पुस्तक अंश | लोकदेव नेहरू

  • 10:35 am
  • 14 November 2023

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की एक महत्त्वपूर्ण किताब है ‘लोकदेव नेहरू’. पंडित नेहरू की राजनीतिक और अन्तरंग ज़िंदगी के कई अनछुए पहलुओं को यह किताब जितनी आत्मीयता से पेश करती है, वह केवल दिनकर के ही वश की बात लगती है.’लोकदेव’ शब्द दिनकर ने विनोबा भावे से लिया था, जो उन्होंने नेहरू को श्रद्धांजलि के मौक़े पर व्यक्त किया था. दिनकर का मानना भी है कि ‘पंडित जी, सचमुच ही, भारतीय जनता के देवता थे.’ जैसे परमहंस रामकृष्णदेव की कथा के बिना स्वामी विवेकानन्द का प्रसंग पूरा नहीं होता, वैसे ही गांधी का ज़िक्र किए हुए बिना नेहरू का प्रसंग अधूरा छूट जाता है. इसीलिए इस किताब में एक लम्बे विवरण में यह समझाने की कोशिश गई है कि इन दो महापुरुषों के बीच सम्बन्ध कैसे थे और गांधी के दर्पण में नेहरू जी का रूप कैसा दिखाई देता है.
गांधी और नेहरू के प्रसंग में स्तालिन की चर्चा, वैसे तो बिलकुल बेतुकी-सी लगती है, लेकिन नेहरू के जीवन-काल में ढंके-छिपे रूप में यह कानाफूसी भी चलती थी कि उनके भीतर तानाशाही की भी थोड़ी-बहुत प्रवृत्ति है. इस लिहाज़ से यह किताब नेहरू के प्रति दिनकर का आलोचनात्मक आकलन भी करती है. वस्तुत: दिनकर के शब्दों में कहें तो ‘यह पुस्तक पंडित जी के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि है.’ बक़ौल दिनकर, ‘पंडितजी से मैंने कभी भी कोई चीज़ अपने लिए नहीं माँगी सिवाय इसके कि ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका लिखने को मैंने उन्हें लाचार किया था. और पंडितजी ने भी मुझे मंत्रित्व आदि का कभी कोई लोभ नहीं दिखाया. मेरे कानों में अनेक सूत्रों से जो ख़बरें बराबर आती रहीं, उनका निचोड़ यह था कि सन् 1953 ई. से ही उनकी इच्छा थी कि मैं मंत्री बना दिया जाऊं. चूँकि मैंने उनके किसी भी दोस्त के सामने कभी मुँह नहीं खोला, इसलिए सूची में मेरा नाम पंडितजी ख़ुद रखते थे और ख़ुद ही अंत में उसे काट डालते थे ..’
यह अंश इसी किताब से है,

पंडित जवाहरलाल नेहरू धर्म के आदमी हैं या नहीं, वे ईश्वर में विश्वास करते हैं या नहीं इस विषय की जिज्ञासा लोगों के भीतर बराबर चला करती थी. और जीवन-भर में जवाहरलाल ने एक बार भी नहीं कहा कि मैं धर्म का आदमी हूँ. आश्चर्य की बात यह है कि तब भी वे भारतीय जनता के बीच उस प्रकार पूजित हुए, जिस प्रकार और कोई भी व्यक्ति पूजित नहीं हुआ था. बुद्ध, अशोक, शंकराचार्य, सन्त चिश्ती, कबीर, तुलसी, शिवाजी, गुरु गोविन्द, परमहंस रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, श्री अरविन्द, रमण महर्षि और गांधी-इन महापुरुषों को भारतीय जनता ने जो सम्मान दिया, वह सम्मान उसने किसी भारतीय को नहीं दिया. किन्तु इन सभी महापुरुषों को जनता का प्रेम उनके धर्म-प्रेम के कारण प्राप्त हुआ था. भारत के इतिहास में जवाहरलाल पहले व्यक्ति हैं, जिन्हें जनता का प्यार धर्म के लिए नहीं, धर्मनिरपेक्ष यानी ‘सेक्युलर’ गुणों के कारण प्राप्त हुआ.

धर्म और संस्कृति सर्वत्र एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं. कितने ही क्षेत्रों में धर्म और संस्कृति के बीच विभाजन की रेखा स्पष्ट खींची जा सकती है, किन्तु कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहाँ धर्म और संस्कृति एक हैं. संस्कृति के बहुत-से कार्य ऐसे हैं, जो किसी भी तरह धर्म के कृत्य नहीं कहे जा सकते. बहुत-से सांस्कृतिक कार्यक्रम तो धर्म के विरुद्ध पड़ते हैं. किन्तु धर्म का कोई भी काम ऐसा नहीं है, जो सांस्कृतिक कर्म नहीं हो.

जब से भारतवर्ष ने अपने-आपको धर्मनिरपेक्ष घोषित किया है, वह इस कठिनाई में फँस गया है कि कौन कार्य धर्म का है और कौन निरी संस्कृति का. बुद्ध की दो हजार पाँच सौवीं जयन्ती मनाने की योजना इसलिए निरापद समझी गई कि वह सांस्कृतिक कार्य था अथवा यह कि इस देश में बौद्धों की संख्या इतनी भी नहीं है कि वे एक अच्छे अल्पसंख्यक का पद पा सकें. किन्तु साहित्य अकादमी में मैंने जब यह प्रस्ताव रखा कि विवेकानन्द की शतवार्षिकी के समय अकादमी को भी कुछ काम करना चाहिए, तब भारतीय साहित्यकारों की समा धर्मसंकट में पड़ गई और संस्कृति मंत्रालय की यह मंत्रणा कारगर हो गई कि धर्म के नेताओं की जयन्तियाँ मनाना धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की नीति के प्रतिकूल है.

साल-दो साल पहले जवाहरलाल जी लखनऊ में स्वामी दयानन्द से सम्बन्धित किसी उत्सव में सम्मिलित हुए थे. अवश्य ही वहाँ उन्होंने धर्म और संस्कृति का विभाजन करनेवाली रेखा का ध्यान रखा होगा. किन्तु एक बार जैन लोग दिल्ली में अपना सम्मेलन करने लगे, तब उनका ध्यान पंडित जी की ओर गया और उन्होंने चाहा कि पंडित जी उनकी सभा का उद्घाटन कर दें. मैंने सेठ अचलसिंह से कहा कि पंडित जी इस सम्मेलन में नहीं जाएँगे, ऐसा मुझे मालूम होता है. फिर भी उन्होंने माना नहीं और अपने शिष्टमंडल के साथ पंडित जी के पास वे मुझे भी खींच ले गए. पंडित जी ने साफ-साफ कह दिया, ‘मैं राजनीतिज्ञ हूँ. धर्म को मैं तभी पास आने दूंगा, जब वह राजनीति की पोशाक में हो. मैं आपके सम्मेलन में नहीं जाऊँगा.’

यह संस्कार उन्हें अपने पिता से मिला था. श्रीयुत प्यारेलाल जी ने लिखा है कि एक बार गांधी जी जब जुहू पर विश्राम कर रहे थे, पंडित मोतीलाल उनसे मिलने को आए. एक दिन मोतीलाल जी समुद्र के किनारे हवाखोरी को निकले, तो श्री प्यारेलाल भी उनके साथ थे. चलते-चलते मोतीलाल जी अचानक रुक गए और दूर पर खड़े एक लम्बे ताड़-वृक्ष को देखकर बोले, ‘बस, पेड़ों में यह पेड़ महात्मा है. सभी पेड़ों से ऊपर गरदन उठाए यह किस शान से खड़ा महात्मा जी से मैंने कह दिया है कि में उनके ईश्वर में विश्वास नहीं करता और है! कम-से-कम इस जीवन में तो नहीं ही करूँगा. मैं राजनीतिज्ञ हूँ. मगर कठिनाई यह है कि हमारे अखाड़े में ही गांधी जी हमें पछाड़ देते हैं.’

तब भी लोग पंडित जी को धार्मिक समझते थे, क्योंकि वे लोभी नहीं थे, अपना धन जोड़ने की गरज उनमें नहीं थी, दूसरों के दुख में शामिल होने को उन्होंने अपना सुख छोड़ दिया था और गांधी जी की दृष्टि में वे ‘स्फटिक के समान स्वच्छ’ थे. गांधी जी की मान्यता थी कि ‘गरचे जवाहरलाल हमेशा यही कहता है कि ईश्वर में उसका विश्वास नहीं है, मगर मेरे जानते बहुत-से पुजारियों की अपेक्षा वह ईश्वर के अधिक समीप है.”

किताब – लोकदेव नेहरू
लेखक – रामधारी सिंह दिनकर
प्रकाशक – लोकभारती प्रकाशन

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