संस्मरण | भा पावन तिन पाँयन परसे!

  • 11:32 am
  • 15 August 2023

और एक बार आज फिर संयोग! पर संयोग की बात थोड़ा रुककर! पहले यह कि यूँ तो वैसे उस जुड़ाव के बाद अक्सर याद आते हैं. लगभग हर रोज़ याद आते हैं. कभी-कभी तो दिन में कई-कई बार याद आते हैं. लेकिन जब-जब बारिश होती है, कहीं आई बाढ़ का समाचार पढ़ता-देखता हूँ, ख़ूब बड़े-बड़े खेतों-इलाक़ों में सरसों को फूलते, पीली चादरों की तरह पसरे-बिछे देखता हूँ, कोयल कूके या आम बौराए यानी कि बसंत कहीं भी किसी रूप-आकृति में दिखाई देता है तो अपने उपन्यासों, कहानियों, कविताओं के साथ वे ज़रूर याद आते हैं. इस सबके लिए उनके मन में सम्मोहन जैसे लगाव-जुड़ाव को कई तरह से अनेक बार देखा-पढ़ा है. उनके साथ क्षणों में सीधे-सीधे अन्दर बहुत गहरे तक जीया-महसूसा भी है. उनकी अभिव्यक्ति में या फिर रचनाओं के शीर्षकों तक में जल, जंगल और बसंत की उपस्थिति यूं रहीं भी अधिक ही है. पिछले सैंतीस से भी अधिक वर्षों की लम्बी अवधि में जब भी पत्रों से या फिर फ़ोन पर अलीगढ़ आने-जाने की बातें हुईं तो अक्सर यही कि… ‘हाँ, जनवरी के अंत में या मार्च के शुरू में कभी रख लो! ठीक है, तब गाँव भी चलेंगे. वहाँ बाग़, सरसों के खेत, गन्ने का रस, कोयल की आवाज…’

और अब चौंकाता-सा वह संयोग. आज अभी अचानक-शाम को वेदप्रकाश जी का फोन आया. बहुत ख़ुश-ख़ुश आने वाले अगस्त में रामदरश जी के नब्बे पूरे होने की सूचना के साथ ‘अभिनव प्रसंगवश” के लिए तुरंत कुछ लिखकर देने के लिए भी कहा. सुनकर मैं चौंका. जिस समय और मेरी जिस मनःस्थिति में वेद जी ने लिखने को कहा था, मेरी जगह जो भी होता वह चौंकता. वेद जी के इस ऐसे फ़ोन का आज आना? रामदरश जी पर कुछ लिखने की कहना? रे क्या है यह आख़िर? क्या अबूझ कोई इंगति, रहस्य या संयोग?

पिछले आठ-दस दिन से इस कोशिश में हूँ कि उन पर कुछ लिख सकूँ. पर यह लिख-वह फाड़. काग़ज़ की कई पर्चियों पर दो-दो, चार-चार लाइनें लिखने से आगे कुछ भी तो नहीं चला-जमा! काफी पहले की गई उस पहली कोशिश वाले लम्बे से काग़ज़ पर तिथि अंकित है -14.7.11. है न, आश्चर्य की बात! पिछले तीन साल से कोशिश-दर-कोशिश, लेकिन लिखा ही नहीं जा सका उन पर कुछ..! तो वेदप्रकाश जी के आज के इस कहने पर की ‘हॉ’ का मतलब? हो सकने की संभावना या ‘हाँ’ की विश्वसनीयता?

अगले दिन लिखना शुरू करने की कोशिश में पहले 14.7.11 की लिखी उन पंक्तियों पर ध्यान गया. तो क्या वे शब्द, ये पंक्तियाँ इतने महीनों तक आज के वेद जी के कहे जाने के या फिर किसी और अज्ञात अदृश्य के इंगित के इंतज़ार में जहाँ की तहाँ रुकी-थमी जमी-सी पड़ी थीं. आज जो जैसी भी शुरुआत हो रही है, वह लगभग तीन साल पहले लिखी उन्हीं पंक्तियों से हो रही है. बहुत दिनों की लगातार उमस के बाद की आज की यह झमाझम बारिश! नन्हें-मुन्ने प्यारे-प्यारे से हवा के ये झौंके. विभाग में अकेला फ़ुर्सत में बैठा मैं. अनेक रूपों-शैलियों में धूम-झूमकर नृत्य करते-से ये पेड़-पौधे. फूल-पत्ते-टहनियाँ. बरसती बूँदों की किसिम-किसिम का संगीत पैदा करती ये आवाज़ें, जैसे दर्जनों लोकवाद्य मिलकर कोई समूहगान गा रहे हैं. पता नहीं मन को क्याे सूझा कि उसने माँ का ध्यान किया. उस ध्यान में माँ के आज सुबह के इस याद दिलाने की याद दिला दी कि कल गुरु पूर्णिमा है. गुरु पूर्णिमा-यानी माँ के मन की डायरी के पन्नों पर लिखा मेरे जन्म का दिन! गुरु शब्द के आते ही आपका ध्यान आना ही आना था. याद आया, अरे हॉ, आपका भी तो जन्म् दिन आने वाला है. आपका जन्मा दिन यानी हिन्दुस्तान की आज़ादी वाली तारीख़! आपके सामने आपको, गुरु शब्द के सुनने-पढ़ने के साथ हमेशा ध्यान केवल आपका आता है और अन्तस है कि उत्साह, उल्लास, गरिमा और गौरव से गमक-महक उठता है.

वैसे भी कुछ तो है कि इन दिनों आपका ध्यान कुछ ज्यादा ही आने लगा है. शायद इसलिए कि इन दिनों उच्च शिक्षा की दुनिया और वहाँ के अध्यापकों के उजले कम और काले-काले कुछ ही पक्षों-कारनामों को बेहिसाब सुन रहा हूँ! काले इन अर्थों में कि बिना मेहनत हेर-फेर से छिपा-जोड़कर की गई कमाई यदि काला धन होती है, कोई भी ऐसा कारनामा जो अनैतिक, असामाजिक या दंद-फंद वाला हो तो काला कहलाता है, तो फिर जोड़-तोड़, हेराफेरी या फर्जीवाड़े के साथ से प्राप्त होने वाली डिग्रियॉ-नियुक्तियाँ अथवा पढ़ने-पढ़ाने को भूल-छोड़कर अधिकांश अध्यापक जब दोनों हाथों से धन बटोरने के कामों में मस्त-व्यस्त दिखते हों तो वह सब काला-घोर काला नहीं तो और क्यान कहलाएगा? जब मैं आज के अनेक अध्यापकों को नियुक्ति-पास कराने का व्यापार चलाते देखता हूँ अथवा उन्हें् तरह-तरह के काले कारनामों में उलझे-फँसे देखता हूँ तो सचमुच आप और अधिक-बहुत ज्यादा याद आते हैं. आज के गुरु शिष्यों में से विरलों को ही शायद इस पर विश्वास हो कि अलीगढ़ से दिल्लीै विश्वविद्यालय ठेल-भेज दिया गया ग्रामीण पृष्ठभूमि वाला कोई विद्यार्थी बिना परिचय, जोड़-जुगाड़ या घूस-सिफ़ारिश के उस सुविख्यात विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग और वहाँ के प्रतिष्ठित रचनाकार डॉ. रामदरश मिश्र का शोधछात्र भी हो सकता है. अगर ज्यों-त्यों शोघछात्र हो भी गया हो तो बिना निर्देशक या उनके घर-परिवार की जी-हजूरी, सेवा-गुलामी किए, बिना उनकी आरती उतारे अथवा भेंट-पूजा-चढ़ावा चढ़ाए पी-एचडी. की उपाधि भी प्राप्त कर सकता है. इतना ही नहीं, उसके बाद हमेशा के लिए अपने निर्देशक और उनके परिवारजनों का आत्मीय, निकटस्थ एवं स्नेह, आदर और विश्वास का भाजन भी बना रह सकता है.

किसी क्षण, व्यक्ति या मोड़ के ठीक-ठीक तब ही उसी जगह उसी तरह जीवन में आने या जाने अथवा उसके कारण ज़िंदगी में होने-घटने वाले परिवर्तनों-परिणामों के बारे में पहले से न कोई कुछ जान ही पाता है, न जरा कुछ भी बता पाता है. लेकिन ज़िन्दगी में जो जैसे भी होता-घटता हो, सचमुच ख़ुशनसीब और मालामाल होते हैँ वे लोग जिनको अपनी जीवन-यात्रा में किसी शिखर किसी देवदारु, किसी प्रकाश-स्तंभ, किसी विराट-उदार, निर्मल मन-मस्तिष्क वाले किसी देव तुल्य अध्यापक-व्यक्ति-रचनाकार के साथ-पास होने-रह सकने के अवसर मिले होते हैं, तब तो और भी ज्यादा जब कोई शख़्स ज़रा पहले ही अपनी किशोरावस्था पार कर पाया हो. उसे अपनी मंज़िल या आगे के रास्तों के बारे में कुछ भी नहीं पता हो. जिस गैल-गली को तब उसने पकड़ा हो, उसका ज्यादातर साबका काँटों-कंकड़ों, गड्ढों, खंदकों, खाइयों, जानलेवा मोड़ों, अंधेरों, सीलन या बदबू आदि से हो, बेरोज़गार तो हो ही, तब तक पति और दो संतानों का पिता भी बन चुका हो. और ऐसे उस शख़्स की ज़िंदगी में लगभग अड़तीस साल पहले अचानक एक ख़ास यादगार दिन आता है. उस दिन की शोध-समिति के सामने प्रस्तुत होने के बाद बेहद हताश-निराश क्षणों में डॉ. स्नातक जी के एक वाक्य से उसके मन में दिल्लीो विश्वविद्यालय का शोधछात्र हो सकने की उम्मीद जगती है और फिर यकायक उसे डॉ.रामदरश मिश्र जी का निर्देशन प्राप्त होता है. और फिर..! अनगिन घटनाएँ, अनगिन स्मृतियाँ..! पर यहाँ केवल कुछ….!

अलीगढ़ से डॉ.राजेन्द्र गढ़वालिया जी ने शोध के लिए क्यों और कहाँ भेजा था, इसकी बहुत लम्बी एक अलग कहानी है. लेकिन हाँ, जब मैं देशबंधु कॉलेज में हिन्दी-प्राध्यापक डॉ. रामस्वरूप शर्मा जी से मिला था कि मेरा विषय और निर्देशक अब तय हैं. लेकिन… शोध समिति की उस दिन की उस बैठक में मुझसे जो-जो कहा-पूछा गया था वो अपनी जगह, लेकिन हाँ, चलते-चलते मैंने साफ़-साफ़ सुना- ‘अरे, आगरा यूनीवर्सिटी से! नहीं, वहाँ के छात्रों को दाख़िला नहीं दे सकते हम..!’ पलक झपकते ही अंदर कुछ उबला. सामने बैठे विद्वानों की ओर निगाह उठाकर देखा- अरे, ये तो नगेन्द्र जी हैं…ये स्नातक जी…ये पता नहीं सावित्री सिन्हा जी हैं या निर्मला जैन जी… और ये, ये… ये कहीं वे ही, तो नहीं जो हमारी मौखिक परीक्षा लेने अलीगढ़ आए थे… हाँ, हाँ, रामदरश मिश्रजी. अंदर के उस उबल रहे ने उफन कर बहना शुरू किया-‘यदि इसी कारण मुझे दाख़िला नहीं दिया जा रहा है तो आपको विनम्रता के साथ याद दिला रहा हूँ कि आप में कई विद्वानों ने आगर विश्वविद्यालय से ही पी-एचडी. की है.’

ज़रा देर की ख़ामोशी के बाद पूरा कमरा ठहाकों से गूँज उठा था और मैं बाहर निकल आया था. पर हाँ, इस बीच जिस भव्य दिखते श्वेत-केशधारी अध्यापक का ठहाका सबसे तेज़ और दूघिया से किसी झरने की तरह बहता-सा सुनाई दिया था, पलटकर एक नज़र उन्हें देखना चाहा था. कुछ था उस देखने और दिखने में कि मेरे अंदर अच्छा-सा कुछ कौंधा, सिहरा सूझा था. पता नहीं वह हताशा थी, आक्रोश था या उस सबको नाइंसाफ़ी मान बैठे मन की कोई ज़िद या उम्मीद थी, मैं मीटिंग ख़त्म होने तक वहीं विभाग के बाहर बरामदे में टहलता रहा था. मीटिंग ख़त्म होने के बाद लपककर डॉ.स्नातक जी के पास पहुँचा था. सहजभाव से अपने असंतोष और आक्रोश को स्नातक जी के सामने प्रकट कर दिया था. और कमाल यह कि अगले ही क्षण उनका स्नेह जताता दायाँ हाथ मेरे बाएँ कंधे पर आ टिका था-‘… अमुक तिथि में फिर आ सकते हो? ठीक है, उस दिन की मीटिंग में विचार करेंगे.’

वहाँ से आकर सब कुछ पहले डॉ. रामस्वरूप जी को बताया, फिर अलीगढ़ में डॉ. राजेन्द्र गढ़वालिया जी और डॉ. वेदप्रकाश जी से बातचीत हुई. गढ़वालिया जी से ज्ञात हुआ कि हमारे तबके अध्यक्ष डॉ. श्रीकृष्ण वार्ष्णेय रामदरश जी से बाद में हुई किसी मुलाक़ात में बता चुके थे कि उनके जिन तीन विद्यार्थियों को मिश्र जी ने मुश्किल से सत्तर से ऊपर अंक दिए हैं, उनके अन्य दो-दो तीन-तीन प्रश्नपत्रों में मौखिकी से अधिक अंक आए हैं. बीस-पच्चीस दिन की उस त्रासदायी उहापोह, सोचा-विचारी और सलाह-मशविरे का सार यह था कि यदि किसी तरह रामदरश जी तुम्हारे लिए कह सकें तो तुम्हारा दाख़िला हो जाएगा. लेकिन किसी तरह में से कोई तरह ढ़ूँढ-निकालकर कोई नहीं बता पाया. तब आज की तरह किसी भी काम के लिए किसी के भी पास मुँह उठाकर चल देना न आम और आसान था और न ही उचित और अच्छा माना जाता था. बहुत सोचने-विचारने के बाद भी जब कोई रास्ता नहीं मिल-निकल पाया तो तय किया गया कि उस दिन की मीटिंग से पहले मैं अकेला रामदरश जी मिलूँ.

और-भयंकर तपते तेज लू वाले उस मौसम के एक दिन मुश्किल से हिम्मत जुटाकर पूछते-पाछते जैसे-तैसे मैं रामदरश जी के मॉडल टाउन वाले घर-शायद ई-4 / 11 के दरवाज़े तक पहुँचा था. दरवाज़े के बाईं ओर लगी उस नेमप्लेट पर लिखे नाम को कई बार पढ़ा. घबराहट थामने की कोशिश की, माथे के पसीने को शर्ट की आस्तीन से पौंछा. आँख बंद कर कॉलबेल के स्विच पर उँगली रख दी. उसके बाद – …उसके बाद का सब कुछ उसी तरह उसी क्रम में ढंग से याद नहीं… पर हाँ, यह मैं यदि चाहूं भी तो कभी नहीं भूल पाऊँगा कि खादी की सफ़ेद धोती और जेबदार बनियान में आकर स्वयं रामदरश जी ने दरवाज़ा खोला था. उनके तबके उस देखने में पूछने-जानने या पहचानने की ख़ामोश एक कोशिश साफ़ दिख रही थी. समझ नहीं आया कि क्याऔ बोलूँ, कैसे बताऊँ. ढुका-पैर छुए. अलीगढ़ का हवाला दिया. अंदर आने का इशारा हुआ.

रामदरश जी के सामने वाली सोफ़े की उस कुर्सी पर सिकुड़ा-सिमटा-सा जा बैठा था. हिचकते-अटकते अपने आने के बारे में बताया. ऐसे सुना जैसे सुना ही न हो. कोमल, अनुकूल या स्नेहिल-सा भी दूर-दूर तक कुछ भी नहीं, न बातों में, न पूछने-कहने या बैठने की उनकी उस मुद्रा में. आने के अपने निर्णय पर मन-मन पछतावा-सा हुआ. सवालों के पूछने का सिलसिला शुरू हुआ. सवाल पर सवाल दागे जाते रहे. संज्ञा शून्य-सा हो चला जड़वत बैठा मैं पता नहीं क्या बुदबुदाता-बड़बड़ाता रहा. हर सवाल के बाद अपने आने के निर्णय पर ख़ुद को ख़ूब-ख़ूब कोसा. चाहा कि कह दूँ कि मुझे नहीं करना शोध-वोध और कैसे ही यहाँ से बाहर निकल भागूँ. ऐसी स्थिति का इतनी देर तक इससे पहले कभी सामना नहीं किया था. ऐंठ भी कम नहीं थी और झूठा गुमान भी कुछ ज्यादा ही असर दिखाना शुरू कर चुका था. ख़ुद को कोसने के उन कष्टदायी क्षणों में अचानक, सुनाई दिया, ‘अंजलि! बेटे, पहले पानी फिर चाय तो लेकर आओ.’ आवाज़ की उस मिठास और मुद्रा में ‘एकदम’ से आए उस परियर्तन पर मुझे आश्चर्य हुआ. मुझे लगा कि कमरा जैसे यकायक ठंडक, उजास और दुलार से लबालब भर गया है.

चलने की इज़ाजत माँगी तो दरवाज़े तक छोड़ने आए- ‘कल एक बजे की फ़्लाइट पकड़नी है. आप ग्यारह बजे विभाग पहुँचिए. मैं जल्दीर पहुँचकर जल्दी आऊँगा.’ पता नहीं किस-किस जीवित-अजीवित के प्रति मन ने आभार व्यक्त किया था और किस-किसके लिए मन ने क्या-क्या दुआ निकाली थी, पर हाँ, ऐसा वो जो अहसास पहली बार हुआ था, वह अनूठा था. उस दिन के पलों में से किसी एक को भी न ज़रा भूला हूँ, न कभी भूलना चाहूँगा और -अगले दिन ग्यारह बजते ही आपका वह आना! थोड़ी देर बाद मेरे नाम का पुकारा जाना. स्नातक जी का यह पूछना कि क्या , यहाँ आप किसी से परिचित हैं. मैंने डॉ. राम स्वरूप जी का नाम लिया था. ‘नहीं, वे कॉलेज में हैं, वे रिसर्च नहीं करा सकते. कोई और…’ हिचकते-डरते मैंने रामदरश जी की ओर देखा. उनकी ओर से धीमी आवाज़ में आता एक वाक्य सुनाई दिया, ‘ठीक है, इन्हें हमारे नाम कर दें.’ बाहर आते-आते मेरी आँखों ने जैसे अपना संयम तोड़ दिया था. विभाग के बाहर के बरामदे की उन सीढ़ियों में से मोड़ वाली एक पर अकेला खड़ा सिसकता मैं डॉ.मिश्र की उस सहमति, अपनी उस प्राप्ति के लिए देर तक जैसे आँसुओं का अर्ध्य देता रहा था, किसी अज्ञात के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता रहा था. अपने जीवन में आए उस क्षण, उस मोड़ और डॉ.मिश्र के प्रति नत-कृतज्ञ होता रहा था.

यूँ आपसे, जुड़ने के बाद के सैकड़ों पत्र, अनगिन संवाद, यात्राएँ, आपके साथ-पास का कई-कई दिन का रहना, आपका अलीगढ़ घर आना, मेरा मॉडल टाउन व उत्तम नगर का आना-रहना, मॉडल टाउन में आई वह बाढ़, उसकी चर्चाएं-अभिव्यक्तियाँ और ‘आकाश की छत’ का लिखा जाना, के. एम. इंस्टीट्यूट आगरा में रीडर पद की नियुक्ति में आपका विशेषज्ञ के रूप में आना, मेरी नौकरी न लगने को लेकर आपकी चिंता-व्याकुलता, घर-परिवार में मेरा घुलते-मिलते जाना, मम्मी की एक बार भी डॉट खाए बिना स्नेह-आशीष प्राप्त करते जाना, और भी ढेर सारा ऐसा कुछ है जिस पर ख़ूब-ख़ूब लिखा-कहा जा सकता है. लेकिन यहाँ उस पहले मिलने के कुछ दिन बाद मॉडल टाउन के घर में उस रात मेरे पहली बार रुकने की वह घटना- वह स्मृति.

बाएं से क्रमश: डॉक्टर रामदरश मिश्र, डॉक्टर छैल बिहारी लाल गुप्त (राकेश गुप्त), प्रेमकुमार

आपका पत्र पाकर शोधकार्य की दशा-दिशा तय कराने के लिए उस शाम मैं आपके पास पहुँचा था. कृतज्ञता से भरा-भरा, आदर से ओतप्रोत. और आपके और अपने बीच के अलंघ्य उस अंतर के अहसास से सकुचा-सिमटा-सा. चाय के तुरंत बाद घूमने चलने का आदेश. लौटकर आते-आते अँधेरा हो गया. पहले से तय था कि कालका जी में डॉ.रामस्वरूप जी के घर रुकना है. वहाँ रुकने में अब अच्छे-से अपनेपन का अहसास होने लगा है. कई बार चाहा कि चलने की इज़ाजत माँग लूँ, पर…! उधर से साहित्य और साहित्यकारों की बातें, अपनी कविताओं का सुनाना. यह इस तरह करना है, वह उस तरह. अच्छा हो कि उन उनका वह भी देख-पढ़ लो. इसी बीच अंजलि ने खाना मेज़ पर लग जाने की सूचना दे दी. हाँ-ना कहने की न कोई गुंज़ाइश थी, न हिम्मत ही. रामदरश जी के साथ लगा-खिंचा चलता-सा उनकी बगल की कुर्सी पर जा बैठा. डायनिंग टेबल पर बैठकर खाना मेरे लिए हमेशा अजीब मुश्किल लगता रहा है. अन्य लोग दाल-चावल खाना शुरू कर चुके थे. प्लेट में दाल-चावल लिए बैठा मैं अनमना-सा एक-एक चम्मच जैसे-तैसे गले से नीचे उतार पा रहा था. अचानक सुनाई दिया-‘ अरे हाँ, इन्हें चपाती दो! चावलों से उनका पेट नहीं भरेगा!’ फिर उसके बाद तो जैसे उनका पूरा ध्यान ख़ुद के खाने पर कम, मुझे खिलाने पर ज्यादा केंद्रित रहा आया था. कमाल है, जो मैं कह नहीं पा रहा था, वो जाना और कहा जा चुका था.

खाने के बाद फिर घूमने जाना. अपनी जल्दी सोने की आदत के चलते ही शायद मेरे सोने के प्रबंध का उन्हें ख़्याल आया था. उन दिनों मैं बंद कमरे में चैन से नहीं सो पाता था. सिगरेट पीने की बुरी लत अलग से. मुश्किल से मना पाया कि मैं बाहर लॉन में चारपाई पर सो जाऊँगा. मम्मी ने मच्छर अधिक होने की कहकर अन्दर सोने की बात कई बार कही लेकिन चारपाई लॉन में बिछी. मच्छरों के आक्रमण से बचाने के लिए मच्छरदानी भी लगवाई गई और हाँ, ऑडोमास भी पास रख लेने के लिए दी. अच्छी-सी चॉदनी थी. सुहानी-सी हवादार रात थी. पता नहीं, कब क्या हुआ कि मुझे लगा कि जैसे किसी की उँगलियाँ मेरे माथे को सहलाती-सी उस पर कुछ मल रही हैं. कहीं यह सपना तो नहीं. नहीं – तो फिर. आँख खोलकर देखना चाहा, पर लगा कि पलक चिपक गई हैं. अपने ही कराहने की आवाज़ सुनाई दी. मुश्किल से आँख खुली. जो दिखा कल्पनातीत था. घिग्घी-सी बँध गई. इस बीच जैसे होंठ भी सिल चुके थे. चारपाई की दाहिनी पाटी पर झुके रामदरश मिश्र जी! मच्छरदानी में से होकर मेरे माथे तक आया उनका हाथ. बुखार से तपते मेरे माथे पर विक्स मलती उनकी उँगलियाँ. उनकी कोशिश थी कि मैं सोता रहूँ. उन्होंने जान लिया था कि मैं जाग गया हूँ. उनके दूसरे हाथ ने दवा की एक गोली मेरी हथेली की ओर बढाई- ‘पानी ये रखा है. यह गोली ले लो. अभी आराम मिल जाएगा.’ तब जो जैसा मेरा हाल हुआ था, वो तो हुआ ही था, लेकिन जब-जब उस रात के उन पलों को याद किया है तब-तब सचमुच उस रात के उस मलेरिया वाले तपने-कँपने से भी अधिक तपता-कँपता-सा महसूस करता रहा हूँ. हाँ, धन्यता में, कृतज्ञता में, अपने गुरू के ऐसे उस स्वभाव-व्यवहार की श्रेष्ठता के सम्मान में!

आपसे जुड़े हम सब का यह सौभाग्य और गौरव ही है कि नब्बे वर्ष तक की अपनी अभी तक की इस उम्र में आपने अपने रचनाकार को कभी थकने-थमने, भटकने-विचलने नहीं दिया. निरंतर प्रकाशित होते रहकर आप सतत्‌ सजग, सक्रिय, जीवंत और अपरिहार्य बने रहे हैं. आपने कई विधाओं में विपुल और उच्चस्तरीय साहित्य-सृष्टि की है. अपने पाठकों, शोधकों, समीक्षकों का पर्याप्त ध्यान आपके लेखन ने आकृष्ट किया है एवं खूब आदर-सम्मान भी आपने प्राप्त किया है.

जिन्होंने आपको देखा-जाना-पढ़ा है, उन्हें मालूम है कि आपको ‘आप’ बनाने-बनाए रखने में जहाँ आपके निजी श्रम, संघर्ष, संकल्प, ग्राम्य जीवन के कुछ ख़ास मूल्यों-संस्कारों की प्रमुख भूमिका रही है, वहीं आपको अधिकाधिक ऊर्ज्वसित, निश्चित, साहसी, स्वाभिमानी बनाते जाने में आपकी संततियों और उनकी भी संततियों को एक जगह एक साथ एकजुट रखे रहने में, और हाँ, घर के बदलने, चलाने व बनवाने के दौर में सब कुछ से आपको बचाए रखने में सबसे अलग और अधिक भूमिका केवल और केवल मम्मी-श्रीमती सरस्वती मिश्र की ही रही है.

आपकी अद्भुत, सम्पन्न, सम्मानित जीवन-लेखन-यात्रा के इस मोड़ पर मैं आपके सुख, आपके सुख-स्वास्थ्य और लेखन की कामना करता हूँ. उस क्षण और संयोग के प्रति कृतज्ञ हूँ जिसके चलते मैं आपका शिष्य कहला सका. मैं गौरवान्चित हूँ कि अपने यशस्वी, प्रख्यात शिष्यों की लम्बी श्रृंखला में से एक मेरा भी चयन करके अपनी आत्मकथा में मुझे स्थान दिया, मेरे लिखे कुछ को पढ़ा, उस पर कुछ लिखा. मेरी ख़ुशनसीबी और मालदारी यह भी कि आपका शिष्य होते ही मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रशिष्य और दिल्ली् जैसे ख्यात, सम्मानित विश्वविद्यालय का शोध छात्र बन गया.

(यह संस्मरण डॉ.रामदरश मिश्र के जन्मदिन के मौक़े पर 2014 में लिखा गया था. डॉ.मिश्र आज सौंवे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं.)

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