यादों में शहर | सुकुमार-सा देहरादून किसी अधेड़ की शक्ल में मिला

किसी की ज़िंदगी में तीस साल का वक़्फ़ा बहुत होता है. एक तिहाई या उससे थोड़ी ज़्यादा ही ज़िन्दगी. लेकिन एक शहर के लिए इतना वक़्फ़ा क्या होता है? शायद कुछ भी तो नहीं!

लेकिन समय है कि बहुत तेज़ दौड़ रहा है और आदमियों के साथ ये शहर भी दौड़े चले जा रहे हैं.

यूं तो किसी भी जगह को कुछ समय बाद दोबारा देखोगे तो कुछ बदली-बदली-सी ही लगेगी. पर इसमें सारा दोष जगह या समय का नहीं बल्कि आपकी स्मृति का भी होता है जो इस क़दर स्थिर होती है कि ज़रा-सी टस से मस नहीं होती. और समय है कि भागा-भागा जाता है, रुकने का नाम नहीं लेता. और जगहें तो समय के साथ ही क़दमताल करती है. वे ठहरी हुई स्मृति से बहुत आगे जा चुकी होती हैं. सवाल बस इतना है कि आगे जाने की कोई सीमा या गति भी होती है या नहीं.

कोई शहर तीस सालों में इस क़दर बदल जाएगा, इसका ज़रा भी गुमान न था.

एक शहर देहरादून था. एक शहर देहरादून है. उफ्फ़ क्या हाल हो गया है?

समय एकदम याद नहीं है. अगर स्मृति पर ज़्यादा ज़ोर डाला जाए तो एकदम सही समय भी बताया जा सकता है. फिर भी इतना तय है यह पिछली शताब्दी के अंतिम दशक का पहला या दूसरा साल ही था. वे गर्मियों के दिन थे. तब इस शहर को पहली बार देखा था. दिल आ गया था. लगा था कि शहर हो तो ऐसा. कितना भाग्यशाली लगा था ये शहर. इस शहर पे प्यार तो आया था मगर ईर्ष्या भी हुई थी यहां के लोगों से. तब यही लगा था इस शहर में रहने वाले कितने क़िस्मत वाले होंगे.

तब इस शहर को देखकर यही लगा था उफ्फ़ ये शहर! ये शहर है या कोई सुकोमल, कमनीय, ख़ूबसूरत, अलसाया-सा राजकुमार… हाँ, कुछ ऐसा ही तो लगा था. यह पहली नज़र में प्यार हो जाने वाला मसला था. एक ऐसा शहर जिसे मौसम की मार से बचाने के लिए चारों ओर पहाड़ियों ने दुशाला ओढ़ा रखा है. गहरी हरी घनी हरियाली ने सूर्य देवता के कोप से बचाने के लिए उसके सिर पर छावा कर दिया हो. और वो पहाड़ों की रानी मसूरी उसके शीश पर मुकुट सी शोभायमान थी. और रात में उसकी जलती-बुझती बिजलियां उस मुकुट में चमकती मणियों से कम कुछ भी प्रतीत हो सकती थीं भला. चारो ओर फैले बासमती के धानी रंग के खेतों के वस्त्र उस राजकुमार पर कितने फबते थे. और-और वे सरस, रसीली लीची और गदराए आम के पेड़ उसके वसन पर टंके सितारे से ही तो होते थे. बासमती की वो महक उसकी जठराग्नि दीप्त करती और आम और लीची को मादक गंध उसकी क्षुधा को शांत. वो राजपुर वाली सड़क तो उसके गले में पड़ा खूबसूरत हार ही था न. और हाँ, याद आया वो रिस्पना उसकी कमर पर लटकी करधनी ही थी न. और वे एलीट संस्थाएं मसलन भारतीय सैन्य अकादमी, फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, डील, सर्वे कार्यालय! उसके सीने पर शान से लहराते तमगे ही तो थे.

ऐसे रूप पर आदमी तो क्या देवता का दिल भी न डोल जाए तो क्या हो. आख़िर इंद्र देव उस पर यूं ही मेहरबां थोड़े ही हुए होंगे कि सूर्य ने शरारतन जब भी इस राजकुमार को परेशान करने की नीयत से ज़रा-सा ताप बढ़ाया नहीं कि इंद्र की आंखों से दुःख की बूंदें बह निकलती और तब तक बहती रहती जब तक सूर्य के ताप से राजकुमार को राहत न मिल जाती.

हो सकता है दोस्तो, मैं उस राजकुमार की डिटेलिंग में कुछ भूल रहा हूँ. आख़िर उसकी ख़ूबसूरती को परखने के लिए दो दिन का वक़्फ़ा ज़्यादा थोड़े ही होता है. अगर आपको कुछ याद हो या याद आए तो आप उसमें जोड़ लेना.

ये आपकी ख़ुशक़िस्मती होती है कि आपकी इच्छाएं पूर्ण होती हैं. लेकिन इच्छाओं के पूर्ण होने की समय के साथ एक संगति भी होनी चाहिए. समय बीत जाने पर इच्छाओं का पूर्ण होना इच्छाओं के अपूर्ण रह जाने से होने वाले दुःख से भी ज़्यादा मारक साबित होता है या हो सकता है.

इच्छा पूरी हुई. मन की मुराद गले आ लगी. यज्ञ भूमि से देवभूमि में वास करने का मौका मिला. तो दून घाटी आ लगे. इस बार घूमने थोड़े ही आए थे. अब तो हम ख़ुद को उनमें गिन रहे थे, जिनको हमने पिछली बार ख़ुशनसीब माना था.

दिल उस ख़ूबसूरत राजकुमार को लंबे अरसे बाद देखने को बेताब हो चला था.

ये क्या! शहर में घुसते ही दिल धक-धक करते-करते हौंकने लगा था. ढलती साँझ के वक़्त हल्की बूंदाबांदी में रेंगते ट्रैफिक शहर की उदासी को घनीभूत करके रात को कुछ ज़्यादा गाढ़ा बनाने की भूमिका तैयार करता लग रहा था. अनहोनी की आशंका मन में जन्मने लगी थी, जिसे सच साबित होना था.

सोचा तो ये था इन बीते तीस सालों में ये सुकोमल-सा राजकुमार कुछ और गबरू नौजवान हो गया होगा. लेकिन ये क्या! ये तो ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबा जवानी में ही बुढ़ाते, हांफते, गिरते-पड़ते आम आदमी-सा दिखाई देने लगा था. ये उम्मीदों का एन्टी-क्लाईमेक्स था.

चारों ओर कुकुरमुत्तों की तरह बेतरतीब सी उगी कॉलोनियां ने उसके पेट के आयतन को असीमित रूप से बढ़ा दिया है कि अब पैदल चाल तो क्या ऑटो इंची टेप से नाप पाना दुष्कर हो चला है. अब वे धानी धान के खेत वाले वसन उसके इस सुरसा के मुख की तरह बढ़े शरीर को ढक पाने में कहां समर्थ हैं. वे तो अब उसके शरीर पर चिथड़े से ही लगते हैं. हरियाली सिरे से ग़ायब है. अब लीची और आम के साथ-साथ बाक़ी पेड़ भी कहाँ बचे? तभी वो अब गंजा दीखने लगा है. अब शायद उसे ‘बाल्ड इज़ ब्यूटीफुल’ की सूक्ति से तसल्ली मिल जाती रही होगी. चारों तरफ फैला अतिक्रमण उसके चेहरे पर बेतरतीब खिचड़ी दाढ़ी-सा आंखों को चुभता है. आम और लीची की वो मीठी ख़ुशबू अब नालियों और नालों ने सोख ली है. जगह-जगह भरा पानी कील मुहांसे के अवशेष गड्ढे से नज़र आते हैं. और वे एलीट संस्थाएं अब तमगों की जगह टाट पर रेशमी पैबंद सी लगती हैं.

ऐसा नहीं कि उसके रंग-रूप को बचाने की कोशिश न की गई हो. बार-बार हुई है. लेकिन जब जब कोशिश होती वो उसके चेहरे पर किसी थर्ड ग्रेड सैलून में हुए फूहड़ मेकओवर से ज़्यादा कुछ नहीं होता. रूप बदलने के लिए एकाध बार प्लास्टिक सर्जरी की कोशिश भी हुई पर उससे बेहतर होने के बजाय और कुरूप होकर बाहर निकाला.

उफ्फ़ राजकुमार का ये हाल कर डाला उसके दरबारियों ने. वह भी इतने कम समय में. यकीन ही नहीं होता. हक़ीक़त और इतनी अविश्वसनीय. कमाल है न!

अब आप जब भी उस ख़ूबसूरत राजकुमार को देखने आएंगे तो उसकी जगह आपको संसाधनों के अभाव और बेशुमार ज़िम्मेदारियों के बोझ के मारे लाचार अधेड़ से मुठभेड़ होगी.

तो दिल थाम कर आइए. कलेजा हाथ में लेकर आइए. हां, आप इससे कभी पहले नहीं मिले तब कैसे भी चलेगा.

लेकिन कमाल है कि वो ज़िंदा है. उसमें एक दिल धड़कता है. वो अब भी वैसे ही धक-धक करता है जैसे कभी पहले करता था. जानते हैं क्यूं. क्योंकि इसमें अभी भी लिक्खाड़ रहते हैं, कवि और शायर रहते हैं, कलाकार रहते हैं, और बहुत सारे मानुस भी रहते हैं. वे अब भी इसमें विश्वास करते हैं और इससे प्यार करते हैं. वे उसमें जान फूंकते हैं. वे उसकी प्राण वायु हैं. उसकी धड़कन हैं.

आज भी यकीन होता है शहर शरीर से कितना भी जर्जर हो जाए, आत्मा तो ज़िंदादिल बनी रहेगी.

(तो अगली बार उस धड़कन का हिसाब)

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