भूरी बाई | अपनी तरह की अनूठी चित्रकार

  • 7:08 pm
  • 28 January 2021

भारत भवन बनते समय वहाँ काम करने वाले मजदूरों में शामिल भूरी ही हैं, चालीस बरस बाद जिन्हें पद्मश्री सम्मान के लिए चुना गया है – चित्रकार भूरी बाई. भील जनजाति की वह पहली महिला हैं, जिन्हें उनके चित्रों की बदौलत इतनी ख्याति, इतना सम्मान मिला है.

भीलों में ‘पिठौरा’ बनाने की रवायत है और परंपरा के मुताबिक ये आनुष्ठानिक चित्र पुरुष ही बनाते हैं. यों भी भील समाज में महिलाओं का चित्र बनाना अपवाद ही रहा, लोक-परंपरा का हिस्सा तो हरग़िज़ नहीं. इस लिहाज से भूरी बाई अपने समाज की पहली महिला चित्रकार हैं. ऐसी चित्रकार जिन्होंने आनुष्ठानिक चित्रों से इतर अपने आसपास देखे और महसूस किए तत्वों को, अपनी कल्पनाओं को आकार दिया, उनमें रंग भरे.

झाबुआ ज़िले के पिटोल गांव में जन्मी भूरी बाई का बचपन अपने समुदाय के दूसरे बच्चों की तरह अभाव और मुश्किलों में गुज़रा. उनके पिता पिटोल में एक आना रोज़ के मजदूर थे और घर में पाँच भाई-बहन. भूरी जब जानवर चराना और चारा जुटाना सीख रही थीं, उनकी बड़ी बहन ने भी मजदूरी के लिए बाहर जाना शुरू कर दिया था. यह उनकी बड़ी बहन ही थीं, जिन्होंने ‘रूपंकर’ के निर्माण के दिनों में मजदूरों की ज़रूरत पड़ने पर उन्हें भोपाल बुला लिया था.

वहाँ काम करने के दिनों में ही उन्होंने काग़ज़ पर अपना पहला चित्र बनाया. हुआ यह कि रूपंकर के निदेशक जे.स्वामीनाथन जब-तब आदिवासी मजदूरों से बात करने के लिए रुक जाया करते. वह आदिवासियों के समाज, उनकी परंपराओं-मान्यताओं के बारे में उनसे पूछते और फिर यह भी पूछते कि क्या उनमें से किसी को चित्र बनाना आता है. भूरी बाई को हिंदी समझ में नहीं आती थी मगर उनके बहन-बहनोई ने जब चित्र बनाने के स्वामीनाथन के सवाल के बारे में बताया तो उन्होंने जवाब दिया था कि बचपन में उन्होंने अपने घर की दीवारों पर चित्र बनाए हैं.

बस, स्वामीनाथन ने पैकेज़िंग वाला बांसिया काग़ज़ और रंग-ब्रश देकर भूरी बाई से चित्र बनाने को कहा तो वह असहज हो उठी थीं. काग़ज़ पर उन्होंने कभी चित्र नहीं बनाया था. उनकी असहजता की एक और वजह कमरे में बैठकर चित्र बनाने को लेकर थी. सो अगले पाँच रोज़ तक वहीं बाहर एक मंदिर की सीढ़ियों पर वह चित्र बनाती रहीं. वह इस बात को लेकर भी घबरा रही थीं कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए.

उनकी इस तस्वीर में ग्राम्य जीवन और गोदने की तमाम आकृतियाँ थीं. भूरी बाई के चित्रकला के कौशल और उनकी प्रतिभा ने स्वामीनाथन को बहुत प्रभावित किया. उन्होंने भूरी बाई की वे तस्वीरें ख़रीद लीं. ‘द म्युज़ियम ऑफ़ आर्ट एण्ड फ़ोटोग्राफ़ी’ से एक इंटरव्यू में भूरी बाई ने कहा, ‘मैं हैरान थी कि दिन भर मजदूरी करके मैं छह रुपये कमाती और बैठकर चित्र बनाने के मुझे दस रुपये रोज़ मिले. यह अटपटा तो लगा मगर भला भी लगा. मैंने तय किया कि अगले रोज़ मैं और मन लगाकर तस्वीरें बनाऊंगी. जो भी मेरे दिमाग़ में आएगा.’

13 फ़रवरी 1982 को जब प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी भारत भवन का उद्घाटन करने गईं, स्वामीनाथन ने भूरी बाई को उनसे मिलवाया. हालांकि उनके कहने के मुताबिक भूरी बाई इंदिरा गाँधी को वह चिट्ठी देना भूल गईं, जो स्वामीनाथन ने उन्हें दी थी और जिसमें क्या लिखा था, भूरी बाई को अब भी नहीं मालूम. इसके बाद मजदूरी करते हुए भी भूरी बाई ने चित्र बनाना जारी रखा. स्वामीनाथन जब भी मिलते, वह अपने चित्र दिखातीं.

सन् 1986 में जब स्वामी की सिफ़ारिश पर मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें ‘शिखर सम्मान’ के लिए चुना तो बक़ौल भूरी बाई अख़बारों में उनकी फ़ोटो छपी और लोगों ने बताया कि उन्हें सम्मान मिलेगा, वह हैरान थीं कि उनके पास तो सारा ‘सामान’ है ही, आख़िर उन्हें कौन-सा ‘सामान’ देंगे! उसी साल पिठौरा के लिए ख्यात एक और भील चित्रकार पेमा फत्या को भी ‘शिखर सम्मान’ मिला.

सन् 1992 में भोपाल पीडब्ल्यूडी में पक्की नौकरी मिलने से पहले तक भूरी बाई अलग-अलग जगहों पर मजदूरी करती रहीं. पीडब्ल्यूडी में वह सड़क मरम्मत करने वाली टीम का हिस्सा बनीं. यह ज़रूर हुआ कि आदिवासी कलाओं की बढ़ती लोकप्रियता और इसके प्रसार के काम में जुटी संस्थाओं के प्रयास से भूरी बाई के चित्रों की प्रदर्शनी देश के अलग-अलग हिस्सों में लगनी शुरू हो गई.

नेशनल क्राफ़्ट्स म्युज़ियम के बुलावे पर 1995 में जब वह दिल्ली गईं तो भोपाल से इतनी दूर और इतने बड़े शहर का यह उनका पहला सफ़र था. उनके चित्रों में दिखाई देने वाली आदिवासी जीवन की निष्छलता और सहजता ख़ुद उनके जीवन का हिस्सा हैं. उन्हें जानने वाले इसकी कितनी ही नज़ीरें दे सकते हैं.

‘द म्युज़ियम ऑफ़ आर्ट एण्ड फ़ोटोग्राफ़ी’ के उसी इंटरव्यू में भूरी बाई ने म्युज़ियम का अपना तजुर्बा साझा करते हुए बताया है – ‘लोग वहाँ आते, मुझे चित्र बनाते हुए देखते, मेरे चित्र ख़रीदते थे. वहाँ के एक सिक्योरिटी गार्ड ने मुझसे कहा – आप इतनी बड़ी चित्रकार हैं. आप चप्पल क्यों नहीं पहनतीं? और मैंने उसे बताया कि मुझे नहीं मालूम कि चप्पल कैसे पहनते हैं या उन्हें पहनकर कैसे चलते हैं? उन्हीं लोगों ने मेरे लिए चप्पल मंगाई. ज़िंदगी में पहली बार मैंने अपने पाँव में कुछ पहना था.’

‘वहीं दिल्ली में किसी ने मुझसे कार बनाने को कहा. गाँव में आदिवासी अपने चित्रों में कार कहाँ बनाते हैं? वे तो पेड़, पहाड़, चिड़िया, जंगल के चित्र बनाते हैं. मैंने उनसे कहा कि मुझे कार बनाना नहीं आता. तब उन्होंने कहीं से लाकर कार का एक स्केच दिया. तो उसे देखकर मैंने उनके लिए कई रंगों में पाँच-छह कारें बना दीं. तब से कार भी बनाने लगी हूँ और कार के मेरे चित्र लोगों को बहुत भाते हैं.’

सन् 2000 में भोपाल पीडब्ल्यूडी की छंटनी में बहुत के साथ उनकी नौकरी भी चली गई तो उनके सामने रोज़ी का संकट खड़ा हो गया. आदिवासी लोक कला अकादमी के निदेशक कपिल तिवारी से मिलकर मदद माँगी और उन्होंने मदद की भी. अप्रैल 2002 में भूरी बाई को अकादमी में चित्रकार की हैसियत से नौकरी मिल गई. जहाँ वह अब भी काम करती हैं.

और हाँ, अब उन्होंने अपनी पेंटिंग पर दस्तख़त करना भी सीख लिया है.

कवर | म्युज़ियम ऑफ़ आर्ट एण्ड फ़ोटोग्राफ़ी में भूरी भाई के चित्रों की प्रदर्शनी से साभार

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