कृष्णा सोबती | तो क्या लल्लूलाल अज्ञेय जी से ज्यादा ज्ञानी थे

यह सच है कि दो बार की इन मुलाकातों से तब मुझे तो संतोष नहीं ही हुआ था, संतुष्ट वे भी नहीं थीं. तय हुआ था कि शिमला में कृष्ण बलदेव वैद के साथ कुछ दिनों बाद होने वाली अपनी बातचीत के बाद वे मेरे साथ फुर्सत में इत्मीनान से फिर बातचीत करेंगी! लेकिन कभी उनकी व्यस्तता या अस्वस्थता कभी मेरी काहिली और यात्रा भीरुता ने हमारा उस तरह से मिल बैठना बाद में संभव नहीं ही होने दिया.
बात 2003 के अंतिम और 2004 के पहले तीन महीनों के कुछ दिनों की है. मैंने पत्र लिखकर कृष्णा सोबती जी से मिलने के लिए समय दिये जाने का निवेदन किया था. पत्र का तुरंत मिला वह उत्तर. काली स्याही से लिखे मोती जड़े से उनके वे शब्द. शब्दों में खूब-खूब स्नेह भी और जल्दी ही अगले पत्र में कोई तिथि तय कर दिये जाने का आश्वासन भी. दिन बीते. पूरा का पूरा महीना भी बीत चला, लेकिन उनका वह प्रतीक्षित पत्र नहीं आया. फिर शुरू हुआ फोन पर उनसे बातचीत का अच्छा-भला सा वह सिलसिला. अत्यंत आत्मीय स्नेहपूर्ण, खनकती-सी उनकी वह रौबदार आवाज. हर बार जी प्रेम कुमार साहेब के साथ उनकी बातों की वह शुरुआत. यह साहेब मुझे कभी साहिब-सा सुनाई देता तो कभी साहब और साब की तरह. उसके बाद प्यार भरे दुलराते से शब्दों में अपनी व्यस्तताओं-विवशताओं के उल्लेख के साथ जल्दी ही कोई तारीख तय कर दिये जाने का भरोसा भी.
पहली बार की मुलाकात से पहले उनसे फोन पर हुई कुछ बातें याद आ रही हैं-‘हाँ, प्रेम साहिब, ऐसा है… अभी तो नहीं. देखिए तीन को मुझे एक काम है. उसके बाद फुर्सत में आ पाऊँगी. फुर्सत में ही बातें हों तो अच्छा है. आप ऐसा करें कि मुझे तीन के बाद फोन कर लें. ठीक है, पाँच को कर लें. जी, मेरा तो वैसे भी सब पीछे ही चलता है. बहुत देरी होती रहती है हर बात में… हर काम में… ठीक है न…’ बहुल शाइस्ता और मुहज्जब अंदाज. कुशल-क्षेम के बाद सात-आठ में से कोई एक तारीख तय कराने की कोशिश की है. छह को अपने दिल्ली में होने की बात कही सो बहुत आत्मीयता के साथ कहा गया-‘अच्छा एक मिनिट होल्ड करिए. देखिए मैं वैसे ही बहुत स्लो हूँ. तीन को मुझे कुछ लिखना है एक कार्यक्रम के लिए. दो-तीन दिन तो लगते ही हैं. फिर मैं फ्रेश हो लूँगी. ऐसा कीजिए कि आप कुछ सवाल लिख भेजिए.’ मैंने तरह-तरह से लिखकर भेजने से बचना चाहा,’मुझे परंपरित ढंग से अकादमिक सवाल आपसे नहीं करने! मैं सिर्फ़ कुछ घंटे आपके सामीप्य को जीना चाहता हूँ.’ …’अच्छा ऐसा करें आप छह की शाम फोन कर लें! आठ को आप यहाँ होंगे क्या?’ मैंने कहा,’मैं सिर्फ़ आपके लिए रुकूँगा. आप अगर सात को कुछ घंटे दे सकेंगी तो आपकी मेहरबानी होगी.’ फौरन से पेशतर कहा गया-‘नहीं ऐसा क्या है, जाहिर है आप इतनी दूर से आएँगे! ठीक है, आप छह को फोन कर लें.’
छह की शाम फोन किया. पहले बोलीं-‘ठीक है आ जाइए. डेढ़ घंटे देख लेंगे.’ मैंने इतने समय के कम होने की बात कही तो किंचित परेशान होती-सी आवाज में कहा गया-‘देखिए, मैंने सोचा था कि आज काम ख़त्म हो जाएगा. नहीं हुआ. हशमत वाले पर एक लेख लिखना था. पूरा नहीं हुआ. अब कल करके परसों भेजूंगी. आप इसे टाल नहीं सकते क्या?’ मैं चुप रहा. बताने लगीं-‘मैं ग्यारह बजे तो जगती हूँ. फिर और सब काम-दवाई आदि! दोपहर में लिखूँगी. फिर रात में देर तक काम करती हूँ. खाने के बाद लेटती हूँ, आराम करती हूँ.’ मैंने कहा-‘दस से साढ़े ग्यारह तक बैठ लें. फिर आप खाना ख़ाकर आराम कर लें! मैं बैठकर इस बीच इंतजार कर लूँगा. उसके बाद फिर बैठ सकते हैं. एक-डेढ़ घंटे.’ तुरंत कहा गया-‘नहीं, यह नहीं हो सकेगा! मेरे घर में यह व्यवस्था नहीं हैं. मैं स्टडी में जाती हूँ तो फिर वहीं सब कुछ चलता है. एक साथ मैं एक ही काम कर सकती हूँ. थकान भी तो होती है. देखिए, कोई और डेट रख लें तो ज्यादा देर तक ढंग से बात हो सकेगी. अब कुछ घंटे कैसे संभव हों?’ मैंने बाल-हठ-सा करते हुए बताया-‘मैंने कॉलेज से छुट्टी ले ली है. मैं आ भी चुका हूँ, केवल आपसे मिलने के लिए ही आया हूँ.’ कुछ सोचती-सी मुझसे पूछती हैं-‘फिर क्या करें? अच्छा, कोई नम्बर है आपका यहाँ?’ मैंने बताया कि हाँ बेटे का नम्बर है.’थोड़ी देर रुकें’ पेंसिल लाती हूँ, आप हैं कहाँ? वल्लभगढ़ यानी फरीदाबाद! तो वहाँ क्या नम्बर से पहले कुछ लगेगा? अच्छा, मोबाइल का है, तब ठीक है! ऐसा करते हैं साढ़े चार से साढ़े पांच रख लें! अरे भई, थोड़ा बहुत इधर-उधर तो आने के बाद भी हो जायेगा.’ फोन रखने से पहले पता नहीं क्या ख्याल आया कि अचानक अजीब-सी एक हिचक के साथ पूछा गया-‘अच्छा, वैसे आप क्या पूछेंगे? सवाल बता दें तो मैं कुछ सोचूँ उन पर. …अरे नहीं, भई एक साथ इतना सब नहीं हो पाता अब! सोचा था लेख आज पूरा हो जायेगा. मैंने तो कल के अपने सब अपाइंटमेंट्स भी खाली रखे थे, पर…! खैर आप आइए…’
7.12.03 को चार बज जाने से पहले ही पूर्वाशा, मयूर विहार फेज फर्स्ट पहुँच गया था. 505-बी तलाशा. मालूम हुआ फिफ्थ फ्लोर पर है. लिफ्ट थी. लिफ्ट ली. यकायक अजीब एक चिंता और आशंका ने आ घेरा. पता नहीं कितना और किस तरह का समय मिल पाएगा! मन-मन फाइव नॉट फाइव को दुहराने के दौरान पता नहीं कहाँ से थ्री नॉट थ्री का ध्यान हो आया. इसके साथ ही कृष्णा जी की शख्सियत और लेखन से जुड़ा काफ़ी कुछ सुना-पढ़ा याद आने लगा! उनकी प्रतिभा, दृढ़ता, बहादुरी और असाधारणता से जुड़े अनेक कथन-प्रसंग याद आने लगे! पौँचवी मंजिल पर कदम रखते ही पता नहीं क्यों यह पंक्ति होठों पर आ गई ‘चार बसेरे जो चढ़े, सत सों उतरे पार…’ ठीक ही तो है कृष्णा सोबती जितनी ऊँचाई और हैसियत वाले सूफियों जैसे रचनाकार तक पहुँचने के लिए कुछ पड़ावों और साथ में सत की जरूरत तो होगी ही.
घंटी बजाने के कुछ क्षणों बाद एक सौम्य, आकर्षक व्यक्तित्व मेरे सामने था! अत्यंत शिष्ट अपनत्व के साथ कहा गया-’आइए! बैठिए! अभी आती हैं.’ चंद पल ही गुजरे थे कि दिखा प्रफुल्लित दमकती-सी हँसी के साथ अपने आसपास को रोशन-सा करतीं सामने से वे चली आ रही हैं. सुपुष्ट, सुगठित, सुव्यवस्थित-सा दरमियाना कद. पूरी काया अलग-अलग रंगों और आभा वाले वस्त्रों से ढकी-लिपटी. खास एक लय में फर्श पर उड़ रहे से पड़ते उनके कदम. चाल में, पहनावे में, आवाज में, अंदाज में विचित्र-सा एक सम्मोहन, असाधारण-सा चुम्बकत्व. भाव-भंगिमाओं, मुद्राओं में अद्भुत-सा एक आभिजात्य-स्वाभिमान, अलग-सी एक ठसक-धमक. किसी रानी-सी, महारानी-सी. ताजगी फुर्ती और जोश से भरी-भरी-सी ‘बैठिए, बैठिए’ कहते हुए वे मेरी बाईं ओर के सोफे पर आ बिराजी हैं. मुस्कराते, लाड़-सा करते पूछा गया है-‘कोई परेशानी तो नहीं हुई पहुँचने में? हाँ, आपने बताया था बेटा है यहाँ. क्या करता है वह? कहाँ रहता है? और अगले ही क्षण फिर अपनी वही मुश्किल-उफ, क्या बताऊँ, अभी तक यह आलेख पूरा नहीं हुआ. कागज मेज पर रखे हैं. मैं अभी वहीं हूँ. मेरा कुछ ऐसा है कि मैं अब उसके अलावा कुछ सोच ही नहीं सकती.! मुझे घबराहट हुई यह सुनकर. क्या यहाँ तक आने के बाद भी…? शंकित-सा पूछ बैठा-‘आज कितना समय मिल पाएगा मुझे?’ बड़े मीठे-खूबसूरत अंदाज में कहा गया-‘आज तो आपके साथ बैठकर चाय पीनी है. बाकी फिर किसी दिन बैठेंगे.’ मैं एकदम जड़-अवसन्न. फिर भी कोशिश की-‘मैं अलीगढ़ से केवल इसीलिए आया हूँ! आज का पूरा दिन आपसे बात करने को ही सुरक्षित किया था…! इस बीच ना एक बार भी नहीं सुनाई दिया, लेकिन हाँ, कारण पर कारण गिनाए जा रहे हैं. यकायक उठ खड़ी हुईं-‘अच्छा पहले चाय बना लाऊँ! फिर बैठते हैं,’ लगा कि जैसे कम ही सही पर कुछ समय शायद मिल ही जाएगा. चाय के लिए तकलीफ़ न करने की बात कही तो फैसला सुनाती-सी बोलीं-’नहीं, नहीं… चाय तो पीनी है, बनानी ही है. मैं इंतजार कर रही थी कि आपके आने पर ही चाय पीएंगे.
तनी-सी फुर्तीली चाल चलकर रसोई में गयी हैं. थोड़ी देर बाद चाय की ट्रे हाथ में लिये आती दिखीं. मैंने आगे बढ़कर ट्रे उनके हाथ से लेनी चाही. रोकती रहीं-‘नहीं, नहीं, कोई बात नहीं. मैंने ट्रे मेज पर रख दी है. वे फिर रसोई में गयी हैं लौटीं तो एक और ट्रे हाथ में है. उसमें अलग-अलग खानों में बिस्किट्स, नमकीन, बादाम, किशमिश. अबकी बार गयीं तो एक पॉट हाथ में है, जिसमें चॉकलेट्स रखे हैं. चाय तीन हैं… चीनी और दूध के पॉट्स हैं. बगल के कमरे की ओर मुँह करके कहा गया है-‘शिव चाय पी लीजिए. थोड़े पहले दरवाजे पर मिले वे भद्र पुरुष आये हैं. एक-एक चीज़ को खिलाने का आग्रह, साथ-साथ चाय का पिया जाना. चाय पीते-पीते मैंने अपने आसपास को निहारा है. गेट से लगा वह ड्रांइगरूम. वहाँ के सब कुछ में से झांकती-दिखती खास-सी एक अभिरुचि, संस्कृति और सौंदर्य दृष्टि! उधर से घूम-फिर कर निगाह कृष्णा सोबती जी पर आ टिकी. कहीं भी, कुछ भी में पचहत्तर पार की उम्र का जरा भी संकेत-आभास नहीं. दमकता गुलाब-गुलाब चेहरा! आँखों में की चमक और देह में की चुस्ती, फुर्ती और ऊर्जा! ऊनी मोजों के साथ चप्पलें. घुटनों पर बार-बार लहराता-सा सिल्क का ढीला-ढाला-सा वह गोटा लगा नीला-सा गरारा! लगभग उसी रंग का बारीक कढ़ाई वाला कुरता. सलमा-सितारों से जड़े-कढ़े से आसमानी दुपट्टे से ढंके उनके दोनों कंधे और सिर. सिर पर पहनी वह आसमानी-सी हिमाचली टोपी. बड़े फ्रेम का चश्मा और बड़े डायल वाली वह चेनदार घड़ी. कलाइयों में कंगन और कुछ अँगुलियों में अँगूठियाँ. हाँ, बाएँ हाथ की एक अंगुली में, दाएँ की दो में. बातों के बीच बोलती उनकी आँखें, नृत्य-सा करती पुतलियाँ. घूमती-थिरकती-सी अँगुलियाँ, हथेलियाँ, चलते-हिलते से हाथ और लरजते-से उनके वे कंधे.
पहले ‘ज़िंदगीनामा’ को लेकर चल रहे लम्बे उस मुकदमे की बहुत-सी बातें, अफसोस, आक्रोश और उत्तेजना के साथ. फिर अतीत की कुछ स्मृतियाँ गहरे एक लगाव के साथ. नैतिक पतन और बढ़ते अवमूल्यन को लेकर खास-सी चिंता. समकालीन रचनाकारों और उनकी रचनाओं पर पूरी जिम्मेदारी और जवाबदेही के साथ चिंता. कभी सात्विक-सा एक आवेग, कभी हँसी, कभी एकदम से गंभीर- ऐसे इतने इन्वॉल्वमेंट के साथ जैसे उन क्षणों में वे रचना ही रच रही हों. स्वरों का आरोह-अवरोह. कभी आवाज़ धीमी तो कभी तीव्र-प्रवाही-फरटिदार—जैसे ये सब रचनाशीलता के हिस्से हों. एक बार तो अपने ही एक वाक्य पर ऐसे हँसी कि जीभ होठों के जरा बाहर तक आ गयी. लगा कि जैसे तब वे एक बच्ची हो गयी थीं. ख़ुद की किसी शैतानी पर सकुचाती-सी एक अबोध, मासूम-सी छोटी बच्ची. वे जब सुन रही होती हैं तो एकदम शांत, एकाग्र भाव से रुचि और धैर्य के साथ सुन रही होती हैं. ख़ुद से जब कुछ बताना शुरू होता है तो फिर देर तक जोश में बोले जाती हैं. संवादहीनता की बढ़ती प्रवृत्ति पर चल रही चर्चा को समाप्त-सा करने के अंदाज में सोबती जी बोलीं-‘हाँ, ठीक कहा आपने. सही बात है. आप देखिए प्रेम साहब-जब लगे कि कोई हमारी तरह सोच रहा है तो राहत मिलती है. चलो, और लोग भी इसी तरह सोच रहे हैं. हम अकेले नहीं हैं. मैंने कुछ बातों को लिखना चाहा है. आश्वासन-सा देते हुए मुझे रोक दिया गया है-’नहीं, नहीं, अभी नहीं. हम लोग फिर बैठेंगे, फिर बात करेंगे.’ मैं चुप बैठा सुनता रहा. ये देर तक विभिन्ने विषयों-घटनाओं के बारे में बताती-बोलती रहीं. बिना लिखे सारा तो याद रहना ही नहीं था, लेकिन हाँ, कुछ ऐसा भी था जो याद रहना ही रहना था. मसलन…
कितनों ने मना किया ‘ज़िंदगीनामा’ के लिए मुकदमा लड़ने के लिए. हाँ, मैं क्यों नहीं लड़ती? आप देखिए बीस साल हो गए. अब फाइनल स्थिति में है लगभग. साहित्य के माफिया के लोग, कितनी तरह के लोग… सब उनके पीछे हैं, साथ हैं. होगा कोई तोप, पर मैं क्या करूँ? उस पुस्तक के लिए मैं न लड़ती तो उसके पात्रों के खिलाफ ये नाइंसाफी होती. मैं हूँ क्या भला? जो लिख पायी, उन पात्रों ने ही लिखवाया. वे इतने ताकतवर न होते, उनमें कोई खासियत न होती तो मैं कैसे लिख पाती. ऊपर वाले का कुछ होगा-मेरा क्या है? उन पात्रों में ताकत न होती तौ मैं कुछ नहीं कर सकती थी. मैं न लड़ती तो हाड़-माँस के उन पुतलों के साथ नाइंसाफी होती. और जो अपने पात्रों के लिए, अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकता, वह दूसरों के लिए क्या लड़ेगा. उनके लिए मैं कुछ नहीं करूँगी तो अपने आप को माफ़ नहीं कर सकती. करना चाहिए न यह मुझे ही? हाँ, उन बेबस निरीहों के लिए, जिन्होंने मुझे लेखक बनाया.
कलकत्ते में कार्यक्रम था अभी. अजीब हाल देखा वहाँ. कई लोगों को मंच पर बिठा दिया गया. मुझे बुरा लगा, गुस्सा आया. फिर उन सभी को हार पहनाए गए. मैंने खड़े होकर कहा कि यह गलत है. मंच पर उन्हीं को बिठाइए जिनका सम्मान किया जाना है. यह तो बिल्कुल किसी इंटर कॉलेज का सा फंक्शन हो गया कि पूरी कमेटी के लोगों को बिठा दिया और फिर हार पहनाने लगे.
एक सम्मान समारोह के आयोजक का फोन आया-आप आ जाएँ, यह कार्यक्रम है. भारतीय भाषाओं के बीस लोगों का चयन किया गया है. हिन्दी से आप भी हैं. बीस-बीस हजार का इनाम है. मैं चुप लगा गयी. फिर पत्र आया तो मैंने लिख दिया कि इससे बेहतर है कि आप लेखकों को बुलाएँ और सेमिनार करा दें और उनका सम्मान कर दें बस! …बताइए ये बीस-बीस हजार देकर बीस-बीस लोगों को बुलाने का मतलब क्यां है? अब देखिए, आई.ए.एस., पी.सी.एस. साहित्य में आ गये हैं तो वे साहित्य को भी अपनी तरह से चलाते हैं. एक आई.पी.एस. लेखक का फोन आया-हम फंक्शन कर रहे हैं! आपको आना है. मैंने कहा-मैं नहीं आ सकती. फिर फोन कि आना है. मैंने कहा कि मैं यात्रा नहीं कर सकती. फिर फोन-आपको आना ही है. मैंने कहा कि मैं व्यस्त हूँ. वे नहीं माने और अगली बार और जिद. मैंने बताया कि मुझे यात्रा में परेशानी होती है! बोले- आप हवाई जहाज से आ जाए! मैंने फिर कह दिया कि मैं नहीं आ सकती. अजी, एक दिन एक सिपाही भेज दिया घर पर-‘चलिए मैडम! मैं आपको हवाई जहाज में बिठाने के लिए हाजिर हूँ. कमाल है! एक सज्जन कहते हैं-आप आ जाइए हम कार भेज देंगे! क्या तमाशा है. कार, हवाई जहाज न हुए, हमारी कोई कमजोरी हो गये. लोगों ने कितना अजीब तरीका बना दिया है बुलाने, ले जाने का! कार भेज देंगे, होटल में ठहरा देंगे. और कमाल यह है कि हम खुश भी होते हैं, जाते भी हैं. दोनों तरफ से गलत है. लेखक का यह सम्मान नहीं है. लेखकों को भी सोचना चाहिए.
पहले उपन्यास ‘चन्ना’ के लिखने-छपने के दौर की याद चली आयी. जब ‘चन्ना’, जी, अपना पहला उपन्यास, जो बाद में ‘ज़िंन्दगीनामा’ के नाम से आया-लिखा तो पिता जी ने लैटर पैड दिया लाकर! कहा कि अच्छे कागज़ पर लिखो. पूरा उसी पर लिखा. बाद में, एक्जीक्यूटिव बांड, सनलिट बांड और अब गगन पर लिखती हूँ. हाँ, पाँच रुपए में आता था तब सनलिट वाला कागज. फिर कीमत बढ़ती गयी-एक सौ पचास तक पर लिखा. पर जब उससे ज्यादा हुआ तो गगन लिया. बचपन में हमें सिखाया जाता था कि कैसे बचत करें-कैसे व्यवहार करें. मेज पर खाने तक का व्यवहार. हमें कुछ भी करने की आजादी थी. लेकिन यह था कि कुछ भी छिपाना नहीं है. अगर हम बीमार हैं तो हमें सारी बातें लिखनी हैं. और इस तरह लिखनी हैं कि जरा भी कम नहीं, ज्यादा नहीं. कम लिखेंगे तो डॉक्टर दवा ठीक से नहीं दे पायेगा, कम देगा. रोग ठीक नहीं होगा या देर से ठीक होगा. अगर ज्यादा लिख दिया तो डॉक्टर तगड़ी दवा देगा और बाद में फिर कम दवा का असर नहीं होगा. दस रुपए मिलते थे महीने के अंत में हमें! एक दिन ले जाया जाता था बाजार. सारी चीजें लगी हैं… सामने फैली हैं. चयन हमें करना है. सब हम करेंगे. हमें करते देखा जाएगा-ज़रूरी हुआ तो कुछ बताया भी जाएगा. जी, अपना वह पहला उपन्यास भगवती चरण वर्मा जी की सलाह पर इलाहाबाद छपने भेजा था. तब बद्रीनाथ जी थे वहाँ. मैं एक नौकरी करती थी उन दिनों. मेरा पहला उपन्यास छप रहा था आप सोचो! मैं वहाँ गयी तो उन्होंने मुझे प्रूफ दिखाया. वहाँ एक महाशय थे जिन्होंने प्रूफ देखा था और कुछ संशोधन कर दिये थे. मैंने संशोधन देखे तो पूछा यह क्या किया आपने? बताया कि ये शब्द उन्होंने ठीक कर दिये हैं. मैं हैरान! आप देखिए संशोधन और सही करने के नाम पर उन्होंने वृक्ष का तरु, मसीत का मस्जिद, पैडियों का सीढ़ियाँ और तो और काका का लल्लू कर दिया. आप देखिए जिन्होंने मुझसे पूछे अनेक शब्दों को बदल दिया, उन संपादक जी का नाम लल्लूलाल था. मजाक देखिए शाह जी को तो शाह जी रहने दिया, मगर शाहनी को शाह पत्नी कर दिया. मैंने बहुत समझाया कि हर शब्द का अपना सांस्कृतिक महत्व और अर्थ होता है. पेड़, वृक्ष, गाछ करते ही स्थान अर्थ सबमें परिवर्तन आ जाएगा. मैंने मना किया तो मुझे नादान मानकर मजे लेने के अंदाज में बातें करते रहे, पहला उपन्यास था सो सोचा होगा कि ये भला क्या जाने-समझे ये सब! मैंने कह दिया कि यह सब नहीं होगा. मैं क्यों मानती उनकी बात? मना कर दिया कि इसे ऐसे नहीं छापें. बताने लगे हमारा खर्चा हो गया है. मैंने पूछा-कितना? उन्होंने हिसाब बताया. जी, कुछ हजार थे—हाँ, दो या तीन. पर मैंने तय कर लिया था कि अब यहाँ नहीं छपवाना. आधा घंटा लगा मुझे यह तय करने में…! आपको पता है ‘चन्ना’ का अंश अज्ञेय जी ने छापा था ‘प्रतीक’ में. उन्होंने तो शब्दों के साथ कोई छेड़छाड़ या बदला-बदली नहीं की थी. तो क्या लल्लूलाल अज्ञेय जी से भी ज्यादा बड़े और ज्ञानी थे?
चुप रहकर उनका वह देखना और सोचना बता रहा था कि यादों के किसी हुजूम में से किसी एक खास को कोशिश करके बुलाया जा रहा है. आँखों की चमक और चेहरे की दमक में यकायक इजाफा हुआ है- ‘हाँ, शायद सही नाम साहित्य परिषद नहीं-हिंदी साहित्य सम्मेलन था. जी, शिमला में हुआ था वह सम्मेलन. सन् उन्नी-स सौ सैंतीस-अड़तीस की बात रही होगी. तब हम मुश्किल से दस-ग्यारह साल के थे. फ्रॉक पहनते थे तब. सम्मेलन में लेखक लोग आ रहे हैं. उन्हें माल रोड से गुजरता देखने का ऐसा चाव, ऐसा जोश कि हमारे स्कूल लेडी डार्विन के बच्चे हाथ में फूल लेकर सड़क के इधर-उधर खड़े हो गये. वहाँ तब मैंने निराला को आते देखा था. वह चाल उनकी वह अकड़ आज भी मुझे अच्छी तरह याद है. मैंने बाद में लिखा था उनकी उस चाल के बारे में-निराला ऐसे चल रहे थे जैसे वह सड़क अंग्रेजों की नहीं, उनके बाप की थी. भगवतीचरण वर्मा भी आये थे. हमने उनके ऑटोग्राफ्स लिये थे. ऑटोग्राफ्स अभी कुछ समय पहले तक मेरे पास सुरक्षित थे… ऐसी चहकती-सी खुशी जैसे इस समय वे वहीं खड़ी हों या जैसे वे ख़ुद निराला और भगवतीचरण वर्मा होकर उस सड़क पर चल रही हों. एक पल को लगा कि जैसे वे अपनी उसी उम्र में जा पहुँची हैं और निराला के ऊपर फूल बरसाने को उन्होंने अपने हाथ ऊपर उठाये हैं… लेकिन निराला की उस ऊँचाई को देख सहमी-सी खड़ी रह गयी हैं. हाथ से फूल छोड़ ही नहीं पायीं कि इस बीच निराला अपनी चाल चलते आगे बढ़ गये हैं. अब निराला के लेखकीय गर्व पर रीझा जा रहा है-पता है, निराला जी गांधी से मिलने गये! मिलने में देर लगी तो गांधी से ही भिड़ गये-’आपको पता है मैं निराला हूँ! हिन्दी का कवि और आप परिषद के सभापति हैं-फिर भी आपने मिलने में इतना समय लगाया…’ और आज देखिए आप कि क्याि हाल हो चला है. मंत्री, संतरी किस-किस से मिलने के लिए साहित्यकार अपना गौरव अपनी प्रतिष्ठा सब भुलाये दे रहा है. ख़ुद साहित्यकार साहित्यकार के सम्मान को ठेस पहुँचा रहा है. कुछ तो हद होती है न?
शिवनाथ जी टहलकर लौटे तो रास्ते में किसी से हुई मुलाकात के बारे में कृष्णा जी को बता रहे हैं. शिव जी के अंदर जाते ही मैं यूँ ही अचानक पूछ बैठा-‘क्या आपको भी जाना है टहलने?’ चौंकने जैसे अंदाज में कहा गया-’मैं..?’ और भी ज़ोर से ऐसे हँसी जैसे मेरे प्रश्न में से लाफिंग गैस निकलकर वहाँ फैल गयी हो! दरवाजे की घंटी बजी तो उठकर गयीं. अंदर आयी उस छोटी-सी बच्ची से पुचकारते-प्यार करते बातें की गयी हैं. अंदर आयी हैं-‘शिव, ये छुटकी पूछ रही है कि क्या लाना है? कुछ आना है क्या?’ शिव जी के मना कर देने को छुटकी के पास तक जिस तरह पहुँचाया गया है, उससे साफ है कि उतनी उस छोटी बच्ची से न कहने के क्षण में उन्हें उसकी भावना और खुशी का पूरा-पूरा ध्यान है.
यूँ वह इंटरव्यू जैसा तो कुछ नहीं था, पर हाँ बातें खूब होती रही थीं. चलने को हुआ तो जल्दी ही फिर मिल बैठने की उम्मीद बँधाते-से कहा गया-‘ठीक है, पाँच तक मैं फ्री हो जाऊँगी. आप फोन कर लेना!’ शायद वह मेरी कोई रियायत पा लेने या स्वीकृति को पक्का कर लेने जैसी कोई कोशिश रही थीं कि हिचकते से मैंने कहा-‘पढ़े-सुने के आधार पर मैं यहाँ आने तक बेहद डरा हुआ था. लेकिन फोन पर बातें हुई तो अच्छा लगा था. लगा कि आप बहुत अच्छी हैं. अब आज मिलकर वो जो आतंक-सा था, ख़त्म हुआ है. अब उम्मीद है कि पूरा एक दिन मुझे मिल ही जाएगा…! ‘हाँ, हाँ क्यों नहीं कहते-कहते यकायक चौंकते-से पूछा-’आतंक? किस बात का? आप तो उस्ताद हैं. उस्ताद को किसका डर?’
और फिर वह दूसरा एक दिन भी बहुत मुश्किल से, महीनों बाद मिला था. दर्जनों फोन, अनेक बार तिथि का तय किया जाना. उस बीच भी अनेक बार कहा गया कि ‘मुझे आप लिखकर प्रश्न भेज दें! मैं उत्तर दे दूंगी. ऐसे बोलने-से वो चीज़ बहतर रहेगी… अच्छा, अगले महीने फिर बात करते हैं… व्यस्तताएँ-मजबूरियाँ तमाम बातें!’ आज तो मेड सर्वेट भी है पर चाय ख़ुद बनायी गयी है. चाय के साथ-खाने की एक-दो नहीं, कई चीजें हैं. शिव जी भी साथ हैं. चाय पीते-पीते राजनीति, भ्रष्टाचार, व्यवस्था, नेताओं के आचरण, कथनी-करनी के अंतर, बुद्धिजीवियों की भूमिका पर बड़ी तकलीफ और खीझ भरे स्वर में बातें चल रही हैं! बोले जा रहे में का ताप और ताकत उनके शब्द-शब्द में, उनके चेहरे पर की मुद्राओं में साफ दिखाई दे रहा है. बोलना जो शुरू हुआ तो फिर काफ़ी कुछ साफ हुआ, बहुत कुछ उजागर होता गया- जी, शब्द की गरिमा, विश्वसनीयता ख़त्म हुई है. कैसे-कैसे शब्द बोलते हैं लोग! कैसी भाषा बोलते हैं. तकलीफ़ होती है! आपकी भाषा की क्रेडिबिलिटी तो होनी चाहिए! संसद में देखिए- शिखंडी, भगोडा न जाने क्या-क्या बोलते हैं एक-दूसरे को! खासतौर से विधानसभाओं या संसद में ऐसी भाषा! राजनीति के चरम हैं वहाँ. उनकी तरफ से ऐसी भाषा बोलना खतरनाक है. एकतरफा रवैया है आपका. आप दूसरे को सुनना नहीं चाहते. यह लोकतंत्र है. आपके चुनाव आपके सोचने का बेसिक हैं! वहाँ अगर गलत भाषा का प्रयोग होता है तो यह हिन्दी का अपमान है. अगर राजनीतिक पार्टियाँ ये नहीं समझ रहीं तो जो भी जिम्मेदार लोग हैं, वे जाएँ-संसद घेरें-अपना विरोध प्रकट करें! उन्हें बताएँ कि सत्ता हो, भूगोल हो-सब हो, लोग न हों तो आप किस पर शासन करेंगे? आपकी धाराएँ किस पर लागू होंगी? आप देखिए- किसी भी देश का एक झंडा होता है-एक राष्ट्रगीत होता है-देशवासी उनका सम्मान करते हैं. पहले फिल्मा के समापन पर राष्ट्रगीत होता था, अब बंद कर दिया गया! लोग खड़े नहीं होते-यह तौहीन है. दूसरी तरफ नेताओं की यह जिद देखिए कि झंडा यहीं फहराऊंगा! जिन्होंने आदर्शों को आखिरी साँस तक निभाया, उन मितभाषी चरित्रों को आपने विज्ञापन बनाकर रख दिया. आपका इस समय जलियाँवाला में क्या काम है भला? हर चीज़ को सस्ता बना दिया आपने. समझिए कि भाषा की एक गरिमा होती है. इनके यहाँ आदमी की होती है या नहीं, ये जानें-पर भाषा की होती है गरिमा!
देखिए, आज परिस्थितियाँ नई हैं. भाषा हर दिन बदलती है. भाषा वो होती है जो आप जीते हैं. भाषा जरूर बदलेगी. आज की परिस्थितियों में शास्त्रियों वाली भाषा नहीं चलेगी. ये काम रचनाकार लोग करते हैं. नए-नए पेशों- नई कार्य संस्कृति के साथ भाषा का नया मुखड़ा बनाना होगा. कोई कहे कि आज कुछ कहूँ, कल कुछ-उसमें कोई तर्क न हो, संगति न हो-तो फिर आप क्या पालेंगे? पूरे मासेज का दवाब है आप पर. शास्त्रों की भाषा से आपको उसे दबाना नहीं हैं नई भाषा बनानी होगी आपको! उसे पर्फेक्ट कीजिए आप.
अपने इंटीरियर को ही खोजता है कोई भी राइटर, आप व्यक्ति हैं, आप समाज से जुड़े हैं- आप गैरज़िम्मेदार कैसे हो सकते हैं? राष्ट्रीय परिदृश्य में जब हम देखते हैं-सैंतालीस-अड़तालीस का एक वक्ते था… ये लड़के नजर आते थे बडी संख्या में-थैले लटके होते थे. यों चलन बंगाल से आया. कहाँ से और कैसे हो रहा है अब यह? धीरे-धीरे ये हुआ कि वो वर्ग डेनिम पर आ गया. बीच में बहुत से हिप्पीज़ यहाँ आए. इंटरेक्शन हुआ- उन्होंने प्रभावित किया हमें! हम कैसे प्रभावित हुए, हमें यह भी जानना है.
भारतीय स्त्री जैसे भी ऊपर उठ रही है-उसमें एक चीज़ तय है कि पुराने पुरुष का ठाठ और स्त्री का ठेठ बदल रहा है. उसकी दुनिया पहले से बहुत बड़ी है. वह आज केवल चौके-चूल्हे तक महदूद नहीं है. वर्किंग वूमन है वह. उसने परिवार को साधा है. उसने अपने में ये क्षमताएँ-विशेषताएँ बताने-दिखाने की कोशिश की है जो एक वर्किंग पुरुष में होती है. या होनी चाहिए!
यह प्रवृत्ति पूरे वर्ल्ड में है-टोटो! यह सोच आदमियों में भी बढ़ रहा है. एकाकी रहना… परिवार को छोडना… कारण यही सोच कि परिवार की इतनी बड़ी जिम्मेदारियों के अलावा भी बहुत कुछ है, जिसके द्वारा आप अपने चुनावों, लक्ष्यों तक पहुँच सकते हैं. भारतीय मानसिकता इस सोच को आजादी नहीं, उच्छृंखलता कहेगी. जैसे नागरिक के अधिकारों का है- स्त्रियों की बात के समय हम भूल जाते हैं कि उसको भी ठीक वही अधिकार संविधान में है, जो पुरुष के हैं. आर्थिक स्वतंत्रता, इच्छा, चुनाव आदि से सम्बन्धित सब वही अधिकार. ये सोचिए कि किसलिए बढ़ रहे हैं ऐसे वाकये? कुछ चीजें अचानक उसके सामने आ गयी हैं. व्यक्ति सिर्फ़ परिवार नहीं है, यह चीज़ सामने आ गयी है और यह भी कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना काफ़ी आसान होता है. संयुक्त परिवार में यह बात थी कि जहाँ वह सुरक्षा देता था, वहीं आपके आत्मविश्वास को कमतर करता चला जाता था. देखिए, हमारे यहाँ का समाज पारम्परिक चीज़ों पर विश्वास करता है. लैस्बीयन रिलेशंस या अन्य रूपों के प्रभाव की जहाँ तक बात है- किसी भी मुल्क, सेक्स, लिंग पर यह प्रभाव ज़रूरी है. दूसरे मुल्कों में पुरुष-पुरुष के साथ रहने को लॉ प्रोटेक्शन भी मिला है. हम चाहें, न चाहें, पसंद करें, न करें- ऐसी चीजें सभी जगह उभरकर आएंगी… क्यों? क्योंकि समाज के शाश्वत मूल्य उभरकर आएंगे… मुझे लगता है इन चीज़ों के लिए प्रबुद्ध वर्ग को अपने में परिवर्तन लाना होगा. जी, देखने में, पड़ताल में- अगर ये चीजें गैरमामूली हैं, तब भी रहने वाली हैं. आप देखिए कि कुछ वर्ष पहले वर्किंग विमेन कितनी कम थीं… और आज?
नहीं, मेरी स्थिति इससे अलग कभी नहीं थी- मुझे इस पर गर्व है. मेरी सोच का पूरा हिस्सा उन चीज़ों ने तय किया है कि आप पर अनुशासन हो, सोचने-करने की आजादी हो. इतनी ज़िंदगी गुजारने के बाद सैद्धांतिक रूप से यह मालूम था कि ये सही है, ये सही नहीं है! इन चीज़ों को देखने की तालीम आपको जमाने ने भी दी है! मेरे ख्याल में… मुझे लगता है… इसके बारे में एक ही शब्द पर मुझे ऐतराज होता है- बोल्डनेस! आँखों में बहुत सारे सितारों की जगमग-जगमग, झिलमिल-झिलमिल करने लगी है- ‘ मित्रो मरजानी’ को जितनी अच्छी तरह हिन्दी संसार ने देखा- मुझे खुशी हुई! मेरे लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी कि उसके संवाद के पीछे की खामोशियों को उन्होंने देखा. वह बोल्ड नहीं, नेचुरल समझ रही है उसकी. सब चीजें थीं, पर आप देखना नहीं चाहते. एक लेखक होने के नाते मेरे सबसे अधिक नजदीक पाठक है! मुझे उसे देखना ही नहीं, समझना भी है. जब आप तीसरा ड्राफ्ट पढ़ते हैं तो अपने भीतर उसे जगाते हैं- तब आप उसी की निगाह से पढ़ते हैं.
हाँ, क्योंे नहीं! उससे पहले भी थी यह दृष्टि! ये एक माइंडसेट है कि हमने देखा और मान लिया कि यह ऐसा ही है. हमारी तालीम दूसरी थी कि ये ऐसा नहीं है. आप जिस दुनिया को आसपास या पर्दे पर देख रहे हैं- वो एकदम खुल गयी. इसलिए नहीं कि बाहरी प्रभाव है- इसलिए भी कि स्त्री के पास वो अधिकार है, यह चेतना, यह अहसास है…!
जिस संस्कृति की आप बात कर रहे हैं. या परम्परा ओर संस्कारशीलता की जहाँ तक बात है… या भारतीयता में- इतना और कोई विश्वास नहीं करेगा! लेकिन इन सबका आप जो संदश दे रहे हैं, वो कामर्शियल है. सीरियल्स में भारतीयता की जो छवि बना रहे हैं, ये भी हल्कापन है. आपका पूरा इतिहास है इसके पीछे. अनपढ़ लोगों को आवश्यक था अपने सांस्कृतिक संकेत दूसरे वर्गों से लेना! जो अनपढ़, अशिक्षित, पिछड़े, दलित थे, वो किससे संकेत लेते थे? जो पूरा लोक है- उससे! उच्च लोगों ने जो बनाया- ओ शास्त्र, खान-पान, जेवर, रिवाज आदि- सब उससे! उन्होंने लोकगीत-लोकसंगीत को स्थापित किया. हमारा जो कलाओं का शास्त्र है, उसे प्रश्रय दिया. अब जो हो रहा है, वह यह कि आज का उभरता हुआ धनिक वर्ग इन चीज़ों को तय कर रहा है. पोशाक में देख लें- एक लाख से दस लाख तक का लहंगा लेकर आप अपने लोगों को क्यात संदेश दे रहे हैं? एक समय आप खादी की पोशाक- अपना काता पहनते थे. वह गरीबों-पिछड़ों के साथ आइडेंटीफिकेशन था! लेकिन अब तो कहीं और ही है आइडेटीफिकेशन! नहीं, रिएक्ट करने से पहले यह तो जानें कि इसके केन्द्र में जो बात है, वह है अर्थ की. जहाँ तक इन सब चीज़ों को लेकर कुछ करने की जो बात है- जब तक वो समाज मौजूद न हो, जो इन चीज़ों को समझता है, तब तक बात आगे नहीं बढ़ सकती है! आप पसंद नहीं करते ये सब, पर आप देख तो रहे हैं. एक बात आपके अंदर घर कर रही है कि ये चीज़ हमारे परिदृश्य पर घर कर रही है. अब इसे हटा नहीं सकता कोई! टी.वी. पर देखें पहले एंकर की ड्रेस-सोबरायटी… फिर सलवार… फिर स्कर्ट… और फिर… वो ये सोचते हैं कि दर्शकों का यह राइट बनता है कि वो ये पोशाकें देखें! आपने भी देखा होगा- जैसे अब आज ये जो प्रदर्शनों के होने की बात है- पिछली शताब्दी में राजनीतिक पार्टियों के प्रदर्शनों में क्या बात थी… और अब क्या है? मुख्य यह कि घंटी वहाँ से बजती है! असहयोग, भूख हड़ताल, धारा एक सौ चवालीस को तोड़ना- तब कोई भी पार्टी विरोध प्रदर्शन के लिए यह सब करती थी. पर अब आज क्या कर रही हैं पार्टियां? प्रदर्शन-एडवरटाइजमेंट से! प्रदर्शन-एडवरटाइजमेंट भी आज बड़ी इंडस्ट्री हैं. आज तो संस्कृति भी एक इंडस्ट्री है. वो भी इनकी रेंज से बाहर नहीं है. पहले वो भी तो वक्तट रहा ही है कि जो पॉलिटिकल बर्बर थे, उनके यहाँ भी ओपिनली शराब पीने का चलन नहीं था! और आज सारी परम्परा, भारतीयता और संस्कारों के बावजूद- सिर्फ़ शहरों में ही नहीं, गाँव-कस्बों में भी शराब का क्याल हाल है? इन चीज़ों को जब एक तानाशाही तंत्र संभालेगा तो ऊपर से लगेगा कि आसानी से हो रहा है ये सब पर नीचे-नीचे पूरा नियंत्रण उनका होगा! अचानक नहीं हो रहा है ये सब- प्रोग्रेमिंग कर रहे हैं- सोच-समझकर!
जी, एक तो हमारी अपनी राजनीति और एक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से चल-बढ़ रहा है ये सब! विज्ञापन की दुनिया ने पूरे हिन्दोस्तान को अपने हाथ में ले रखा है. इस सबने हमारी भाषा का रूप भी बदला है. ऐसे शब्दों में विज्ञापन होता है- बहुत से ऐसे शब्दों को जगह दी है- जो पहले हमारे इस्तेमाल में नहीं थे. हाँ, हमारी भाषा का परिष्कार भी किया है. फिल्मों के क्षेत्र की जो अपील है, उससे कोई अछूता नहीं है, विज्ञापन के सम्बन्ध में यह कहना ज़रूरी है कि जो भारतीय मानस है, वो अपने चुनाव जानता है. उसके इस मानस को उसे यहाँ जो भूगोल, परिवेश, पर्व-त्यौहार, मौसम मिला है, उसने सेट किया है. हजारों सालों से मौसम के हिसाब से उसका बहुत कुछ निर्धारित होता रहा है. पर आज ये जो राजनीतिक हस्तक्षेप है. गहरे तक हस्तक्षेप है वो इन चीज़ों का संतुलन बिगाड़ रहा है.
असली बात यह है कि आप ज़िंदगी को पढ़ते कैसे हैं? आप वैसे पढ़ेंगे, जैसे पढ़ने की आप में तालीम मौजूद है. वो तालीम कुछ होती है- कुछ बनाई जाती है. जी, घर से, पड़ोस से, पुस्तकों से जो सिखाई जाती है!
कृष्णा सोबती जी की रचनाओं के कुछ पात्रों का जिक्र मैंने किया है. पात्रों के जिक्र के साथ ही उनके चेहरे पर एक खास क़िस्म का उजास, लाली मिला-सा, एक गुलाबीपन दमकता दिखाई दिया है. और अब वे अपने कुछ पात्रों और रचनाओं के सृजन से जुड़े कुछ पक्षों को उद्घाटित कर रही थीं- ‘अपने पात्रों के बारे में मैं पहले नहीं सोचती. मैं हस्तक्षेप नहीं करती. आपके हाथ में नहीं है यह. अगर मैं अपना वृत्तांत घुसाने-लिखने की कोशिश करूंगी तो बहुत-सा ऐसा मिक्स हो जाएगा, जो ज़रूरी नहीं होगा. इसलिए मैं उन्हें अपने आप बढ़ने-उभरने देती हूँ. हाँ, जैसे मैंने दिलोदानिश लिखा. ‘ज़िंदगीनामा’ के दूसरे हिस्से का पहला चैप्टर था. अब जैसे ‘ज़िंदगीनामा दो’ का हिस्सा है- मुझे दिल्लीं की तरफ आना ही था. उन दिनों कई चक्कर हुए मेरे उधर! मुकदमे का भी मामला था! उन दिनों क्रांतिकारियों से जुड़े बहुत से स्थान, किले आदि सब देखे. अपने प्रेशर के समय सोचा इन चीज़ों को ले आने का. अपनी तरह से लिखना शुरू किया. देखना चाहा कि जो संयुक्त परिवार है, वो किन चीज़ों में से इतने बड़े परिवार का संतुलन बिठाता है. मैं संयुक्त परिवार की पौध हूँ- मैं देख सकती हूँ. संयुक्त परिवार की कुछ ऐसी खूबियाँ एकल परिवार की भी वो खूबियाँ सजगता, आत्मावलोकन आदि देखने की मेरी जरूरत है. अब जैसे वकील साहब के साथ का सम्बन्ध है… मेहकबानो है- उसके करेक््ट र में अपने आदर्श, सोच, इनसाइट होनी चाहिए! पर ऐसी औरत का करेक््ट र क्या हो, अगर यह समझ मुझमें नहीं है- तो अभी लेखक का रूप कम है मुझमें. इसका सीधा अर्थ है कि आपके अंदर अन्तर्दृष्टियाँ नहीं हैं. बहुतों ने आलोचना की कि पति के घर की तरह रही वह पर मुझे लगा कि उसका फैसला सही है. ये उसका फैसला है. मुझे आज भी लगता है कि उसका फैसला सही है. मैंने इतनी तालीम जरूर ली है कि मैं अपनी रिक्रप्ट को, टेक्स्ट को दूसरे की निगाह से पढ़ सकती हूँ. एक छोटे लेखक के रूप में यह तालीम है मेरी कि जब कुछ कहने को न हो, मैं कलम नहीं उठाती. जी, कुछ बड़ा कहने को न हो, तो नहीं उठाती कलम. सात-आठ साल तक लग जाते हैं इस इंतज़ार में. बड़ी बात है कि जब आप पिछला काम ख़त्म कर नया शुरू करते हैं- तो उतने ही नये होते हैं. अपने पात्रों के प्रति कृतज्ञ, रीझी, न्यौछावर सी कह रही हैं- ‘कोई चीज़. आपकी सामर्थ्य नहीं बढ़ा सकती. ये आपकी नहीं, उन पात्रों की खूबी है. जो लोग अपनी कहानी कह नहीं सकते, लिख नहीं सकते, मैं उसको प्रस्तुत करने की निमित्त भर हूँ, हम उनकी ज़िंदगी की मुश्किलों-कठिनाइयों, जीवन… जोश… सबसे जो ताकत पाते हैं- वो ही उन्हें बनाती रचती है- वो ही रचना की खूबी है.
‘ऐ लड़की’ को लम्बी कहानी और उपन्यास दोनों रूपों में प्रकाशित-विज्ञापित किए जाने की बाबत पूछा तो कहा गया- ‘मैं यह बात साहित्य के ज्ञाता पर छोड़ती हूँ. ज़िंदगी का एक टुकड़ा आपने शुरू किया- वह अपने आप एक जगह रुक गया! अब आप उसे कहानी-उपन्यास जो भी कहें! यह प्रकाशक पर भी है कि उसने क्या कहकर दिया. वैसे लम्बी कहानी है वह…
जी… जैसे ‘ऐ लड़की’ थी- उसमें मेरे जो बीज वर्ड्स थे… बहुत पुरानी बात है- अठासी की… मेरी माँ भारी स्ट्रांग औरत थी. बड़ी ताकत थी उनमें! हाँ तो, वो गिर गई थीं. इंटेंसिव केयर यूनिट में थीं. मैं गई थी उनके पास! वो आई.सी.यू. से बाहर आईं तो कह रही थीं- चिराग जलता रहेगा, चिराग जलता रहेगा,..! यही वो चीज़ थी, जिस पर मुझे लगा कि लिखना है. पर ये फिकरा कहानी के बाहर खड़ा रह गया. दिया- ये शब्द उनका नहीं था- पर उसें प्रयुक्त किया गया. विवेक इंस्पीरेशन बने वे शब्द- पर रचना के बाहर ही रहे. मुझे इसके लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी. जिस जगह भी मुझे थोड़ी-भी मगर हो तो हैं आगे नहीं बढ़ने देती रचना को- वहीं ख़त्म कर देती हूँ. इसका मतलब क्याै है कि आप गलत टाइम पर गलत चीज़ को शुरू कर रहे हैं.
जी, कहानी लिखना बहुत मुश्किल है-छोटी कहानी लिखना! क्रिकेट के खेल की तरह ये लगा छक्का नहीं तो आउट! बीच का हिसाब नहीं! उपन्यास-एक लोकतांत्रिक कला है, विधि है. उसमें तो इतने पात्र एक वक्त पर, एक ही मेज पर अपने अस्तित्व को बनाए हुए हैं… और हर आदमी, हर पात्र को अपनी बात कहने का हक है! इससे कोई लेखक अपनी आँख नहीं चुरा सकता. इसमें सबसे ज़रूरी बात है कि आप इसके छोटे से छोटे और बड़े से बड़े पात्र में कोई फ़र्क नहीं करेंगे. जिसकी जितनी जगह है, जिसका जितना अधिकार है, वो आपको अंकित करना है. रहस्य की बात बताऊँ? …मैं एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति तक कोई फ़र्क नहीं करती! सबको बराबरी से महत्व! इनसिग्नीफिकेंट भी उतना ही महत्वपूर्ण है… ये एक बड़ा ताना-बाना है, जो यहाँ बुना जा रहा है. यहाँ हुई कोई भी ग़लती पाठक भी माफ़ नहीं कर सकता. और मैं भी नहीं कर सकती. जो जिसकी क्षमता है, उसके मुताबिक़ उसे अहमियत मिलनी ही है.
नहीं, तय कुछ नहीं किया जा सकता… ये तो पात्र की मनःस्थिति, रीज़निंग, जीवन-रवैया-ये सब मिलकर उसके शब्दों और भूमिका को तय करते हैं. कई बार कई क़िस्म की ग़लती होती रहती हैं… या पर्दे के पीछे होती हैं… सुधर जाए तो आप ख़ुदा का शुक्र करते हैं-न सुधरे तो आप अपने को माफ़ नहीं कर सकते हैं… !
हाँ मेजर ग़लती… ‘दिलोदानिश’ में- मैंने उसमें यूँ ख़त्म कर दिया-वकील साहब जा रहे हैं. उन्हें पता लगता है कि उनका कज़िन था. दस-बारह साल पहले. उनकी धुँधली नज़र से कह रहा है-’चलो आओ, ये तो थोड़ी देर का अंधेरा है. फिर तो खुले आसमान पर ख़ूब जमेगी. बिरादरी के कई लोग यहाँ आए हुए हैं… मुझे लगा कि इसके बाद मुझे कुछ नहीं कहना है बंदे ने ख़ुद कह दिया. दस-पंद्रह दिन बाद में ख़ुद रचना का पाठ करती हूँ. काफ़ी मेहनत की चीज़ थी- मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी. रात को ख़यालों में कुछ रहा होगा कि इतना बड़ा वकील क्या कोई ऐसा होगा जिसने अपनी वसीयत न लिखी हो और मर गया होगा! मुझे लगा कि वो तब तक नहीं जा सकता, जब तक वसीयत न लिखे. लगा कि शायद मुझे वसीयत लिखनी नहीं आती होगी- इसलिए नहीं लिखी मैंने. तो फिर मैं इसके लिए बैठी. बैठी तो अपने आप यह आया ज़िंदगी शमाए हयात है- मुकर्रिरवक़्त तक चलती रहती है… पता नहीं, ये शब्द कहाँ से आ गए- मुझे नहीं मालूम. पर जब सस्वर पढ़ा तो मुझे लगा कि इसका जो आनंद है, वो कहीं पतला है- किताब इतनी बड़ी थी…!
वो एक मिस्टीक है- रहस्य है. लेखन हो जाता है तो ठीक है. उतरने जैसी ओ बात है- वो तो सिर्फ़ कविता उतरती है, गद्य नहीं! गद्य एक परिश्रम है- अपनी पूरी रचनात्मक ऊँचाई से उसे ऊपर उठाना, उसे भाषा में गूँथना- उसे जो अभी तक सोचना नहीं था… इसलिए लेखक को ज़रूरी है कि वो बार-बार पुरानी चीज़ों को दोहराने से बचे… भाषा, मुहावरे, सोच, अनुभूतियों को दोहराएंगे तो नई चीज़ पैदा नहीं होगी. भाषा के सहारे कितना चलेंगे आप? आपके अंदर इतनी बड़ी दुनिया नहीं होती कि हर रोज़ नई किताब लिख लाएँ! नया कुछ नहीं. .. फिर भी आपको लिखना ही है, यह किसी ने नहीं कह रखा. ज़िंदगी में और भी बहुत से काम हैं…
भाषा में एक सेंसिबिलिटी है. हम जैसा सोचते हैं, जैसे पढ़ते हैं, जैसा दूसरों से, बाहरी दुनिया से भाषा को आत्मसात करते हैं- उस सबकी हमारी भाषा के निर्माण में भूमिका होती है. मैं भाषा पर कभी सोचकर मेहनत नहीं करती. मेरी सोच के साथ भाषा चलने लगती है. जी, वजह है- बहुत बड़ी … दुनिया के साथ सम्पर्क अलग तरह से .. डिफ़रेंट क््लाेसेज से…
इस्पीरेशन…? आप एक ज़िंदगी को देखते हैं…! अगर मैं लेखक की निगाह से सिर्फ़ स्वयं को देखूँ और दूसरों को दूसरी त्तरह देखूँ- तो बस साधारण चित्र प्रस्तुत करूंगी. अपने स्वभाव का भी असर होता है इस पर. मैं सजावटी चीज़ों पर यक़ीन नहीं करती. ऊपर की बनावट में मेरी दिलचस्पी नहीं है. वो पात्र कहाँ से आया, उसकी बनावट, उसकी पोज़ीशन क्या है- इस सबका ख़याल रखना होता है. ‘दिलोदानिश’ की भाषा पर किसी ने कुछ कहा था- मैंने उसमें दिल्लीप की भाषा को नई दिल्लीे की नज़र से देखा. दोनों में कम फ़र्क है- पर बड़ा फ़र्क है यह. यहाँ पहले जो हिन्दी इस्तेमाल होती थी, वह एक तरह से अंग्रेज़ी का अनुवाद होती थी-नीट, सीधी-सादी लाग-लपेट कुछ नहीं- मैं अंदर आ सकती हूँ… या यह कर सकती हूँ. मैं चीज़ों को भी सीधे से करने वाली हूँ. मैंने जब वहाँ की भाषा को देखा, तो देखा. संयुक्त परिवार की भाषा-शिष्टाचार सब एकल परिवार से बिलकुल अलग था. पूरे हिन्दोस्तान के मुक़ाबले में उनका अपना जो मुहावरा था, मुझे उसे जानना था. पंजाबी की भाषा, उनका शिष्टाचार का तरीक़ा, नपा-तुला होना- पंजाबी की तरह नहीं, लेखक की तरह देखना था वह सब. मैंने देखा…. ये कंट्रास्ट अगर नहीं देखेंगे तो आप किताबी भाषा लिखना शुरू कर देंगे.
ख़ामोशी के कुछ पल और फिर सुनाई पड़ा- ‘अब थक गए…! क्यों? …बस!’ कहने के साथ वे उठ खड़ी हुई हैं. प्रश्न लिखकर भेजने की बात फिर ज़ोर देकर कही गयी है- ‘देखिए, संवाद भी घटित होता है. आप इसे करके दिखा लेना… नहीं, आपका कुछ नहीं बदलूंगी. जी, ये संवाद आधा आपका होता है, आधा लेखक का… नहीं, मैं लिखकर ठीक तरह कह पाऊँगी. बोलकर कहो तो लगता है, कुछ रह जाएगा. आप देखिए, जब मुझे बोलना होता है तो मैं जनाबेसदन या बिरादर, साहिब, हजरात भी ऊपर लिखकर ले जाती हूँ.’
मैंने एक और दिन समय दिए जाने का आग्रह किया है. वे हँसती हैं- हाँ जी, ठीक है- कहती-कहती, बड़ी उसक भरी फुर्ती से चलकर गेट तक आई हैं. मेरे हाथ कदमबोसी के लिए आगे बढ़े हैं… पीछे हटते हुए बचने की कोशिश हुई है- मुझे रोका गया है- ‘नहीं, नहीं मैं पैर नहीं छुलाती. कोई पैर छुए तो मुझे कुछ होता है. सच में होपलेस…’ अपना हाथ आगे बढ़ाकर कहा गया है- ‘हाथ मिलाइए! उनके आदेश के सम्मोहन में बँधी-खिंची मेरी हथेली उनके हाथ तक की यात्रा के लिए लौट पड़ी है.
लिफ्ट से नीचे आते हुए मुझे ख़ास तरह का भरा-पूरापन, रोशन-रोशन, चहकता-महकता-सा महसूस हो रहा था. कृष्णा सोबती जी के बीच-बीच में तकिया कलाम की तरह बोले गए कुछ वाक्यांश अब भी मेरे कानों में गूँज रहे थे- ’एक इम्पोर्टेंट बात यह है… एक रहस्य की बात बताऊँ… आपको सुनकर ताज्जुब होगा… शायद. मुझे लगता है… मेरी हथेली और उँगलियाँ थीं कि अपनी खुशी, अपनी उपलब्धि के अहसास को चीख-चीखकर मुझे सुना रही थीं- जैसे अपने सौभाग्य पर इठला रही हों वे- ‘हाँ, हमने अभी-अभी अविस्मरणीय, मज़बूत, सुंदर, जीवंत पात्रों के सर्जक की बेहद कोमल ख़ूबसूरत हथेली और उँगलियों की कदमबोसी की है…
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