इंटरव्यू | ऑर्डली सोसायटी चाहिए तो पोयट्री ज़रूरी हैः शह्रयार

कमलेश्वर शह्रयार को ख़ामोश शायर मानते हैं. एक ऐसा ख़ामोश शायर कि वह जब इस कठिन दौर व ख़ामोशी से जुड़ता है, तो एक समवेत चीख़ती आवाज़ में बदल जाता है. बड़े अनकहे तरीके से अपनी ख़ामोशी भरी शाइस्ता आवाज़ को रचनात्मक चीज़ में बदल देने का यह फ़न शह्रयार की महत्वपूर्ण कलात्मक उपलब्धि है. वे मानते हैं कि शह्ररयार की शायरी चौंकाने वाली आतिशबाज़ी और शिकायती तेवर से अलग ‘बड़ी गहरी सांस्कृतिक सोच’ की शायरी है और वह दिलो-दिमाग़ की बंजर बना दी गई ज़मीन को सींचती है.

अकादमी पुरस्कार के अतिरिक्त विभिन्ऩ स्तरों पर देश-विदेश में सम्मान और ख्याति प्राप्त शह्ररयार के उर्दू में ‘इस्मे आज़म’, ‘सातवां दर’, ‘हिज़्र के मौसम’, ‘ख़्वाब का दर बंद है’, ‘नींद की किरचें’ और ‘मेरे हिस्से की ज़मीन’ शीर्षक से आए काव्य-संग्रह काफ़ी चर्चित और प्रशंसित हुए. ‘ख़्वाब का दर बंद है’ हिंदी और अंग्रेज़ी में भी छप चुका है तथा ‘काफ़िले यादों के’, ‘धूप की दीवारें’, मेरे हिस्से की ज़मीन’ और ‘कहीं कुछ कम है’ शीर्षक से उनके काव्य-संग्रह हिन्दी में आ चुके हैं. ‘सैरे जहाँ’ हिंदी में शीघ्र प्रकाश्य है. उमराव जान की गज़लों से शह्ररयार को जो ख्याति, जो सम्मान मिला, उसे वे अपनी उपलब्धि और ख़ुशक्रिस्मती मानते हैं. फ़िल्म को आज के संदर्भ में वे काफ़ी ‘इफ़ेक्टिव मीडिया’ मानते हैं. वे कहते हैं कि उन्होंने अपनी आइडियालॉजी के लिए इस मीडिया का बेहतर इस्तेमाल किया.

एक श्रेष्ठ और समर्पित कवि के अतिरिक्त वे एक संवेदनशील, विनम्र, आत्मीय और दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने वाले व्यक्ति हैं. वे हँसकर बता रहे थे कि अपने अध्यापन काल में उन्होंने पोयट्री नहीं, आलोचना और कथा-साहित्य ही अधिकांशतः पढ़ाया है. गद्य में न॑ लिखने की बात करते हुए वे कह रहे थे कि हाँ, प्रोफ़ेसर होने से पहले आले अहमद सुरूर ने मुझको कहा था कि मैं ‘एस्थेटिक्स’ पर एक किताब लिख दूँ. मैंने मना कर दिया कि साहब मैं ये काम नहीं करूँगा. वे शान से बताते हैं कि उन्होंने जो कुछ भी पाया है ए.एम.यू. में, अदब में, ज़िंदगी और दुनिया में – सब जगह केवल पोयट्री की वजह से पाया है.

  • पोयट्री के प्रति उनके इस लगाव और गद्य से बचने को लेकर ही मैंने बातचीत के शुरू में उनसे पूछा था – पिछले दिनों, हिंदी में ‘कविता की मौत’ और गद्य के भविष्य पर काफ़ी कुछ कहा गया है. उर्दू में भी पोयट्री और फ़िक्शन की महत्ता-अमहत्ता पर चर्चा होती रही है. पिछले दिनों क़ाज़ी अब्दुस्सत्तार ने पोयट्री पर कई कोणों से प्रहार करते हुए इक्कीसवीं सदी को फ़िक्शन की सदी कहा है. एक शायर होने के नाते आप इन बिन्दुओं पर किस तरह सोचते हैं?

देखिए इस पर ख़ुश नहीं होना चाहिए कि यह फ़िक्शन का दौर है. इस पर अफ़सोस होना चाहिए कि यह अदब का दौर नहीं है. यह ग़म का मुक़ाम है कि लोग सीरियस लिट्रेचर न पढ़ें. महसूस करने को आला ज़बान है – हर शख़्स की मादरी ज़बान और उसकी सबसे अच्छी चाहते हैं, तो महसूस करने का यह माद्दा ख़त्म नहीं होना चाहिए. जो शख़्स महसूस नहीं कर सकता, वह ख़ासा ख़तरनाक होता है. वह न तो अच्छा शायर हो सकता है, न अच्छा बाप, न शौहर, न पड़ोसी. इसीलिए वे आर्गनाइज़्ड लोग, जो समाज में उथल-पुथल करना चाहते हैं, वे इंसानों से उनके महसूस करने का हक़ छीन लेना चाहते हैं.

शायरी, पेंटिंग, म्यूज़िक सब इमेजिनेशन की पैदावार हैं. सोसायटी में इनका न होना ख़तरनाक है. वेल्यूज़ को जितनी फ़ोर्सफ़ुली और पर्फ़ेक्टली पोयट्री रिप्रेज़ेंट कर सकती है, उतना और कोई फ़ैकल्टी ऑफ़ आर्ट नहीं कर सकती. पोयट्री से लुत्फ़ उठाने के लिए, उसे एप्रीशिएट करने के लिए कई चीज़ ज़रूरी हैं. म्यूज़िक, पेंटिंग, फ़िलॉसफ़ी, मीटर्स वगैरह. उन्हें जानना ज़रूरी है. जब तक रिद्म दुनिया में क़ायम है, पोयट्री क़ायम रहेगी. यदि आपको ऑर्डली सोसायटी चाहिए और उसमें वैल्यूज़ की बुनियाद चाहिए, तो पोयट्री ज़रूरी है.

पोयट्री फ़िक्शन की कोई दुश्मन नहीं है. सारी दुनिया की ज़बानों में पहले पोयट्री पैदा हुई, फिर फ़िक्शन. फ़िक्शन को ले-मैन भी पढ़ सकता है, पर पोयट्री का लुत्फ़ बहुत कुछ जानने पर ही लिया जा सकता है. बड़ा फ़िक्शन भी पोयट्री के बिना नहीं लिखा जा सकता. हमारी सबसे बड़ी फ़िक्शन राइटर हैदर का उपन्यास ‘आग का दरिया’ पोयट्री की मिसाल है. मीटर नहीं, पर पोयट्री उपस्थित है. क़ाज़ी साहब भी जब अपना नॉवेल सुनाते हैं, तो उन्हें वहीं दाद मिलती है जहाँ पोयट्री है. उपन्यास की बात कहते हुए ये सामने नहीं रखा जाता कि सीरियस फ़िक्शन कम पढ़ा जाता है. वह अधिक पढ़ा जाता है, जो जासूसी या रोमानी होता है और आदमी को ज़िंदगी की सच्चाइयों से एस्केप कराता है. थ्रिलर फ़िल्मों की तरह वक़्त गुजार सकने वाला फ़िक्शन वक़्त गुजारने भर को आदमी पढ़ता है.

आप जान लें कि एशिया का पूरा सोच, ट्रेंड पोयटिक है. दुनिया में कहीं फ़िल्मों में गाने नहीं होते, पर हमारे यहाँ जब तक एक-दो गीत न हों तो कहाँ क़ुबूलते हैं? हम इमोशनल हैं, इसलिए भी पोयटिक हैं. और वेस्ट और ख़ासतौर से अमेरिका की तो पहचान ही यह है कि इमोशनल नहीं होना चाहिए. उनका हर फ़ैसला सोचा, समझा और फ़ायदे के लिये होता है. फिर भी वहाँ की सोसायटी में शायरी हो रही है. पॉपुलरिटी या डिमांड से किसी नतीजे को निकालना ठीक नहीं. आज फ़िल्म के कैसिट से ज़्यादा ग़ज़ल का कैसिट बिक रहा है, इसका यह मतलब तो नहीं कि वह बहुत पापुलर है.

  • उर्दू में शायरी की ताक़त के नाम पर प्रायः ग़ज़ल का ज़िक्र किया जाने लगता है. आप भी पहले नज़्म की तुलना में ग़ज़ल के रूप को बेहतर मानते रहे हैं. ग़ज़ल और नज़्म के स्तर पर आज आप शायरी या शायर को किस तरह से अलग अथवा बेहतर-कमतर मानते हैं?

पहले मेरा इस पर रुख़ दूसरा था. अब चेंज किया है मैंने अपनी राय को. अब दोनों में ही सभी तरह की प्रॉब्लम्स फ़ेस करता हूँ. ग़ज़ल में जो भी ट्रुथ होता है, वह जनरल बन जाता है. उसकी डिटेल्स मौजूद नहीं होतीं इसलिए शेर कई जगह कई बातों को निकालते हुए आता है. यह उसकी ताक़त भी है, कमजोरी भी. आप चाहते हैं कि किसी पर्टिकुलर चीज़ पर निग़ाह डालें लोग, पर जनरल होने की वजह से सुनने-पढ़ने वाला अपनी तरह से अर्थ ले लेता है. नज़्म में जिस तरह आप अपनी बात कहते हैं, उसमें पढ़ने-सुनने वाला पूरी तरह नहीं, तो काफ़ी बड़ी हद तक आपकी सोच के आस-पास रहता है. ग़ज़ल कहते समय उस फ़ॉर्म की कुछ बंदिशें हैं, जिनकी वजह से कभी-कभी कुछ ज़्यादा कह जाते हैं या कुछ कम रह जाता है. ज़रूरी नहीं कि हर नज़्म सौ फ़ीसदी क़ामयाब हो, लेकिन ग़ज़ल के मुकाबले में लिखने वाले को यह अहसास होता है कि वह अपनी बात दूसरों तक पहुँचा सका है.

ग़ज़ल की ताक़त या कमज़ोरी की बात नहीं है. उसके फ़ॉर्म में न ख़ूबी है, न ख़ामी है. इस्तेमाल करने वाले पर है. हमारे यहाँ इसका बहुत चलन रहा है. उसके ज़रिए जो कहा जाता है, वह बहुत जल्द और बहुत से लोगों तक पहुँचता है. हर ज़माने में यूँ तो नक़्क़ाल और मामूली लोग ज़्यादा रहे हैं, जिनकी गिरह में कुछ नहीं होता. ग़ज़ल के बारे में हर बार कहा गया है कि अपने ज़माने का साथ नहीं दे सकती, पर इक़बाल, फ़ैज़ सबने साबित किया कि दे सकती है. मुशायरे की शायरी से हिंदी या उर्दू में अंदाज़ नहीं लगाना चाहिए. वहाँ जज़्बात को उकसाने वाली शायरी होती है. जैसे राजनीति में नेता फॉलोअर्स के चाहने के आधार पर चलता है, वह लीड नहीं करता, रास्ता नहीं दिखाता, एकाध को छोड़ दें तो कवि सम्मेलनों और मुशायरों में ऐसे ही शायर होते हैं. ऐसी सोसायटी सीरियस लिट्रेचर का आईना दिखाने वाले को पसंद नहीं कर सकती. प्लेटो ने शायरों को इसीलिए अपनी रिपब्लिक से निकाला था कि वे बेचैनी पैदा करते हैं, प्रश्न करते हैं.

हमारे यहाँ बहुत से ऐसे शायर हैं – अच्छे शायर, जिन्होंने ग़जल बिल्कुल नहीं लिखी पर उनकी शायरी कुछ ख़ास लोगों की शायरी है. शायरी में शायर की अपनी सोच होनी चाहिए, पहचान होनी चाहिए, कुछ ख़ास बातें उसकी होनी चाहिए, लेकिन उसकी पहुँच ख़ास के साथ आम लोगों तक भी हो. तब वह एक सच्ची और अच्छी शायरी होती है. उर्दू में इसकी सबसे बड़ी मिसाल ग़ालिब हैं, जो बहुत गहरी, बहुत फ़िलॉसफ़ीकल बातें करते हैं और ज़िंदगी की ऐसी सच्चाइयाँ सामने लाते हैं, जो हमें हैरान कर देती हैं. उनकी ज़बान भी, इडियम कहिए, वो आसान नहीं है, लेकिन इसके बावजूद एक सतह पर आम आदमी भी उससे लुत्फ़अंदोज़ होता है, मज़ा लेता है.

ग़ज़ल और नज़्म की बात जहाँ तक है, हम उर्दू वालों का मिज़ाज ग़ज़ल में इतना रच-बस गया है कि वो नज़्म को उतना पसंद नहीं करता. यही वजह है कि उर्दू में वो शायर नुक़सान में रहे, जिन्होंने सिर्फ़ नज़्में लिखीं. आम मक़बूलियत उन्हीं शायरों को मिली, जिन्होंने ग़ज़लें और नज़्में दोनो लिखीं. मसलन फ़ैज़ की मक़बूलियत में उनकी ग़जलों का बड़ा हाथ है. अगरचे अदब की सतह पर देखा जाए तो उनका असली कंट्रीब्यूशन उनकी नज़्मों में है. ग़ज़लों में उन्होंने ख़ासे ट्रेडिशनल सिंबल, सिमलीज, मेटाफ़र्स इस्तेमाल किए हैं, लेकिन वे तरक़्क़ीपसंद शायर की हैं और वे इसी हैसियत से मशहूर थे, इसलिए पढ़ने वालों ने उनके मायने नए कंटेक्स्ट में निकाले.

  •  आपने ग़ज़ल की जिस ख़ूबी-ख़ामी और उर्दू शायरों की पसंद व मिज़ाज़ की बात की है; वह तो अपनी जगह है; पर क्या आपको भी ऐसा लगता है कि ग़ज़लों में अपने पूर्ववर्तियों की छाया अथवा नक़ल या फिर दोहराव अधिक – बहुत अधिक दिखाई देता है. मौलिकता के संदर्भ में आप उर्दू ग़ज़ल को कहाँ देखते हैं?

ऐसा नहीं है. ये दौर बड़ी शायरी का दौर नहीं है. दूसरे दर्जे के शायर हैं और वे सब मिलकर बड़ी शायरी बनाते हैं. फ़ैज़, मक़दूम, मजाज़, जज़्बी, सरदार वगैरह मिलकर एक शक्ल बनाते हैं. अच्छे शायर हैं ये सब और अच्छी बात है अलग-अलग अच्छे शायर होना. हर शायर का जो प्वाइंट ऑफ़ व्यू होगा वह उससे देखेगा चीज़ों को. सिलेक्ट करने, न करने का आला प्वाइंट ऑफ़ व्यू है. ऐसा मालूम होता है कि कुछ सिमलीज़ व मेटाफ़र्स बार-बार आ रहे हैं. उससे लगता है कि रिपीट कर रहा है शायर अपने को.

अच्छा-सच्चा शायर कोशिश करता है कि अपने को रिपीट न करे. अब जैसे रात आया या सहर आया कहीं. पॉलिटिकल-सोशियो प्रॉब्लम्स हैं, अपनी बात है, कहने में कुछ सिंबल हेल्प करते हैं. इसलिए रात और दिन सिंबल बन गए. सिचुएशन की मुख़्तलिफ़ी से फ़ैज़ के और मेरे, पाकिस्तान के रात या दिन अलग होंगे. बहुत से दौर अदब में ऐसे आते हैं और आए हैं, जहाँ शायरों की बात ओवरलैप करती है. वह पूरे दौर की बात बन जाती है. एकस्टर्नल फ़ोर्सेज़ बहुत से लोगों को एक तरह से सोचने को मजबूर कर देती है. जब सब लोग एक तरह से सोचने को मजबूर हो जाएँ तो ज़ाहिर है कि उनकी ज़बान में भी समानताएँ नज़र आती हैं.

पर ये ऊपरी समानताएँ होती हैं. सरसरी नज़र से, कैज़ुअली जो पढ़ता है, उसे यह धोखा होता है कि सब एक तरह की बातें कर रहे हैं. शायरी में हर शायर की इंडिवीजुअलिटी ज़रूर मौजूद रहती है. इसलिए क्रिएट करने वाले की अपनी जो आइडेंटिटी है, वह ग़ुम नहीं होती. शायरी या कोई सीरियस फ़ॉर्म पढ़ने-सुनने-देखने वाले से थोड़ी सावधानी और थोड़ा वक़्त माँगता है. ज़ाकिर साहब का यह कथन कि अगर कोई काम इस क़ाबिल है कि किया जाए तो फिर उसे दिल लगाकर किया जाए, अदब पर भी पूरी तरह लागू होता है. आपने अभी कहा कि यह दौर बड़ी शायरी का दौर नहीं है. आख़िर क्या कमियाँ या कारण आप इस दौर में देखते हैं. जिनकी वजह से बड़ी शायरी पैदा नहीं हो पा रही है?

बड़ी शायरी जिस ज़माने में पैदा होती है, उसमें कुछ वैल्यूज़ को सब मानते हैं. जब एपिक या बड़ी शायरी पैदा हुई, सब वैल्यूज़ को सबने माना है. अब भी पैदा हो सकता है, यह कंडीशंस से तो नहीं लगता. बहुत से शायर मिलकर शायद कुछ परछाईं हों बड़ी शायरी की. ये जो जल्दी-जल्दी चेंज आ रहे हैं, वे किसी वैल्यू पर रुकने नहीं देते सोसायटी को. अच्छा, बुरा, हसीन, बदसूरत अब एब्सॉल्यूट फ़ॉर्म में नहीं है. जब तक एब्सॉल्यूट वैल्यू न हो तब तक बड़ा कहाँ? सब अच्छे को अच्छा कहें, अच्छा समझें. आज तो बदसूरत में ख़ूबसूरत भी मिल रहा है. सबका अच्छा-बुरा अलग-अलग. जंग के नाम पर अमन और अमन के नाम पर जंग.

गुलाब के फूल को आज सब लोग ख़ूबसूरत नहीं मान रहे हैं. आज हर सच का झूठ आप देख चुके हैं. सोसायटी कहीं ठहर ही नहीं पा रही. जल्दी-जल्दी सरकारें बदल रही हैं. चीज़ें जिस तरफ़ जा रही हैं उससे उम्मीद नहीं. जब भी हमें अब फ़ैसले करने होते हैं, तो हम देखते हैं कि कौन कम ख़राब और कम ख़तरनाक है. इस दौर में, ऐसी सोसायटी में बड़ी शायरी कहाँ? यह मेरा नहीं बहुत लोगों का ख़याल है. पर अच्छी शायरी होती रहे यही अच्छा है. बड़े के चक्कर में अच्छी शायरी भी बंद न हो जाए. लालची कुत्ते की तरह कहीं हड्डी भी न चली जाए. शायरी केवल अपने आप ही बड़ी नहीं होती, सोसायटी भी कई बार शायरी को बड़ा बना देती है. फ़ैज़ या इक़बाल को यदि हम कहें कि वे बड़े नहीं थे तो सोसायटी नहीं मानेगी. उसने उन्हें बड़ा बना दिया है. बड़ी शायरी का फ़ैसला वक़्त गुज़रने के बाद होता है. अगर शायरी अपने दौर के गुज़रने के बाद भी बड़ी साबित हो तो आइन्दा नस्लें उसे बड़ी शायरी मानेंगी.

  • पाकिस्तान के उर्दू अदब और वहाँ के अदीबों से आप परिचित हैं. कई बार पाकिस्तान की शायरी की बेहतरी की बातें पिछले दिनों की गई हैं. हिंदुस्तान के शायरों की तुलना में पाकिस्तान की शायरी को आप कहाँ रखते हैं?

बँटवारे से पहले से ही वहाँ यह ट्रेडिशन है कि वहाँ ओरल शायरी नहीं है. बहुत कम मुशायरे होते हैं वहाँ. वहाँ लिखित शायरी होती है. वहाँ के शायरों की मादरी ज़बान पंजाबी रही है. उर्दू उन्होंने एक्वायर की है और शुरू से ही ये कोशिश रही कि उर्दू ज़बान के इलाक़े वालों के बराबर वे कॉंपीटेंट हो जाएँ. उन्होंने सीखने-पढ़ने पर ज़ोर दिया, जबकि हिंदुस्तान में रहने वाले शायरों ने पढ़ने-लिखने पर इतनी तवज्जो नहीं दी. यहाँ के लोगों की उर्दू मादरी ज़बान थी. पाकिस्तानी शायरी को बेहतर समझा जाता है, लेकिन यहाँ के भी सीरियस शायर पाकिस्तान के सीरियस शायरों से किसी तरह कम नहीं हैं. मुशायरे जब भी दुनिया में कहीं होते हैं, तो पाकिस्तान से वे ही शायर बुलाये जाते हैं, जिनकी लिट्रेरी अहमियत होती है.

दूसरी तरफ़ इंडिया से अस्सी प्रतिशत, कभी-कभी सौ प्रतिशत वे ही शायर बुलाये जाते हैं, जो पक्की रोशनाई से न छपे हैं, न छपने की ख़्वाहिश है. अदब और ज़िंदगी से जिनका कुछ लेना-देना नहीं. जिनके पास कुछ शायरी ऐसी है, जिसको वे कहीं तरन्नुम से, कहीं चिल्ला-चीखकर पढ़ते हैं. उन्हें वे दाद देते हैं, जो मुशायरे को गाने-बजाने या तफ़रीह का ज़रिया समझते हैं. पाकिस्तान में साल में मुश्किल से दो-तीन मुशायरे होते हैं और उन्हें भी मुहाजिर आयोजित करते हैं.

सवा सौ साल से ज्यादा के दौरान जो बड़ा अदब आया है वो पंजाब के लोगों ने लिखा है. मंटो, बेदी, फ़ैज़, क़ासमी सब पंजाब के लोग थे. इसलिए पंजाब वर्सेज़ इंडिया कहना चाहिए, पाकिस्तान वर्सेज़ इंडिया नहीं. वहाँ पर रोज़ी-रोटी उर्दू से बावस्ता रही. फ़ैज, क़ासमी, इंतज़ार हुसेन ने अख़बार में काम किया. जैसे यहाँ हिंदी वालों का मीडिया पर होल्ड है, वैसे वहाँ उर्दू वालों का. पार्टीशन के बाद दोनों के सीरियस शायरों का पलड़ा बराबर है. पाकिस्तान की फ़िलॉसफ़ी यह है कि यहाँ न उर्दू है, न अदीब है, न शायर है, न मुसलमान. बड़े से बड़ा अदीब वहाँ जाए, रेडियो पर आएगा, न टी.वी. पर. वहाँ से यहाँ अदीब आते हैं तो देखें कि कैसे प्रोजेक्ट करते हैं सब. आफ़ताब हुसेन का मैंने नाम नहीं सुना था, पर जब से भारत में हैं आप देख लें कौन-कौन इंटरव्यू ले रहा है. मीडिया ने उठा लिया. बावजूद इसके कि वे शरण दिए जाने को लेकर इंडिया पर इल्जाम भी लगा रहे हैं.

  •  आपको मुशायरों में बुलाया जाता रहा है. आप शिरकत भी करते रहे हैं. ऐसा क्यों है कि आपकी मुशायरों के बारे में अच्छी राय नहीं है? अपनी कुछ ख़ामियों के बावजूद मुशायरे या कवि-सम्मेलन अपनी-अपनी भाषाओं को लोकप्रिय तो बना ही रहे हैं?

इंडिया में मुशायरों और कवि-सम्मेलनों में सिर्फ़ चार बातें देखी जाती हैं – पहली, मुशायरा कंडक्ट कौन करेगा? दूसरी – उसमें गाकर पढ़ने वाले कितने लोग होंगे? तीसरी – हँसाने वाले शायर कितने होंगे? और चौथी यह कि औरतें कितनी होंगी? मुशायरा आर्गेनाइज़-पेट्रोनाइज़ करने वाले इन्हीं चीज़ों को देखते हैं. इसमें शायरी का कोई ज़िक्र नहीं. हर जगह वे ही आजमाई हुई चीज़ें सुनाते हैं. भूले-बिसरे कोई सीरियस शायर फँस जाता है, तो सब मिलकर उसे डाउन करने की कोशिश करते हैं! इसे आप पॉपुलर करना कह लीजिए. फ़िल्म-ग़ज़ल भी बहुत पॉपुलर कर रहे हैं. पर बहुत पॉपुलर करना वल्गराइज़ करना भी हो जाता है बहुत बार. इंस्टीट्यूशन में ख़राबी नहीं, पर जो पैसा देते हैं, वे अपनी पसंद से शायर बुलाते हैं. गल्फ़ कंट्रीज़ में भी जो फ़ाइनेंस करते हैं, पसंद उनकी ही चलती है. उनके बीच में सीरियस शायर होंगे तो मुश्किल से तीन-चार और उन्हें भी लगेगा जैसे वे उन सबके बीच आ फंसे हैं. जिस तरह की फ़ीलिंग मुशायरों के शायर पेश करते हैं, गुमराह करने वाली, तास्सुब, कमनज़री वाली चीजें वे देते हैं, सीरियस शायर उस हालत में अपने को मुश्किल में पाता है.

  • आप हिंदी के साहित्य और साहित्यकारों से भी आत्मीय व क़रीबी स्तर पर जुड़े रहे हैं. हिंदी-उर्दू साहित्य को अगर आज तुलनात्मक दृष्टि से हम देखना चाहें तो क्या मुख्य समानताएँ या असमानताएँ उनके बीच दिखती हैं? हिंदी ग़ज़ल के बारे में विशेष रूप से अपनी राय जाहिर करते हुए आप अन्य विधाओं में लिखे गए साहित्य की वर्तमान स्थिति के बारे में अपने अनुभव, अपने विचार किस तरह प्रकट करना चाहेंगे?

मैंने हिन्दी साहित्य को हिस्टॉरिकल प्रोस्पेक्टिव में सिस्टेमेटिक और आर्गेनाइज़्ड ढंग से नहीं पढ़ा. पर हाँ, जिन लोगों से संबंध रहे हैं उन्हें पढ़ा है. भले ही सिस्टेमेटिक ढंग से नहीं पर मैंने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, गिरिधर राठी, अशोक वाजपेयी, भारती, शमशेर, दुष्यंत, केदारनाथ, त्रिलोचन, नागार्जुन, श्रीकांत वर्मा वगैरह को पढ़ा है. वह अलग शायरी है. इसमें कंपेयरिज़न नहीं. हिंदी के लोग ग़ज़ल लिखते हैं, यह अच्छी बात है. पर दुष्यंत ने जो छाप लगा दी, वह बिल्कुल अलग है. किसी भी तरह देखें वह ग़ज़ल है. हम जिस तरह के मीटर के आदी हैं, हिंदी शायरी हमें थोड़ी प्रोज़ेक लगती है. हम जिस तरह के मीटर और रिद्म के क़ायल हैं, उसकी वजह से यह अहसास होता है कि जैसे वह प्रोज़ के क़रीब है. महादेवी, निराला में ऐसी बात नहीं.

पर जहाँ तक थॉट-कंटेट की बात है, बहुत सीरियस शायरी है. क्रिटिसिज़्म मैंने सुनी ज़्यादा है, पढ़ी कम है. उर्दू में भी उतनी ही जितनी की पढ़ाने को ज़रूरी थी. जनरल-पॉपुलर क्रिटीसिज़्म पढ़ा भी है, सुना भी है. अपनी तकरीर में नामवर सिंह बहुत इंप्रेस करते हैं. समझदार हैं, पर ऐसी बात नहीं कह पाते, जो हमें बहुत दिनों तक याद रहे. उनका रिकॉर्ड काफ़ी दिनों से एक जगह ठहरा हुआ है. मुझे कमलेश्वर और नामवर की तकरीर में अन्तर नहीं लगता. दोनों इंप्रेस करते हैं और दोनों के कुछ पहलू ऐसे हैं, जो ज़्यादा देर मुतासिर करते हैं. हिंदी में फ़िक्शन अच्छा है. कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, मन्नू, शानी, श्रीलाल शुक्ल को पढ़ा है.

एक ख़ास पीरियड में राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, शानी ने अच्छा लिखा है. हमारे यहाँ उस पीरियड में उतना अच्छा नहीं लिखा गया. फ़िक्शन के लिए होलटाइमर होना चाहिए. हिंदी में ट्रेडिशन था. पत्रिकाओं, किताबों से पैसा भी मिला राइटर्स को. हमारे यहाँ उतना एक्सपीरियंस और टाइम नहीं दे सके. जब तक गिनोरिया न हो जाए, हर जगह जाएँ, घूमें, अर्जित करें, लिखें, तब तक फ़िक्शन नहीं लिखा जा सकता. शायरी में तो इनडायरेक्ट एक्सपीरियंस भी शायरी बन सकता है, पर फ़िक्शन में डायरेक्ट एक्सपीरियंस ही क़ामयाब होता है.

उर्दू में नए लोग ख़ासा अच्छा लिख रहे हैं, प्रोमिज़िंग हैं. हिंदी में इन दिनों नया नहीं पढ़ा है. पैगाम आफ़ाक़ी, मु.अशरफ़, अब्दुस्समद, अनवर कमाल, अली जौकी, तारिक छतारी, अनवर ख़ान जैसे अफ़सानानिगार अच्छा लिख रहे हैं. दुनियाएँ सिकुड़ने से जहाँ से भी जो मिले लेने की प्रवृत्ति सभी जगह बढ़ी है. एप्लीकेशन सही हो रहा है या ग़लत, यह अलग बात है. उर्दू में भी यही स्थिति है. अपटुडेट बनाए रखने का बहुत पहले से जनरल ट्रेंड रहा है. सफ़रनामे, रिपोर्ताज, ह्यूमर-सैटायर, बायोग्राफ़ी, ऑटो-बायोग्राफ़ी, सभी कुछ लिखा गया है. ज्ञानसिंह शातिर और आले अहमद सुरूर की आत्मकथाएँ चर्चित हैं. रिसर्च, एडीटिंग, ट्रांसलेशन बेपनाह हुए हैं. ख़राबियाँ-अच्छाइयाँ दोनों में कॉमन हैं.

हिंदुस्तानी वाला इलाका बैकवर्ड है. यहाँ अदब के बूते ज़िंदा नहीं रहा जा सकता. रीज़नल ज़बानों में रिकग्नीशन मिलने पर ज़िंदगी गुज़ारी जा सकती है. मराठी, उड़िया, बंगाली, तमिल वगैरह में पढ़ा-लिखा कोई आदमी ऐसा नहीं होगा जो अपनी भाषा के लेखकों को न जानता होगा. जो नेचर, लेंगुएज, म्यूज़िक या राइटिंग्ज़ के बारे में नहीं जानता होगा, उसे पढ़ा-लिखा माना ही नहीं जाएगा. यू.पी. का कोई कल्चर नहीं, बिहार का फिर भी है, राजस्थान का थोड़ा है – वेश, खाना, जीना. हिंदी-उर्दू वाले आसानी से नए लोगों को रिकग्नाइज़ नहीं करते. हम ही रहें, नए न आएँ. एस्टेबलिशमेंट बन गया है. कैंप्स, ग्रुप, टांग-खिंचाई सब तरफ़. नए ख़ून को उत्साहित करने वाले फ़ोरम कम. एकेडेमिक इंस्टीट्यूशंस और हिन्दी-उर्दू डिपार्टमेंट्स की स्थिति यह है कि वहाँ लिट्रेचर से लेना-देना नहीं. साहित्य पढ़ाने में लगे हैं, किंतु एकेडेमिक काम के अलावा दुनिया भर के काम उन्हें हैं.

हिस्ट्री, एंथ्रोपोलॉजी, सोशियोलॉजी की बात छोड़ दें, बहुत से लोग तो अख़बार तक नहीं पढ़ते. प्रोग्रेसिव आइडियाज़ से हिंदी-उर्दू दोनों में लोग बिदकते हैं. अपने पिछले एक्सपीरियंस से मुझे लगा है कि जनवादी स्तर पर सोच, प्रॉब्लम्स और एप्रोच के आधार पर बहुत कुछ मिलता-जुलता है दोनों जगह. बहुत पहले भारत भवन, भोपाल में ‘कवि भारती’ कार्यक्रम हुआ था. ऐसा ही एक कार्यक्रम केरल में हुआ. मैंने देखा भारत की हर ज़बान में इडियम का फ़र्क़ है, पर सोचने, महसूस करने का कनेक्शन बहुत मिलता-जुलता है. सारे देश की कविताओं में मैंने बड़ी समानताएँ देखीं.

(फ़िल्मी लेखन और फ़िल्मों से मिली शोहरत के बारे में शह्रयार का नज़रिया अगले अंक में)
[प्रेमकुमार की किताब ‘बातों-मुलाक़ातों में शह्रयार’ 2013 में वाणी प्रकाशन से आई थी. बातचीत के ये अंश से इसी किताब से साभार.]

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