तो आग़ा हश्र ने मंटो से पूछा – लार्ड मिंटो से क्या रिश्ता है तुम्हारा
पारसी थिएटर के उस दौर में जब आग़ा हश्र कश्मीरी के नाटकों की धूम हुआ करती थी, उनकी ज़िंदगी और शान-ओ-शौक़त के क़िस्सों में भी लोगों की दिलचस्पी कम न थी. बक़ौल फ़िदा हुसैन नरसी ‘सीता वनवास’ लिखाने के लिए उनको पचास हज़ार रुपये फ़ीस मिली – तीस हज़ार नक़द और बीस हज़ार का शराब-ख़र्च. हक़ीक़त और फ़सानों के बीच जिये आग़ा हश्र पर ‘उर्दू के बेहतरीन संस्मरण’ में संकलित सआदत हसन मंटो के लिखे का एक हिस्सा,
तारीख़ें और सन् मुझे कभी याद नहीं रहे, यही कारण है कि यह संस्मरण लिखते वक़्त मुझे काफ़ी उलझन हो रही है. ख़ुदा मालूम कौन-सा सन् था और मेरी उम्र क्या थी. लेकिन सिर्फ़ इतना याद है कि बड़ी मुश्किल से एन्ट्रेस पास करके और दो बार एफ.ए. में फ़ेल होने के बाद मेरी तबियत पढ़ाई से बिलकुल उचाट हो चुकी थी और जुए से मेरी दिलचस्पी दिन-ब-दिन बढ़ रही थी. कटरा जैमल सिंह में दीनू या फ़ज़्लू कुम्हार की दुकान के ऊपर एक बैठक थी, जहाँ दिन-रात जुआ होता था. फ़्लाश खेली जाती थी. शुरू-शुरू में तो यह खेल मेरी समझ में न आया. लेकिन जब आ गया तो फिर मैं उसी का हो रहा. रात को जो थोड़ी-बहुत सोने की मुहलत मिलती थी, उसमें भी राउँडों और ट्रेलों के ही सपने दिखाई देते थे.
एक बरस के बाद जुए से मुझे कुछ उकताहट होने लगी. तबियत अब कोई और शग़्ल चाहती थी. क्या? यह मुझे मालूम नहीं था. दीनू या फ़ज़्लू कुम्हार की बैठक में एक दिन इब्राहिम ने, जो कि अमृतसर म्युनिसिपल्टी में ताँगों का दरोग़ा था, आग़ा हश्र का ज़िक्र किया और बताया कि वो अमृतसर आए हुए हैं. मैंने यह सुना तो मुझे स्कूल के वो दिन याद आ गए, जब तीन-चार पेशावर लफ़ंगों के साथ मिल कर हमने एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक नाटक स्टेज करने का इरादा किया था. यह क्लब सिर्फ़ पन्द्रह-बीस दिन क़ायम रह सका था, इसलिए कि अब्बा जान ने एक दिन धावा बोल कर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और साफ़ शब्दों में हमको बता दिया था कि ऐसे वाहियात शौक़ उन्हें बिलकुल पसन्द नहीं.
उस क्लब की याद अब केवल आग़ा हश्र के उस ड्रामे के चन्द शब्द हैं, जो मेरे दिमाग़ के साथ अभी तक चिपके हुए हैं. – “अर्थात् उसके कर्म हैं.”…मेरा ख़याल है, जब दारोग़ा इब्राहीम ने आग़ा हश्र का ज़िक्र किया तो मुझे उस वक़्त नाटक का पूरा एक पैरा याद था. इसलिए मुझे इस ख़बर से एक हद तक दिलचस्पी पैदा हो गई कि आग़ा हश्र अमृतसर में हैं.
आग़ा साहब का कोई नाटक देखने का मुझे सुअवसर न मिला था, इसलिए कि रात को मुझे घर से बाहर रहने की बिलकुल इजाज़त नहीं थी. उनके नाटक भी मैंने नहीं पढ़े थे, इसलिए कि मुझे “मिस्ट्रीज़ ऑफ़ कोर्ट ऑफ़ लन्दन’ और तीरथ राम फ़ीरोज़पुरी के अनूदित अंगरेज़ी जासूसी उपन्यास पढ़ने का शौक था. लेकिन इसके बावजूद अमृतसर में आग़ा साहब के आने की ख़बर ने मुझे काफ़ी प्रभावित किया.
आग़ा साहब के बारे में अनगिनत बातें मशहूर थीं. एक तो यह कि वो कूचा वकीलाँ में रहा करते थे, जो हमारी गली थी और जिसमें हमारा मकान था. आग़ा साहब बहुत बड़े आदमी थे. कश्मीरी थे – यानी मेरी ही जाति के – और फिर मेरी गली में वो कभी अपने बचपन के दिन बिता चुके थे. इन तमाम बातों का जो मनोवैज्ञानिक प्रभाव मुझ पर हुआ, आप उसका अच्छी तरह अनुमान कर सकते हैं.
दारोग़ा इब्राहीम से जब मैंने आग़ा साहब के बारे में कुछ और पूछा तो उसने वही बातें बताईं, जो मैं औरों से हज़ारों बार सुन चुका था. …
…वो परले दर्जे के ऐय्याश हैं. दिन-रात शराब के नशे में धुत्त रहते हैं. बेहद गाली बकते हैं. ऐसी-ऐसी गालियाँ ईजाद करते हैं कि गालियों में जिनकी कोई मिसाल नहीं मिलती. …
…बड़े-से-बड़े आदमी को भी ख़ातिर में नहीं लाते.
…कम्पनी के अमुक सेठ ने जब उनसे एक बार नाटक का तक़ाज़ा किया तो उन्होंने उसको इतनी मोटी गाली दी, जो हमेशा के लिए उसके दिल में नफ़रत पैदा करने के लिए काफ़ी थी. लेकिन हैरत है कि सेठ ने उफ़ तक न की और हाथ जोड़ कर कहने लगा, “आग़ा साहब, हम आपके नौकर हैं.”
…आशु कवि हैं – एक बार रिहर्सल हो रही थी. गर्मी के कारण एक ऐक्ट्रेस बार-बार उँगली के साथ पसीना पोछ रही थी. आग़ा साहब झुंझलाए और एक शेर मौज़ूँ हो गया.
अबरू न संवारा करो कट जाएगी उंगली,
नादान हो तलवार से खेला नहीं करते.
…रिहर्सल हो रही थी. ‘फ़ंड’ शब्द एक ऐक्ट्रेस की ज़बान पर नहीं चढ़ता था. आग़ा साहब ने गरज कर ‘फ़ंड’ की तुक का एक शब्द लुढ़का दिया – ऐक्ट्रेस को ज़बान पर झट ‘फ़ंड’ चढ़ गया.
…आग़ा साहब के कान तक यह बात पहुँची कि जलने वाले यह प्रचार कर रहे हैं कि हिन्दी के नाटक उनके अपने लिखे हुए नहीं हैं, क्योंुकि वो हिन्दी भाषा से बिलकुल अनभिज्ञ हैं. आग़ा साहब स्टेज पर नाटक शुरू होने से पहले आए और दर्शकों से कहा, “मेरे बारे में कुछ शरारती लोग यह बात फैला रहे हैं कि मैंने अपने हिन्दी के नाटक किराये के पंडितों से लिखवाए हैं…मैं अब आपके सामने शुद्ध हिन्दी में भाषण दूँगा.” और फिर आग़ा साहब दो घंटे तक हिन्दी में भाषण देते रहे, जिसमें एक शब्द भी उर्दू या फ़ारसी का नहीं था.
…आग़ा साहब जिस ऐक्ट्रेस की तरफ़ निगाह उठाते थे, वह फ़ौरन ही उनके साथ एकान्त में चली जाती थी.
…आग़ा साहब मुंशियों को हुक्म देते थे – “तैयार हो जाओ.” और शराब पी कर टहलते-टहलते एक साथ कॉमेडी और ट्रेजिडी लिखवाना शुरू कर देते थे.
…आग़ा साहब ने कभी किसी औरत से इश्क नहीं किया. . . .
लेकिन मुझे दारोग़ा इब्राहीम से मालूम हुआ कि यह आख़िरी बात झूठ है. क्यों कि वह अमृतसर की मशहूर तवायफ़ मुख़्तार पर आशिक हैं. वही मुख़्तार, जिसने ‘औरत का प्यार’ फ़िल्म में हीरोइन का पार्ट किया है.
मुख़्तार को मैं देख चुका था. दाल बाज़ार में अनवर पेन्टर की दुकान पर बैठ कर हम लगभग हर बृहस्पति की शाम को मुख़्तार उर्फ़ दारी को नए-से-नए फ़ैशन के कपड़े पहने दूसरी तवायफ़ों के साथ ‘ज़ाहिरा पीर’ की दरगाह को जाते देखा करते थे.
आग़ा साहब शक्ल-सूरत के कैसे थे, यह मुझे मालूम नहीं था. कुछ छपी हुई तस्वीरें देखने में आई थीं. मगर उनकी छपाई इतनी वाहियात थी कि सूरत पहचानी ही नहीं जाती थी. उम्र के बारे में सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो अब बूढ़े हो चुके हैं. . . .उस ज़माने में, यानी उम्र के आख़िरी हिस्से में उनको मुख़्तार से कैसे इश्क हुआ, इस पर हम सब को, जो दीनू या फ़ज़्लू कुम्हार की बैठक में जुआ खेल रहे थे, सख़्त ताज्जुब हुआ था. … मुझे याद है, नाल के पैसे निकालते हुए दीनू या फ़ज़्लू कुम्हार ने गर्दन हिला कर बड़े दार्शनिक भाव से कहा था – ‘बुढ़ापे का इश्क बड़ा क़ातिल होता है.’
एक बार आग़ा साहब का ज़िक्र बैठक पर हुआ तो फिर लगभग हर रोज़ उनकी बातें होने लगीं. हम में से सिर्फ़ दारोग़ा इब्राहीम आग़ा साहब को व्यक्तिगत रूप से जानता था. एक दिन उसने कहा – “कल रात हम मुख़्तार के कोठे पर थे. …आग़ा साहब गाव तकिये का सहारा लिए बैठे थे. हम में से बारी-बारी हर एक ने उनसे ज़ोरदार दरख़्वास्त की कि वो अपने नए फ़िल्मी नाटक ‘रुस्तम-ओ-सोहराब’ का कोई हिस्सा सुनाएं. मगर उन्होंने इनकार कर दिया. हम सब निराश हो गए.
एक ने मुख़्तार की तरफ़ इशारा किया. वह आग़ा साहब की बग़ल में बैठ गई और उनसे कहने लगी, ‘आग़ा साहब हमारा हुक्म है कि आप ‘रुस्तम-ओ-सोहराब’ सुनाएं!’ आग़ा साहब मुस्कराए और बैठ कर रुस्तम का ज़ोरदार डायलाग बोलना शुरू कर दिया. अल्लाह अल्लाह, क्या गरज़दार आवाज़ थी! मालूम होता था कि पानी का तेज़ धारा पहाड़ के पत्थरों को बहाए लिए चला जा रहा है.”
एक दिन इब्राहीम ने बताया कि आग़ा साहब ने पीना एकदम छोड़ दिया है. जो लोग उनके बारे में ज़्यादा जानते थे, उन्हें बड़ी हैरत हुई. इब्राहीम ने कहा कि यह फ़ैसला उन्होंने हाल ही में मुख़्तार से इश्क होने के कारण किया है. यह इश्क़ भी क्या बला थी. हम समझ न सके, लेकिन दीनू या फ़ज़्लू ने नाल के कुल पैसे अपने तहमद के डब में बाँधते हुए, एक बार फिर कहा, ‘बुढ़ापे के इश्क़ से ख़ुदा बचाए…बड़ी ज़ालिम चीज़ होती है.’
जुए से तबीयत उकता ही चुकी थी. मैंने बैठक जाना आहिस्ता-आहिस्ता छोड़ दिया. इस बीच मेरी मुलाक़ात बारी साहब और हाजी लक़लक़ से हुई, जो दैनिक ‘मसावात’ के सम्पादक हो कर अमृतसर आए हुए थे. जीजे के होटल ‘शीराज़’ में दोनों चाय पीने आते थे और साहित्य और राजनीति पर बातें करते थे. उनसे मेरी मुलाक़ात हुई तो बारी साहब को मैंने बहुत पसन्द किया.
इसी बीच जीजे ने अख़्तर शीरानी मरहूम को दावत दी. दिन-रात ठर्रे के दौर चलने लगे. शेर -ओ – अदब से मेरी दिलचस्पी बढ़ने लगी. जो वक़्त पहले फ़्लाश खेलने में कटता था, अब ‘मसावात’ के दफ़्तर में कटने लगा. कभी-कभी बारी साहब एक-आध ख़बर अनुवाद करने के लिए मुझे दे देते, जो मैं टूटी-फूटी उर्दू में कर दिया करता था. आहिस्ता-आहिस्ता मैंने फ़िल्मी ख़बरों का एक कॉलम सम्हाल लिया. कुछ दोस्तों ने कहा कि महज़ ख़ुराफ़ात होती है. लेकिन बारी साहब ने कहा, “बकवास करते हैं. तुम अब तबा’ज़ाद (मौलिक) मज़मून लिखने शुरू करो.”
मौलिक लेख तो मुझसे लिखे न गए, लेकिन फ़्रान्सीसी उपन्यासकार विक्टर ह्यूगो की एक किताब ‘लास्ट डेज़ ऑफ़ कन्डेम्ड’ मेरी अलमारी में पड़ी थी. बारी साहब उठा कर ले गए. दूसरे दिन दोपहर के करीब मैं “मसावात’ के दफ़्तर में गया तो कातिबों से मालूम हुआ कि बारी साहब को सरसाम हो गया है. एक किताब सुबह से ऊँची आवाज़ में पढ़ रहे हैं. थोड़ी-थोड़ी देर के बाद यहाँ आते हैं और एक लोटा ठंडे पानी का सिर पर डलवा कर अपने कमरे में चले जाते हैं.
मैं उधर गया तो दरवाज़े बन्द थे और वो वक्ताओं के अन्दाज़ में अंग्रेज़ी की कोई बहुत ज़ोरदार इबारत पढ़ रहे थे. मैंने दस्तक दी. दरवाज़ा खुला. बारी साहब बिना कुर्ते-पाजामे के केवल अंडरवेयर पहने बाहर आए. हाथ में विक्टर ह्यूगो की किताब थी. उसे मेरी तरफ़ बढ़ा कर अंग्रेज़ी में कहा, ‘इट इज़ वेरी हॉट बुक.’ और जब किताब पढ़ने की गर्मी दूर हुई तो मुझे सलाह दी कि मैं उसका अनुवाद करूं.
मैंने किताब पढ़ी. लिखने का अन्दाज़ बहुत ही प्रभावशाली और भाषणदाताओं का-सा था. शराब पी कर अनुवाद करने की कोशिश की. पर नज़रों के सामने लाइनें गडमड हो गईं. सहन में पलंग बिछवा कर हुक़्क़े की नय मुँह में ले कर अपनी बहन को अनुवाद लिखवाने की कोशिश की. मगर उसमें भी नाकाम रहा. आख़िर मैं अकेले बैठ कर दस-पन्द्रह दिनों के अन्दर-अन्दर शब्दकोश सामने रख कर सारी किताब का अनुवाद कर डाला. बारी साहब ने बहुत पसन्द किया. उसका सुधार किया और यासूब हसन मालिक ‘उर्दू बुक स्टाल’ लाहौर के पास तीस रुपये में बिकवा दिया. यासूब हसन ने उसे बहुत ही थोड़े समय में छाप कर प्रकाशित कर दिया. अब मैं ‘साहबे किताब’ था.
‘मसावात’ बन्द हो गया. बारी साहब लाहौर किसी अख़बार में चले गए. जीजे का होटल सूना हो गया. मेरे लिए कोई काम न रहा. लिखने की चाट पड़ गई थी, लेकिन चूँकि दोस्तों से दाद न मिलती थी, इसलिए उधर कोई ध्यान न दिया. अब फिर दीनू या फ़ज़्लू कुम्हार की बैठक थी. जुआ खेलता था, मगर उसमें अब वह पहला-सा मज़ा और पहली-सी गर्मी नहीं थी.
एक दिन फिर दारोग़ा इब्राहीम ने फ़्लाश खेलने के दौरान में बताया कि आग़ा हश्र आए हुए हैं और मुख़्तार के यहाँ ठहरे हुए हैं. मैंने उससे कहा कि किसी दिन मुझे वहाँ ले चलो. इब्राहीम ने वायदा तो कर लिया मगर पूरा न किया. जब मैंने तक़ाज़ा किया तो उसने यह कह कर टर्ख़ा दिया कि आग़ा साहब लाहौर चले गए हैं.
मेरा एक दोस्त था हरि सिंह. अल्लाह बख़्शे, ख़ूब आदमी था. पाँच मकान बेच कर दो बार सारे यूरोप की सैर कर चुका था और इन दिनों छठे और आख़िरी मकान को आहिस्ता-आहिस्ता बड़े सलीक़े के साथ खा रहा था. फ़्रांस में सिर्फ़ छै महीने रहा था. लेकिन, फ़्रांसीसी ज़बान बड़ी बे-तकल्लुफ़ी से बोल लेता था. बहुत ही दुबला-पतला, मरियल-सा इन्सान था, मगर ग़ज़ब का फुर्तीला, चर्ब ज़बान और धाँसू, यानी बर्मे की तरह अन्दर धंस जाने वाला.
एक दिन मैंने उससे आग़ा हश्र का ज़िक्र किया. उसने तुरन्त ही पूछा, “क्या तुम उससे मिलना चाहते हो?”
मैंने कहा, “बहुत देर से मेरी ख़्वाहिश है कि उनको एक नज़र देखें.”
हरि सिंह झट बोला, “इसमें क्या मुश्किल है. जब से वह यहाँ, अमृतसर में पंडित मोहसिन के घर ठहरा हुआ है, क़रीब-क़रीब हर रोज़ मेरी उससे मुलाक़ात होती है.”
मैं उछल पड़ा, “तो कल शाम को तुम मुझे उनके पास ले चलो.”
हरि ने अपना व्हिस्की का गिलास अपने पतले होंठों से लगाया और बड़ी नज़ाकत से एक छोटा-सा घूँट भर के फ़्रांसीसी ज़बान में कुछ कहा, जिसका मतलब था – ‘ज़रूर-ज़रूर मेरे दोस्त!’
और हरि सिंह दूसरे दिन शाम को मुझे आग़ा हश्र कश्मीरी के पास ले गया.
पंडित मोहसिन, जैसा कि नाम से प्रकट है, कश्मीरी पंडित थे. नाम उनका जाने क्यान था. मोहसिन तख़ल्लुस (उपनाम) था. मुशायरों में पुरानी दक़ियानूसी शायरी के नमूने के तौर पर पेश हुए थे. आपका कारोबारी सम्बन्ध कटरा घुन्नियाँ के अमृत सिनेमा से था.
आग़ा साहब से पंडित जी की दोस्ती, पता नहीं शायरी के कारण थी, या सिनेमा के कारण या कटरा घुन्नियाँ इसका कारण था, जिसमें अमृत सिनेमा और मुख़्तार का कोठा बिलकुल आमने-सामने थे. कारण कुछ भी हो, आग़ा साहब पंडित मोहसिन के यहाँ ठहरे हुए थे और जैसा कि मुझे उन दोनों की बातचीत से पता चला, दोनों में काफ़ी बेतकल्लुफ़ी थी.
पंडित मोहसिन की बैठक या दफ़्तर, कटरा घुन्नियाँ के पास पशम वाले बाज़ार से निकल कर आगे जहाँ सब्ज़ी की दुकानें शुरू होती हैं, एक बड़ी-सी ड्योढ़ी के ऊपर था. हरि सिंह आगे था, मैं उसके पीछे. सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त मेरा दिल धक-धक करने लगा. मैं आग़ा हश्र को देखने वाला था.
बाहर आंगन में कुर्सियों पर कुछ आदमी बैठे थे. एक कोने में तख़्त पर पंडित मोहसिन बैठे गुड़गुड़ी पी रहे थे. सब से पहले एक अजीब-ग़रीब आदमी मेरी आँखों से टकराया. चीख़ते हुए लाल रंग की चमकदार साटन का लाचा, दो घोड़ा बोस्की की कालर वाली सफ़ेद क़मीज़, कमर पर गहरे नीले रंग का फुंदनों वाला इज़ार बन्द, बड़ी-बड़ी बेहंगम आँखें – मैंने सोचा कटरा घुन्नियाँ का कोई पीर होगा. लेकिन तभी किसी ने उसको ‘आग़ा साहब’ कह कर सम्बोधित किया. मुझे धक्का-सा लगा.
हरि सिंह ने बढ़ कर उस अजीब-ग़रीब आदमी से हाथ मिलाया और मेरी तरफ़ इशारा करके कहा, “मेरे दोस्त सआदत हसन मंटो – आप से मिलने के बहुत मुशताक़ (इच्छुक) थे.”
आग़ा साहब ने बड़ी बेहंगम आँखें मेरी ओर घुमाईं और मुस्करा कर कहा, “लार्ड मिंटो से क्या रिश्ता है तुम्हारा!”
मैं तो जवाब न दे सका, लेकिन हरि सिंह ने कहा, “आप मिन्टो नहीं, मंटो हैं.”
आग़ा साहब ने एक लम्बी ‘ओह!’ की और पंडित मोहसिन से कश्मीरियों की ‘अल्ल’ के बारे में बात-चीत शुरू कर दी. मैं पास ही बेंच पर बैठ गया. पंडित जी को आग़ा साहब की इस बात-चीत से ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी, क्योंकि वो बार-बार उन से कहते थे, “आग़ा साहब, इसको छोड़िए. यह बताइए कि आप कब मेरे लिए दो रील का कॉमेडी ड्रामा लिखेंगे?”
आग़ा साहब को कॉमेडी से कोई दिलचस्पी नहीं थी. वो बात तो ‘कश्मीरियों की अल्ल’ के बारे में कर रहे थे, पर ऐसा मालूम होता था कि दिमाग़ कुछ और ही सोच रहा है. एक-दो बार उन्होंने बातों के बीच अपने नौकर को मोटी-मोटी गालियाँ दे कर याद किया कि वह अभी तक आया क्यों नहीं.
आग़ा साहब जब चुप हुए तो पंडित मोहसिन ने उनसे कहा, “आग़ा साहब, इस वक़्त आपकी तबियत मौज़ूँ है. मैं काग़ज़ कलम लाता हूँ. आप वह कॉमेडी लिखवाना शुरू कर दीजिए.”
आग़ा साहब की एक आँख भैंगी थी. उन्होंने उसे घुमा कर कुछ अजीब अन्दाज़ से पंडित जी की तरफ़ देखा. “अबे चुप रह. आग़ा हश्र की तबियत हर वक़्त मौज़ूँ होती है.”
पंडित जी ख़ामोश हो गए और अपनी गुड़गुड़ी गुड़गुड़ाने लगे. अचानक मुझे महसूस हुआ कि मेरा सिर चकरा रहा है. तेज़ ख़ुशबू के भबके आ रहे थे. मैंने देखा, आग़ा साहब के दोनों कानों में इत्र के फाहे ठुंसे हुए हैं और शायद सिर भी इत्र से चुपड़ा हुआ है. मैं कुछ तो उस तेज़ ख़ुशबू और कुछ आग़ा साहब के लाचे और इज़ार बन्द के भड़कीले रंगों में क़रीब-क़रीब डूब चुका था.
बाज़ार में अचानक शोर-गुल हुआ. एक साहब ने उठ कर बाहर झांका और आग़ा साहब से कहा, “आग़ा साहब, तशरीफ़ लाइए. मेंहदी का जुलूस आ रहा है.”
आग़ा साहब ने कहा, “बकवास है.” और करबला की घटनाओं पर बहुत ही अन्वेषणात्मक भाषण देना शुरू कर दिया. ऐसे-ऐसे नुक्ते निकाले कि सब दंग रह गए. आख़िर में बड़े नाटकीय ढंग से कहा, “दजला का मुँह बन्द था, फ़रात सूखी पड़ी थी. पीने को पानी की एक बूँद नहीं थी. मेंहदी गूँथी किस से गई?…आग़ा हश्र के…” इससे आगे कहते-कहते रुक गए. एक साहब, जो शायद शिआ थे, महफ़िल से उठ कर चले गए. आग़ा साहब ने विषय बदल दिया.
पंडित मोहसिन को मौक़ा मिला, और उन्होंने फिर दरख़्वास्त की, “आग़ा साहब, दो रील की कॉमेडी आपको लिखनी होगी.”
आग़ा साहब ने यह मोटी-सी गाली दी, “कॉमेडी की…यहाँ ट्रेजिडी की बातें हो रही हैं और तुम अपनी कॉमेडी ले आए हो.” यह कह कर आग़ा साहब करबला की दुखान्त घटना के बारे में फिर बड़ी विद्वत्तापूर्ण बातें करने लगे. क्योंकि वो जी भर के इस विषय पर अपने ज्ञान और विचारों का प्रदर्शन नहीं कर सके थे. पर तुरन्त ही जाने क्या मन में आया एक दम अपने नौकर को गालियाँ देनी शुरू कर दीं कि वह अभी तक आया क्यों नहीं. इसलिए वह सिलसिला टूट गया.
थोड़ी देर के बाद किसी ने आग़ा साहब से मौलाना आज़ाद के ज्ञान और विद्वत्ता के बारे में पूछा तो उन्होंने उसका जवाब कुछ यों दिया, “महीउद्दीन के बारे में पूछते हो? हम दोनों इकट्ठे अमरीकी और ईसाई मुबल्लिगों (धर्म प्रचारकों) से मुनाज़रे (शास्त्रार्थ) करते रहे हैं. घंटों अपना गला फाड़ते थे. अजब दिन थे वो भी.”
यह कह कर आग़ा साहब लाचे और इज़ार बन्द के भड़कीले रंगों और कानों में उड़से हुए फायों और सिर में चुपड़े हुए इत्र की तेज़ ख़ुशबू सहित बीते हुए दिनों की याद में कुछ अर्से के लिए खो गए. उन्होंने अपनी मोटी-मोटी आँखें बन्द कर लीं. जो हुलिया उन्होंने बना रखा था, उससे यद्यपि वो रंडियों के पीर दिखाई देते थे, लेकिन उनका चेहरा बहुत ही रोबदार था. आँखें बन्द थीं. झुके हुए पपोटों की झुर्रियों वाली पतली खाल के नीचे मोटी-मोटी काँच की गोलियाँ-सी हौले-हौले हरकत कर रही थीं. उन्होंने जब आँखें खोलीं तो मैंने सोचा, कितने बरसों का नशा इनमें जमा है. किस क़दर सुर्ख़ी इनके डोरों में समो चुकी है.
आग़ा साहब ने फिर कहा, “अजीब दिन थे वो…आज़ाद ढील दे के पेच लड़ाने का आदी था. मुझे मज़ा आता था खींच के पेच लड़ाने में. एक हाथ मारा और पेटा काट लिया; ऐसे, कि हरीफ़ (प्रतिद्वन्द्वी) मुँह देखते रह गए. एक बार आज़ाद बहुत बुरी तरह घिर गया. मुक़ाबिला चार निहायत ही हठ-धर्म ईसाई मिशनरियों से था. मैं पहुँचा तो आज़ाद की जान में जान आई. उसने उन मिशनरियों को मेरे हवाले किया. मैंने दो-तीन ऐसे अड़ंगे दिए कि बौखला गए. मैदान हमारे हाथ रहा.”
इतने में आग़ा साइब का नौकर आ गया. आग़ा साहब ने अपने ख़ास अन्दाज़ में उसको गालियाँ दीं और कारण पृछा कि उसने इतनी देर क्यों की? नौकर ने, जो गालियों का आदी मालूम होता था, काग़ज़ का एक बंडल निकाला और खोल कर आगे बढ़ाया. “ऐसी चीज़ लाया हूँ कि आप की तबियत ख़ुश हो जाय.”
आग़ा साहब ने खुला हुआ बंडल हाथ में लिया – भड़कीले रंग के चार इज़ारबन्द थे. आग़ा साहब ने एक नज़र उनको देखा और आँखों को बड़े ही भयानक भाव से ऊपर उठा कर अपने नौकर पर गरजे….“यह चीज़ लाया है तू…ऐसे वाहियात इज़ारबन्द तो इस शहर के कुंजड़े भी नहीं पहनते.” यह कह कर उन्होंने बंडल फर्श पर दे मारा. …कुछ देर नौकर पर बरसे फिर जेब में से शायद दो-तीन हज़ार रुपये के नोट निकाले और उसे हुक्म दिया, “जाओ पान लाओ.”
पंडित मोहसिन ने गुड़गुड़ी एक तरफ़ रखी और कहा, “नहीं-नहीं, आग़ा साहब, मैं मंगवाता हूँ.”
आग़ा साहब ने सब नोट तमाशबीनों के अन्दाज़ में अपनी जेब में रखे और कहा, “जाओ, तुम्हारे पास कुछ बाकी बचा हुआ है.”
नौकर जाने लगा तो उन्होंने उसे रोका, “ठहरो!…वहाँ से पता भी लेते आओ कि वो अभी तक क्यों नहीं आईं?”
नौकर चला गया. थोड़ी देर के बाद सीढ़ियों को तरफ़ से हल्की-सी महक आई. फिर रेशमी सरसराहटें सुनाई दीं. …आग़ा साहब का चेहरा खिल उठा. …मुख़्तार, जो हरगिज़-हरगिज़ हसीन नहीं थी, सुन्दर वस्त्रों में सजी-सँवरी सहन में आ गई. आग़ा साहब और उपस्थित लोगों को तसलीम की और अन्दर कमरे में चली गई. आग़ा साहब की आँखें उसको वहाँ तक छोड़ने गईं.
इतने में पान आ गए, जो अख़बार के काग़ज़ में लिपटे हुए थे. नौकर अन्दर चला तो आग़ा साहब ने कहा, “काग़ज़ फेंकना नहीं, सम्हाल कर रखना.”
मैंने एकदम हैरत से पूछा, “आप इस काग़ज़ को क्या करेंगे आगा साहब?”
आग़ा साहब ने जवाब दिया, “पढ़ूँगा. छपे हुए काग़ज़ का कोई भी टुकड़ा, जो मुझे मिला है, मैंने ज़रूर पढ़ा है.” यह कह कर वो उठे, “माफ़ी चाहता हूँ. अन्दर एक माशूक मेरा इन्तज़ार कर रहा है.”
पंडित मोहसिन ने गुड़गुड़ी उठाई और उसे गुड़गुड़ाने लगे. मैं और हरि सिंह थोड़ी देर के बाद वहाँ से चल दिए.
मैं कई दिनों तक उस मुलाकात पर ग़ौर करता रहा. आग़ा साहब अजीब-ग़रीब हज़ार-पहलू व्यक्तित्व के मालिक थे. मैंने उनके चन्द नाटक पढ़े, जो ग़लतियों से भरे थे और बहुत ही घटिया काग़ज़ पर छपे हुए थे. जहाँ-जहाँ कॉमेडी आती थी, वहाँ फक्कड़पन मिलता था. नाटकीय स्थानों पर सम्वाद बहुत ही ज़ोरदार था. कुछ शेर भद्दे थे, कुछ बहुत ही सुन्दर. सब से मज़े की बात यह है कि उन नाटकों का विषय वेश्या था, जिनमें आग़ा साहब ने वेश्या के अस्तित्व को समाज के लिए ज़हर सिद्ध किया था…और आग़ा साहब उम्र के उस आख़िरी हिस्से में शराब छोड़ कर एक वेश्या से बहुत ही जोश के साथ इश्क़ फ़रमा रहे थे. पं.मोहसिन से एक बार मुलाक़ात हुई तो उन्होंने कहा, “इश्क़ के बारे में तो मैं नहीं जानता, लेकिन शराब को छोड़ देना बहुत जल्द इनको ले मरेगा.”
आग़ा साहब तो कुछ देर ज़िन्दा रहे, लेकिन पं.मोहसिन यह कहने के लगभग एक महीने बाद इस दुनिया से चल बसे.
मैंने अब कई अख़बारों में लिखना शुरू कर दिया था. कुछ महीने बीत गए. लोगों से मालूम हुआ कि आग़़ा हश्र लाहौर में ‘रुस्तम-ओ-सोहराब’ नाम का एक फ़िल्म बना रहे हैं, जिसकी तैयारी पर रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है. उस फ़िल्म की हीरोइन, जैसा कि प्रकट है, मुख़्तार थी.
अमृतसर से लाहौर सिर्फ़ एक घंटे का सफ़र है. आग़ा साहब से फिर मिलने को जी तो बहुत चाहता था, पर ख़ुदा जाने ऐसी कौन-सी रुकावट थी कि लाहौर जाना ही न हो सका.
बहुत दिनों के बाद बारी साहब ने बुलाया तो मैं लाहौर गया. वहाँ पहुँच कर कुछ ऐसा फँसा कि आग़ा साहब को भूल ही गया. शाम के क़रीब हमने सोचा कि चलो ‘उर्दू बुक-स्टाल’ चलें. चुनांचे मैं और बारी साहब दोनों अरब होटल से चाय पी कर उधर चल पड़े.
‘उर्दू बुक-स्टाल’ पहुँचे तो मैंने देखा, आग़ा साहब यासूब हसन की मेज़ के पास कुर्सी पर बैठे हैं. मैंने बारी साहब को बताया कि आग़ा हश्र हैं.
उन्होंने ध्यान से उनकी ओर देखा, “ये हैं आग़ा हश्र?”
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