पांडवलेनी गुफाओं के करीब है. यहाँ उस महान व्यक्ति या उसकी विरासत नाम मात्र ही है बल्कि उसे देख कर दुःख ही होता है.

मुझे नहीं लगता दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के किसी विजेता ने फाल्के मेमोरियल के विकास के लिए कुछ भी दिया हो, किया हो या यहां तक कि उनमे से कोई भी दादा साहेब को श्रद्धा और सम्मान देने भर के लिए कोई वहां गया ही हो. पुरस्कार विजेता तो बस उनके नाम की प्रशस्ति, एक शॉल, ख़ालिस सोने का बना कमल मैडल और दस लाख रूपये की राशि पा कर अपने घर का रुख़ करते हैं. कुछ तो ऐसा भी कहते हैं कि “इसके वो सालों से हक़दार रहे हैं”. हिंदुस्तानी सिनेमा की दिग्गज कंपनियों ने भी इसके लिए कुछ नहीं किया. ये वही लोग हैं जिन्होंने फ़िल्मों से नाम, इज़्ज़त और शोहरत पाई है. यह कैसा देश है जो फिल्मों के पितामह को एक म्यूज़ियम भी न दे सका. यह वही बॉलीवुड है, जो हर फ़िल्म के लिए करोड़ों की बात करता है, एक हीरो को सौ करोड़ दे सकता है पर जिस इंसान ने वो करोड़ों बनाने का रास्ता दिखया उसकी याद में ढंग का एक म्यूज़ियम भी न बना पाया.

नासिक-त्र्यंबक हाईवे पर एक वीरान-से टुकड़े पर एक सादी-सी इमारत है, जिसके बाहर “शांती-क्रिशना म्यूज़ियम ऑफ़ मनी हिस्ट्री” का बोर्ड लगा है. यह प्राइवेट म्यूज़ियम भी ग़ज़ब है. वैसे तो ये हिंदुस्तानी मुद्रा यानि करेंसी का म्यूज़ियम कहा जाता है पर इसमें है सब कुछ. कलाकृतियां, फ़ॉसिल की चट्टानें, पुराने बर्तन, औज़ार, किताबें, कपडे और जूते और जाने क्या-क्या पर इसकी एक गैलरी ख़ास फ़िल्मों के लिए है.

यहाँ रखे गए कार्बन-आर्क लैंप 35 मिमी फ़िल्म प्रोजेक्टर ने मुझे फिर से फाल्के की याद दिला दी. इस प्रोजेक्टर के पीछे की दीवार पर बड़े-बड़े रंगीन हिंदी फ़िल्म पोस्टर, कुछ शीशे की बनी स्लाइड, फ़िल्म रील के ड़िब्बे, कुछ पुराने लेंस वगैरह-वगैरह. ये सब देख मुझे जाने क्यों लगा कि हो न हो इस जगह का फाल्के से कोई ताल्लुक़ तो है. मैंने उस म्यूज़ियम के क्यूरेटर (संरक्षक) से दादा साहेब फाल्के का ज़िक्र किया. मुझे लगा वो ऐसे देख रहे थे जैसे उन्हें मेरी बात समझ नहीं आई या मैं पश्तो बोल रहा था.

ओये रब्बा मैं क्या उम्मीद लगा रहा था ! मुसिओलॉजी में महारत लिए ये साहब फाल्के के नाम से वाक़िफ़ भर ही थे. क्या हम मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों के सिवा किसी अन्य प्रकार के पवित्र स्थान नहीं बना सकते? क्या इंसानों में देवता नहीं हो सकते? अगर एक पेड़, एक नदी, एक झील, एक ग्रह या भूमि पवित्र हो सकती है तो एक वैज्ञानिक, एक आविष्कारक, एक प्रर्वतक या एक कलाकार भी उतना ही सम्मान का हक़दार हो सकता है. यदि हम अपने देवों की यादों को हज़ारों-लाखों वर्षों तक संजो सकते हैं और उनके लिए पूजा स्थल बना सकते हैं, तो हम अपने महान-पुरुषों की स्मृति को जीवित क्यों नहीं रख सकते हैं और उनके लिए अच्छे स्मारक क्यों नहीं बना सकते?

त्र्यंबक मंदिर के आसपास, एक सड़क के बाद दूसरी सड़क पार करते मैं दादा साहेब फाल्के के शुरुआती जीवन के कुछ और सुराग़ खोजने के लिए पूछताछ करता हूं, लेकिन मुझे कोई सुराग़ नहीं मिला. फिर त्र्यंबकेश्वर मंदिर के आँगन में खड़े होकर सोचता हूँ कि क्या कोई ऐसा परोपकारी इंसान भी हो सकता है जो सिनेमा को धर्म मानता हो, चाहे वो नास्तिक न भी हो फिर भी क्या वो मंदिर के बगल में एक बड़ा फ़िल्म थियेटर बना सकता है? और क्या उस थिएटर में सभी को मुफ़्त फ़िल्म देखने की सहूलियत मुहैय्या कराई जा सकती है जैसे कि मंदिर में प्रवेश मुफ़्त है?

अपनी ख़ुराफ़ाती सोच को मैं आगे बढ़ाता हूँ. अगर ऐसा हो पाए तो इन दोनों में से ज़्यादा भीड़ कहाँ जाएगी, मंदिर में या सिनेमा में? मुझे यक़ीन है कि फ़िल्म थियेटर ये बाज़ी मार लेगा. मंदिर और देवों की श्रद्धा अपनी जगह पर हिंदुस्तानी जनता के लिए फ़िल्म और मनोरंजन भी बराबर का धर्म है. मेरे लिए हिंदुस्तान में पहले-पहल सिनेमा बनाने वाले और अच्छा सिनेमा बनाने का रास्ता दिखाने वाले भी पूजनीय ही हैं. एक मंदिर दादा साहेब फाल्के के नाम पर भी.

ज़रा सोचिये और इस पर गौर कीजिये. अकेले सन् 2023 में 157 करोड़ लोगों ने पैसे दे कर सिनेमाघरों में फ़िल्म देखी, पैसे दे कर और कुल जमा 23 करोड़ लोग देश भर के सभी तीर्थ केंद्रों पर जाते हैं, जिसमें हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम और ईसाई सब तीर्थ स्थल शामिल हैं.

सोचिये अगर फ़िल्म देखना मुफ़्त हो जाए तो ? याद कीजिये टेलीविज़न पर रामायण सीरियल का पहला टेलीकास्ट – जब सुबह कोई घर से नहीं निकलता था.

कवर| फ़ोटो प्रदर्शनी बाँबे थ्रू द आइज़ ऑफ़ प्रदीप चंद्रा से साभार

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