पारलाखेमुंडी की याद और बस में बसा जीवन

एक सीधी सड़क है. पूर्वी घाट की पहाड़ियों से गुजरती और ब्रह्मपुर से पारलाखेमुंडी को जोड़ती. 180 किलोमीटर और 180 अंश का कोण बनाती हुई. गांव में भोर जल्दी होती है, लोग खेती-किसानी के लिए निकल पड़ते हैं. इसलिए जब सुबह चार बजे पारलाखेमुंडी से बस चलती है तो सड़क के किनारे के सारे गांव जाग जाते हैं, कभी बस अपने हॉर्न की आवाज़ से जगाती है तो कभी शहर जाने वाले की तैयारी से आस-पड़ोस जाग जाता है. ‘बीती विभावरी जाग री.. ‘ चन्द्रगिरि, महेन्द्रगढ़ और उदयगिरि के लोग रात को बस की आवाज़ सुनकर ही सोते भी हैं.

बस का आना-जाना ही उनके लिए सूर्योदय और सूर्यास्त है. शाम को लौटती हुई बस मानो उन सबको को आश्वस्त करती जाती है कि अब तुम सो जाओ. सुख और सुकून लेकर मैं लौट आई हूं. बस के बिना ये सड़क किसी औरत की सूनी मांग की तरह है. और बस के आते सड़क जैसे सुहागन हो जाती है, बस की चरण धूलि से नहाकर यात्रियों (बारातियों) के शोरगुल, बतकही से सन्नाेटे को तोड़कर. बस सड़क की शाही सवारी है. दोनों तरफ़ लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े पहाड़ और उनके बीच से सलामी लेती हुई शाही सवारी कामधेनु, श्री गणेश, मारुति, ढ़िकुशिक्ति या और कोई बस. इस इलाक़े में जहाँ आने-जाने का अकेला साधन बस ही है, यहाँ आकर बस का महत्व ख़ूब समझ में आता है.

यह सन् ’95-96 की बात है, जब मैं केंद्रीय तिब्बती विद्यालय में पढ़ाता था. ब्रह्मपुर से मेरा तबादला पारलाखेमुंडी हुआ था. इलाक़े के पाँच गाँवों – ज़िराँग, तांगलीपाड़ा, चंद्रगिरी, महेंद्रगिरि और लबरसिंह में तिब्बती बस्तियाँ आबाद थीं. वे जमकर मक्के की खेती करते और ऊनी कपड़ों का व्यवसाय करते. आंध्र प्रदेश की कॉर्नफ्लैक्स बनाने वाली कंपनियाँ भी मक्के की ख़रीद यहीं से करतीं. और इसी नाते महेंद्रगढ़ का स्टेट बैंक इलाक़े का ख़ासा समृद्ध बैंक हुआ था. महाश्वेता देवी के किरदार सोरा जनजाति के लोग भी इस इलाक़े में बहुतायत में हैं. उनकी ज़िंदगी में तब शहर का दख़ल नहीं के बराबर था, सो बेहद निश्छल और निर्दोष जीवन जीने वाले लोग थे. चंद्रगिरी के आदिवासी हॉस्टल को उन दिनों राजीव गाँधी ने एक टेलीविज़न सेट तोहफ़े में दिया था, बहुतों के लिए बाहर की दुनिया से परिचय का यह अकेला ज़रिया था.

शहर का दख़ल नहीं हुआ था, इसीलिए यातायात का अकेला साधन बस ही थी. और बस का महत्व समझने के लिए ‘जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई’ वाली कहावत याद कर सकते हैं. अगर आप बस में चढ़ें और आपके साथ मछली का ढब, मुर्ग़े की खांची और कुछ बकरियां भी हमसफ़र हों तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं. हो सकता है कि चैलीगढ़ या चांदीपुर की हाट हो और गांव का कोई आदमी इनको बेचने जा रहा हो या फिर ख़रीदकर ला रहा हो. एक रोज़ मैंने बस वाले से पूछ ही लिया – अज्ञां (आदर सूचक संबोधन) आप ये सब क्यों ले लेते हैं. जवाब मिला – ये कोई मेल या एक्सप्रेस तो है नहीं. आख़िर सभी को तो जाना है. हम नहीं ले जाएंगे तो इस जगह से उन्हें कौन ले जाएगा?

यहाँ की बसें पूरी तरह से सह-अस्तित्व, सामंजस्य और सद्भाव की भावना से प्रेरित मिलती है. चाय-पान की ज़रूरत लगे या फिर शंका-लघुशंका या आपको पास के किसी घर तक जाकर आने की ज़रूरत दरपेश हो तो बस रोककर जाने-आने की पूरी छूट है. शर्त बस इतनी-सी है कि आप लौटकर ज़रूर आइए. अव्वल तो बस के मुसाफ़िर इस बात पर चिल्लाएंगे नहीं क्योंकि वे आपको अपना ही समझते हैं. और अगर कभी किसी ने ज़रा भी चूं-चपड़ की तो बस का कण्डक्टर या ड्राइवर कोई न कोई बहाना बताकर उनको लाजवाब कर देगा. सड़क के किनारे जगह-जगह पर विश्राम गृह बने हुए हैं, लोग अपने गांव से खाना-पीना खाने के बाद आकर आराम से जहाँ सो जाते हैं. रात को लम्बी दूरी वाली बसें आकर रुकती हैं और इनको जगाकर बैठा लेती हैं.

जैसे ‘उड़ि जहाज का पंछी पुनि जहाज पर आवै..बस और जनजीवन इस तरह घुल-मिल गया है कि अगर बस न आएं तो सड़क और गांव उदास रहते हैं. सड़क के किनारे खड़े इन्तज़ार करते लोगों के लिए बस का महत्व बहुत कुछ रहता है. अगर किसी को गैस के सिलण्डर का इन्तज़ाम करना है तो किसी को ताज़ी हरी सब्जियों का, किसी के लिए दवा की ज़रूरत है तो किसी को रजिस्ट्री की रसीद की.

समय के साथ बस की रफ़्तार भी बढ़ती रही. एक के बाद एक बस आती गई. सन् 2000 के आसपास यह सफ़र भी बदलने लगा. गांव के साहूकारों को ट्रांसपोर्ट में मुनाफ़े की सूरत दिखाई दी तो महिंद्रा की नई-नई जीपें आ गईं. अब ये मोटरें लोगों को अपने-अपने गांव से लेकर शहर की ओर निकलती हैं. गांव के लोगों के पास भी धीरे-धीरे अपने साधनों के विकल्प बनते गए. लेकिन गाँव के लोगों और बस वालों के बीच जो संबंध, सहयोग, सामंजस्य, सद्भाव और प्रेम का रिश्ता पहले था, वह अब भी बरकरार है. तभी तो कहते हैं कि मशीनें अगर मानव नियंत्रित हो तो हमारी सहयोगी और सुखदायी होती है, लेकिन मानव अगर मशीनों से नियंत्रित हो जाए तो संतुलन बिगड़ता है और कई बार कष्टकारी भी होता है. इस यात्रा को याद करके यह नसीहत तो हम ले ही सकते हैं.

कवर | सुभाशीष पाणिग्रही/विकीपीडिया

सम्बंधित

सफ़रनामा | पेशावर से काबुल तक

सफ़रनामा | भोपाल का ताल, खुला आसमान और पठान की ग़ज़लें


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.