जयशंकर प्रसाद की कहानी | दुखिया

  • 8:38 am
  • 15 November 2023

महाकवि के रूप में विख्यात जयशंकर प्रसाद का हिन्दी नाट्य-जगत और कथा-साहित्य में भी विशिष्ट स्थान है. प्रसाद की कहानियों में हमें न सिर्फ़ भारतीय दर्शन की सुखवादी मूल्य-मान्यताओं की अनुगूँज सुनाई देती हैं, बल्कि ये हमें सामाजिक यथार्थ के तमाम अप्रिय स्तरों तक ले जाती हैं. प्रसाद के लिए साहित्य की रचना दरअसल एक सांस्कृतिक-कर्म है और भारतीय परम्परा के प्राचीन या उसके सनातन मूल्यों में गहन आस्था के बावजूद वे मनुष्य की वैयक्तिक मुक्ति के आकांक्षी नहीं हैं. व्यक्ति हो या समाज, वे उसे स्वाधीन और रूढ़िमुक्त देखना चाहते हैं. यही कारण है कि उनकी कहानियों में ऐसे अविस्मरणीय चरित्रों का बाहुल्य है, जो स्वाधीनता और मानव-गरिमा को सर्वोपरि मानते हैं.
प्रसाद की पुण्यतिथि के मौक़े पर प्रतिनिधि कहानियों के उनके संग्रह से एक कहानी….

दुखिया

पहाड़ी देहात, जंगल के किनारे के गाँव और बरसात का समय! वह भी उषाकाल! बड़ा ही मनोरम दृश्य था. रात की वर्षा से आम के वृक्ष तराबोर थे. अभी पत्तों से पानी ढुलक रहा था. प्रभात के स्पष्ट होने पर भी धुँधले प्रकाश में सड़क के किनारे आम्रवृक्ष के नीचे बालिका कुछ देख रही थी. ‘टप’ से शब्द हुआ, बालिका उछल पड़ी, गिरा हुआ आम उठाकर अंचल में रख लिया. (जो पाकेट की तरह खोंसकर बना हुआ था.)

दक्षिण पवन ने अनजान में फल से लदी हुई डालियों से अठखेलियाँ कीं. उसका संचित धन अस्त-व्यस्त हो गया. दो-चार गिर पड़े. बालिका उषा की किरणों के समान ही खिल पड़ी. उसका अंचल भर उठा. फिर भी आशा में खड़ी रही. व्यर्थ प्रयास जानकर लौटी, और अपनी झोंपड़ी की ओर चल पड़ी. फूस की झोंपड़ी में बैठा हुआ उसका अंधा बूढ़ा बाप अपनी फूटी हुई चिलम सुलगा रहा था. दुखिया ने आते ही आँचल से सात आमों में से पाँच निकालकर बाप के हाथ में रख दिए और स्वयं बरतन माँजने के लिए ‘डबरे’ की ओर चल पड़ी.

बरतनों का विवरण सुनिए, एक फूटी बटुली, एक लोंहदी और लोटा, यही उस दीन परिवार का उपकरण था. डबरे के किनारे छोटी-सी शिला पर अपने फटे हुए वस्त्र सँभाले हुए बैठकर दुखिया ने बरतन मलना आरंभ किया.

अपने पीसे हुए बाजरे के आटे की रोटी पकाकर दुखिया ने बूढ़े बाप को खिलाया और स्वयं बचा हुआ खा-पीकर पास ही के महुए के वृक्ष की फैली जड़ों पर सिर रखकर लेट रही. कुछ गुनगुनाने लगी. दुपहरी ढल गई. अब दुखिया उठी और खुरपी― जाला लेकर घास छोलने चली. जमींदार के घोड़े के लिए घास वह रोज दे आती थी, कठिन परिश्रम से उसने अपने काम भर घास कर लिया, फिर उसे डबरे में रखकर धोने लगी.

सूर्य की सुनहली किरणें बरसाती आकाश पर नवीन चित्रकार की तरह कई प्रकार के रंग लगाना सीखने लगीं. अमराई और ताड़-वृक्षों की छाया उस शाद्वल जल में पड़कर प्राकृतिक चित्र का सृजन करने लगी. दुखिया को विलंब हुआ, किंतु अभी उसकी घास धो नहीं गई, उसे जैसे इसकी कुछ परवाह न थी. इसी समय घोड़े की टापों के शब्द ने उसकी एकाग्रता को भंग किया.

जमींदार कुमार संध्या को हवा खाने के लिए निकले थे. वेगवान ‘बालोतरा’ जाति का कुम्मेद पचकल्यान आज गरम हो गया था. मोहनसिंह से बेकाबू होकर वह बगटूट भाग रह. था. संयोग ! जहाँ पर दुखिया बैठी थी, उसी के समीप ठोकर लेकर घोड़ा गिरा. मोहनसिंह भी बुरी तरह घायल होकर गिरे. दुखिया ने मोहनसिंह की सहायता की. डबरे से जल लाकर घावों को धोने लगी. मोहन ने पट्टी बाँधी, घोड़ा भी उठकर शांत खड़ा हुआ. दुखिया जो उसे टहलाने लगी थी. मोहन ने कृतज्ञता की दृष्टि से दुखिया को देखा, वह एक- सुशिक्षित युवक था. उसने दरिद्र दुखिया को उसकी सहायता के बदले ही रुपया देना चाहा. दुखिया ने हाथ जोड़कर कहा― “बाबू जी, हम तो आप ही के गुलाम हैं. इसी घोड़े को घास देने से हमारी रोटी चलती है.”

अब मोहन ने दुखिया को पहिचाना. उसने पूछा―
“क्या तुम रामगुलाम की लड़की हो?”
“हाँ, बाबू जी.”
“वह बहुत दिनों से दिखता नहीं.”
“बाबू जी, उनकी आँखों से दिखाई नहीं पड़ता.”
“अहा, हमारे लड़कपन में वह हमारे घोड़े को, जब हम उस पर बैठते थे, पकड़कर टहलाता था. वह कहाँ है?”
“अपनी मड़ई में.”
“चलो, हम वहाँ तक चलेंगे.”
किशोरी दुखिया को कौन जाने क्यों संकोच हुआ, उसने कहा― “बाबू जी, घास पहुँचाने में देर हुई है. सरकार बिगड़ेंगे.”
“कुछ चिता नहीं; तुम चलो.”
लाचार होकर दुखिया घास का बोझा सिर पर रखे हुए झोंपड़ी की ओर चल पड़ी. घोड़े पर मोहन पीछे-पीछे था.
“रामगुलाम, तुम अच्छे तो हो?”
“राज! सरकार ! जुग जुग जीओ बाबू.” बूढ़े ने बिना देखे अपनी टूटी चारपाई से उठते हुए दोनों हाथ अपने सिर तक ले जाकर कहा.
“रामगुलाम, तुमने पहचान लिया?”
“न कैसे पहचानें, सरकार. यह देह पली है.” उसने कहा.
“तुमको कुछ पेंशन मिलती है कि नहीं?”
“आप ही का दिया खाते हैं, बाबू जी! अभी लड़की हमारी जगह पर घास देती है.”
भावुक नवयुवक ने फिर प्रश्न किया, “क्यों रामगुलाम, जब इसका विवाह हो जाएगा, तब कौन घास देगा?”
रामगुलाम के आनंदाश्रु दुख की नदी होकर बहने लगे. बड़े कष्ट से उसने कहा― “क्या हम सदा जीते रहेंगे ?
अब मोहन से नहीं रहा गया, वहीं दो रुपए उस बुद्धे को देकर चलते बने. जाते-जाते कहा― “फिर कभी.’
दुखिया को भी घास लेकर वहीं जाना था. वह पीछे चली.
जमींदार की पशुशाला थी. हाथी, ऊँट, घोड़ा, बुलबुल, भैंसा, गाय, बकरे, बैल, लाल, किसी की कमी नहीं थी. एक दुष्ट नजीब खाँ इन सबों का निरीक्षक था . दुखिया को देर से आते देखकर उसे अवसर मिला. बड़ी नीचता मे उसने कहा- “मारे जवानी के तेरा मिजाज ही नहीं मिलता. कल से तेरी नौकरी बंद कर दी जाएगी. इतनी देर?”

दुखिया कुछ नहीं बोलती, किंतु उसको अपने बूढ़े बाप की याद आ गई. उसने सोचा, किसी तरह नौकरी बचानी चाहिए, तुरंत कह बैठी― “छोटे सरकार घोड़े पर से गिर पड़े रहे. उन्हें मड़ई तक पहुँचाने में देर….”
“चुप हरामजादी! तभी तो तेरा मिजाज और बिगड़ा है. अभी बड़े सरकार के पास चलते हैं.”
वह उठा और चला. दुखिया ने घास का बोझा पटका और रोती हुई झोंपड़ी की ओर चलती हुई. राह चलते-चलते उसे डबरे का सायंकालीन दृश्य स्मरण होने लगा. वह उसी में भूलकर अपने घर पहुँच गई.

किताब – प्रतिनिधि कहानियाँ
लेखक – जयशंकर प्रसाद
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक अंश | धीमी वाली फ़ास्ट पैसेंजर

पुस्तक अंश | लोकदेव नेहरू

पुस्तक अंश | 1984


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