लोग-बाग | ज़रीफ़-उल-मुल्क बेतुक रामपुरी

  • 4:22 pm
  • 11 May 2022

रामपुर की दोमहला रोड से गुज़रते हुए एक गली के मुहाने पर लगा पत्थर यक़ीनन ऐसे लोगों को हैरत में डाल सकता है, जो इस शहर के बाशिंदे नहीं हैं. और जो इस सड़क को मिले नाम की कहानी से वाक़िफ़ नहीं. वजह इस सड़क का नाम ही है – बेतुक रोड. इलाक़े के लोगों के लिए ज़ाहिर है कि यह कोई पहेली नहीं.

यों उन्हें गुज़रे हुए भी आधी सदी से ज़्यादा वक़्त गुज़रा मगर चंदा प्यारे ख़ां की ज़िंदादिली के क़िस्से अभी लोगों की याद में हैं और उनकी शायरी का मिज़ाज भी. कुनबे की ज़रूरतों की ख़ातिर उन्होंने रामपुर रियासत की फ़ौज में इन्स्ट्रक्टर के तौर पर मुलाज़मत की, रज़ा शुगर मिल में डेरी फार्म के इंचार्ज रहे और बाद में इसी फ़ैक्ट्री के सुपरवाइज़र भी हुए मगर शायरी उनका शौक़ थी. मज़ाहिया शायरी करते थे तो अपना तख़ल्लुस ‘बेतुक’ रख लिया. आहिस्ता-आहिस्ता मुशायरों के दावतनामे भी आने शुरू हुए. उनके ख़ुशदिल और तंज़िया क़लाम पर लोग लहालोट हो जाते. उनकी शायरी की मक़बूलियत का नतीजा यह कि तख़ल्लुस ही उनकी असली पहचान बन गया और वे चंदा प्यारे ख़ां से बेतुक रामपुरी हो गए.

अपनी शायरी की तरह ही इंसान भी वो ख़ासे दिलचस्प थे. चीनी मिल की नौकरी से रिटायर हुए तो दोस्तों की महफ़िल जुटाने के ख़्याल से चाय की दुकान खोल डाली. और इसका नाम रखा – बेतुक चाय पीने का झोपड़ा. दुकान के बोर्ड पर इसी की तुक में एक और मिसरा लिखा गया था, जो बहरहाल यहाँ लिखा नहीं जा सकता मगर वह उनके बेलौसपने की गवाही ज़रूर था. और उन्हें मिला ख़िताब ‘ज़रीफ़-उल-मुल्क’ उनकी ज़हानत और दिल्लगीबाज़ तबियत की नज़ीर बना.

उनके बेटे शायर रईस रामपुरी ने संस्मरणों की किताब संपादित की है – ‘तुक बेतुक’. बेतुक साहब के तमाम दोस्तो, शायरों ने बेशुमार महफ़िलों, मुशायरों और सफ़र के दौरान उनकी सोहबत के ऐसे-ऐसे तजुर्बों के क़िस्से लिखे हैं, जो पुरलुत्फ़ तो हैं ही, उनकी शख़्सियत का ख़ाका भी खींचते हैं.

इस किताब में सन् 1937 में बरेली कॉलेज में हुए मुशायरे का एक वाक़या मिलता है कि हज़रत बेतुक पढ़ने के लिए उठे तो लड़कों ने हूटिंग शुरू कर दी – हां, आप बेतुक हैं. आप भूरे हैं, आप बेडौल हैं, वाक़ई बेतुक हैं, वगैरह-वगैरह. शोर थमा तो हज़रत ने क़तआ अर्ज़ किया – क्या जाने किस तौर बरेली आए/ हम करते हैं अब ग़ौर बरेली आए/ बेतुक तो ये कोई तुक तो हमारी देखिए/ दीवाने नहीं और बरेली आए. बरेली में मेंटल हॉस्पिटल और दिवाने के रिश्ते पर ग़ौर करेंगे तो आप झट समझ जाएंगे कि बेतुक साहब के इस तरह आग़ाज़ करने के बाद उस महफ़िल में हूट करने वाले लड़कों को सांप क्यों सूंघ गया होगा!

उनकी शख़्सियत और हाज़िरजवाबी की मिसाल के तौर पर एक और क़िस्सा किताब में है. ग़ालिबन 1939 में मुरादाबाद में वॉलीबॉल के ऑल इंडिया टूर्नामेंट में रामपुर की टीम के सरपरस्त और मैनेजर की हैसियत से साथ गए बेतुक रामपुरी के कई क़िस्से हैं मगर इसमें सबसे ज़्यादा दिलचस्प क़िस्सा पुलिस के मुख़बिर की पिटाई का है. इस क़िस्से का लब्बोलुआब यह है कि गर्मी के दिन थे और टीम को ठहरने के लिए मुरादाबाद में जो कमरा मिला, वह रात को भी तप रहा था. बहुत कोशिश के बाद उन लोगों को नींद नहीं आई और निजात की कोई सूरत नज़र नहीं आई तो आधी रात को उनमें से कुछ लोगों ने सामने की मस्जिद में जाकर सोने का इरादा किया. मस्जिद का सहन काफ़ी बड़ा और खुला हुआ था.

इन लोगों ने एहतियातन अपने जूते कमरे में ही छोड़े और तकिया उठाकर मस्जिद में जाकर लेट गए. देखा-देखी हज़रत बेतुक भी वहीं पहुंच गए. उन्हें कोई तकिया न मिला तो वह टीम के एक साथी की बड़ी तौलिया साथ लेते आए. सिरहाना ऊंचा करने के लिए उन्होंने तकिये के अंदर एक गुम्मा और लपेट लिया. उस वक़्त किसी को अंदाज़ नहीं था कि सुबह तक यह गुम्मा क्या गुल खिला सकता है.

फिर हुआ यह कि कई लोगों को वहाँ लेटा हुआ देखकर मस्जिद के ख़ादिम उठकर आए और इन लोगों से कहा कि मस्जिद सोने की जगह नहीं है, और बेहतर हो कि ये लोग अपने सोने के लिए कोई और ठिकाना ढूंढ लें. अपने कमरे में तपिश-गर्मी की दुहाई देते हुए इन लोगों से ख़ादिम को यक़ीन दिलाया कि सुबह की नमाज़ होने से पहले सब लोग वहाँ से चले जाएंगे. ख़ादिम अड़ गए और लगे हुज्जत करने तो इन लोगों ने डपट दिया. फिर वह लौट गए. भोर में कुछ आवाज़ों से जब इन लोगों की आंख खुली तो पाया कि डण्डे और पिस्तौल ताने पुलिस वालों ने सबको घेर रखा है. दरअसल ख़ादिम ने रात को ही कोतवाली जाकर ख़बर कर दी कि कुछ डकैत मस्जिद में घुस आए हैं. अब ये लोग अपनी सफ़ाई में कुछ बताने की कोशिश करते तो थानेदार घुड़ककर चुप करा देता.

इसी बीच बेतुक साहब को कोई तरक़ीब सूझी. वह उठे और अपने सिरहाने रखे तौलिये को मज़बूती से पकड़कर उसी पर बैठ गए. मुख़बिर ख़ादिम ने उनके हावभाव से अंदाज़ लगाया और उनकी तरफ़ इशारा करके पुलिस वालों को बताया कि माल यहां है. इतना सुनना था कि दो-तीन पुलिस वाले उन पर झपट पड़े और तौलिये वाला बंडल उनके हाथ से छीनने की कोशिश की तो वे चीखने लगे – ये तो नहीं दूंगा, हरगिज़ नहीं दूंगा. पुलिस वालों ने उन्हें कई मुक्के जड़ दिए, डंडा भी मारा और उनसे तौलिया झपटकर उसे खोला तो गुम्मा ज़मीन पर आ गिरा.

यह देखते ही हज़रत से दहाड़ मारी – मैं तो बरबाद हो गया, मुल्ला तुझे ख़ुदा ग़ारत करे, तूने मुझे बरबाद कर दिया. थानेदार ने पूछा कि यह सब क्या मामला है. हज़रत ने कहा कि थानेदार साहब, चाहे मुझे सौ बरस की क़ैद करा दो मगर इस मुल्ला से मेरी अफ़ीम वापस दिला दो, जो मैं इसे बेचने लाया था. इसने सोते में अफ़ीम चुराकर यह गुम्मा रख दिया और फिर आपको बुला लाया. थानेदार ने मुल्ला से पूछा. उसने अफ़ीम के बारे में साफ़ इन्कार कर दिया तो पुलिस वालों ने जमकर ठुकाई भी की. ख़ैर, बाद में इन लोगों ने सारा वाक़या बयान किया. टीम के एक खिलाड़ी पुलिस में मुलाज़मत करते थे, वह भी आ गए. किसी तरह मामला निपटा. वहाँ से चलते वक़्त बेतुक साहब ख़ादिम को यह हिदायत भी देते गए कि आइंदा मुख़बिरी मत करना.

बेतुक रोड पर मिल गए उनके पड़ोसी बरकत ख़ां ने उनकी हाज़िरजवाबी और मजाहिया शायरी का नमूना पेश किया – अदीबे रूसियाह घबरा के घर की खाट बेचेंगे/ ये जितने फ़िल्म वाले हैं एक दिन चाट बेचेंगे. बेतुक साहब के पोते शरीफ़ ख़ान इन दिनों ‘तुक बेतुक’ का उर्दू से हिंदी तर्जुमा कर रहे हैं ताकि ज़्यादा लोग उन्हें जान-समझ सकें.

[यह आलेख अमर उजाला के 10 मई के अंक में छपा है.]

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