संस्मरण | लफ़्ज़ों की मूसीक़ी के क़ायल मानक दा
‘रौशनदान’ जावेद सिद्दीक़ी के रेखाचित्रों का संग्रह है. इसी किताब में शामिल सत्यजित राय पर उनका यह रेखाचित्र राय की शख़्सियत के साथ ही फ़िल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनने की प्रक्रिया का दस्तावेज़ भी है. यह पहली फ़िल्म थी, जावेद सिद्दीक़ी ने जिसके लिए संवाद भी लिखे थे.
अक्टूबर, 1976 तक सत्यजित राय से मेरा ताल्लुक़ बस इतना था कि मैंने उनके बारे में दो-चार लेख पढ़े थे और आठ-दस फ़िल्में देखी थीं. फ़िल्में जितनी थीं देखीं, बहुत अच्छी लगीं क्योंकि ऐसी फ़िल्में पहले कभी नहीं देखी थीं. मुझे उनकी ‘जलसाघर’ बहुत पंसद आई थी. कुछ तो बेग़म अख़्तर की वजह से और कुछ इसलिए कि मैं भी उन्हीं हवेलियों में पला हुआ था, जहाँ किसी ज़माने में वक़्त थम कर बैठ गया था और फिर ईंट-ईंट बिखेर के बाहर निकल गया था.
उनकी फ़िल्मों के मुकालमों (संवादों) की ज़बान समझ में नहीं आती थी, मगर तस्वीरों की बोली अच्छी तरह समझ लेता था. उनकी फ़िल्मों का हर फ़्रेम ज़िंदगी से इतना क़रीब लगता था कि साँस लेता हुआ महसूस होता था.
उस ज़माने में जब इमरजेंसी लग चुकी थी और बहुत से पत्रकार इज़्जत बचाने के लिए घरों में बैठ गए थे. मैं भी अख़बार छोड़ चुका था और वक़्त काटने के लिए अबरार अल्वी के पास चला जाता था.
उसी ज़माने की बात है यानी अक्टूबर 1976 की जब शम्अ ज़ैदी का फ़ोन आया और उन्होंने कहा, ‘ए जावेद! वे सत्यजित राय तुमसे मिलना चाहते हैं.’
मैं हैरान हो गया, ‘मुझ से. वे मुझे क्या जानें!’
‘मुझे ये सब नहीं मालूम, प्रेसिडेंट में ठहरेंगे. परसों शाम को चार बजे मिल लेना.’ उन्होंने सूखा-सा जवाब दिया और फ़ोन बंद कर दिया.
बात सोचने जैसी थी. राजा अदने आदमी से क्यों मिलना चाहेगा, शम्अ बीबी ज़रूर कोई शरारत कर रही हैं. मेरी अज़ीज़तरीन दोस्त शम्अ ज़ैदी बड़ी बा-क़माल ख़ातून हैं. वे संजीदगी से झूठ बोलने और निहायत ग़ैर-संजीदगी से सच बोलने की सलाहियत रखती हैं. उनके चेहरे, आवाज़ या अल्फ़ाज़ से ये पता लगा लेना कि उनके इरादे क्या हैं, निहायत मुश्किल, बल्कि नामुमकिन है. इसलिए जब फ़ोन आया, तो यक़ीन करने से पहले देर तक सर खुजाना पड़ा. फ़ोन क्या था, शम्अ ने ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंक दिया था और मैं लहर-लहर पर परेशान हो रहा था.
फ़रीदा ने परेशानी की वजह सुनी, तो हँस पड़ीं, ‘अरे तो इसमें हैरान होने की क्याह बात है. तुम इतने अच्छे मज़ाहिया (हास्य) कॉलम लिखते हो, कोई पंसद आ गया होगा. फ़िल्म बनाना चाहते होंगे.’
शौहरों को बीवियों की ख़ुशग़ुमानी आम तौर पर अच्छी लगती है. मगर मसला ऐसा था कि मैं झुंझला गया. तो उन्होंने कहा, ‘ओफ्फो! इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है. होटल में फ़ोन करके देख लो, अगर रे साहब हैं, तो शम्अ सच बोल रही हैं और अगर नहीं हैं तो उनका जोक समझ के भूल जाओ.’
मश्वरा कुछ इस क़दर सही था कि मैंने चुपचाप मान लिया और फ़ोन किया तो मालूम हुआ कि रे साहब तशरीफ़ ला चुके हैं. फ़िलहाल रूम में नहीं हैं.
मैं और ज्यादा नर्वस हो गया. दिल के धड़कने की आवाज़ चारों तरफ से आने लगी, ‘यार! ये चक्कर क्या है. मैं शम्अ से पूछना चाहता था, मगर उनका क्या भरोसा डाँट दें तो.
लेकिन एक बात साबित हो चुकी थी. वह शरारत नहीं कर रही थी. सत्यजित राय बंबई में थे, होटल प्रेसिडेंट में थे, कमरे में नहीं थे तो क्या हुआ.
शम्आ ने चार बजे का टाइम दिया था. मैं तीन ही बजे कोलाबा पहुँच गया, जहाँ प्रेसिडेंट है. देर तक लॉबी मेँ घूमता रहा, जहाँ चार-पाँच दुकानें थीं. जब फ़्लोरिस्ट के हर फूल को देख चुका और कश्मीरी कालीनों के सारे डिज़ाइन याद हो गए, तो लॉबी के फ़ोन से नंबर डायल किया. दूसरी तरफ़ से एक गरज़दार मगर ख़ुशगवार आवाज़ सुनाई दी – ‘यस्स’
मैंने अपना नाम बताया ही था कि आवाज़ आई, ‘कम अप!’ और फ़ोन बंद हो गया.
सत्यजित राय आलमी सिनेमा में बहुत ऊँचा मकाम रखते थे. मगर वह ख़ुद भी उतने ऊँचे होंगे, मैंने कभी सोचा नहीं था. जब छह फ़ीट चार इंच के रे साहब ने दरवाज़ा खोला, तो मेरा मुँह भी खुल गया और देर तक खुला रहा.
रे एक शानदार शख़्सियत के मालिक थे. लंबे थे, मगर दुबले नहीं थे.सांवला रंग, कुशादा पेशानी, सलीके से जमे हुए बाल, बड़ी-बड़ी रौशन आँखें, ऊँची सुतवाँ नाक, मुस्कराते हुए होंठ, ठोड़ी जरा चौड़ी थी. कहा जाता है, ऐसी ठोड़ी वाले बहुत मेहनती और मुस्तकिल मिज़ाज होते हैं.
मैंने आदाब किया. उन्होंने सर हिलाकर जवाब दिया और कुर्सी की तरफ इशारा किया. मैं कुर्सी के कोने पर टिक गया. वे बेड पर दीवार से पीठ लगाके बैठे और अपनी चमकती आखों से, जिनमें हल्की-सी मुस्कराहट भी थी, मुझे देखने लगे. चश्मे की डंडी उनके मुँह में थी जिसे वे धीरे-धीरे चबा रहे थे. वे तक़रीबन एक मिनट तक बिना कुछ बोले मेरा जायजा लेते रहे, फिर इंग्लिश मेँ पूछा, ‘मैंने सुना है तुम बहुत अच्छी कहानियाँ लिखते हो.’
मैंने अर्ज किया, ‘कहानियाँ कम, कॉलम ज्यादा लिखे हैं. पता नहीं, कैसा लिखता हूँ. आप कहें तो अपनी कोई तहरीर तर्जुमा करा लूँ. आप देख लें.’
उनकी मुस्कुराहट कुछ ज्यादा फैल गई, बोले, ‘कोई ज़रूरत नहीं. मैं तुम्हें देख सकता हूँ और इतना काफ़ी है.’
ये कह कर वे उठे, तकिए पर रखा एक प्लास्टिक का फ़ाइल उठाया और मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहने लगे, “ये मेरी फ़िल्म का स्क्रिप्ट है और तुम इसके डायलॉग लिख रहे हो.’
पता नहीं, मुझे क्या हुआ! दिमाग़ कई हज़ार मील फ़ी घंटे की रफ़्तार से घूम गया. कुछ बोला ही नहीं गया. बड़ी मुश्किल से ख़ुद को संभाला और हाथ में पकड़े फ़ाइल पर नज़र डाली तो सफ़ेद प्लास्टिक में से मोटे-मोटे स्याह हुरूफ़ दिखाई दिए – फ़ॉर योर आईज़ ओनली.
मगर आखें थीं कि बंद हुई जा रही थीं. बड़ी मुश्किल से कहा, ‘थैंक यू सर, आय एम ऑनर्ड सर’.
वे उठे और दरवाज़ा खोल दिया,’मैं तेहरान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में जा रहा हूँ. वापसी पर तुम्हें फ़ोन करूँगा.’
‘जी’, मैंने कहा और स्क्रिप्ट छाती से लगाकर भाग खड़ा हुआ. जब होटल की लॉबी मेँ पहुँचा तो होश ज़रा ठिकाने आए.
ये हुआ क्या मैं और डायलॉग! और वह भी सत्यजित राय की फ़िल्म के अरे बाप रे!
जेब में हाथ डाल कर पैसे गिने. तो हमेशा की तरह कम ही थे. मगर मैंने कल की नहीं सोची और कोलाबा से टैक्सी पकड़ी और जुहू तारा पहुचा, जहाँ शम्अ रहती थीं. 25 मील लंबा रास्ता कट गया, मालूम ही नहीं हुआ, क्योंकि दिमाग़ कहीं और था. ज़ेहन में सवालों की ऑधी चल रही थी जिसमें जवाबों के पैर उखड़े जा रहे थे.
महमूद के कहने पर अबरार अलवी के लिखे सीन में काटछाँट कर देना और ज़रूरत पड़ने पर एकाध सतर का पैबंद लगा देना एक अलग बात है और बाक़ाइदा मुकालमानिग़ारी (संवाद लिखना) करना अलग. अच्छा भी लग रहा था और डरता भी जाता था कि पता नहीं शम्अ ने कहाँ फंसा दिया है.
मैं पहुँचा तो वो मुस्करा रही थीं. उन्होंने अपनी ख़ास अदा से पलकें झपका के पूछा, ‘हो गई मुलाकात.’
मैंने स्क्रिप्ट उनके हाथ में थमा दिया, ‘हो गई ये देखो और अब बताओ कि डायलाग कैसे लिखते हैं?’
शम्अ ने बड़े अदब से फ़ाइल को देखा. प्यार से उसके ऊपर हाथ फेरा और बोलीं. ‘डोंट बी सिली! डायलॉग कौन सा मुश्किल काम है.’
मैं भड़क गया. ‘अरे यार, तुम भी कमाल करती हो. प्रेमचंद की कहानी, सत्यजित राय का स्क्रीन प्ले. अगर ज़रा-सी भूल चूक हो गई, तो लोग पकड़ के मारेंगे.’
‘कोई नहीं मारेगा, कुछ नहीं होगा.’
किस्सा मुख़्तसर तय ये पाया कि हम दोनों मिलकर लिखेंगे. ज़बान मेरी, तज्रिबा उनका. शम्अ को तज्रिबा के साथ सलीका भी था. वे कुछ छोटी-मोटी फ़िल्मों और ‘गर्म हवा’ में अपना हाथ साफ़ कर चुकी थीं. मगर यहाँ ख़ालिस उर्दू लिखनी थी. सबसे पहले हमने स्क्रिप्ट पढ़ा.
मानकदा ने (वह लोग जो सत्यजित राय के क़रीबी थे, मानकदा कहा करते थे. मानक उनका घरेलू नाम था) एक छोटी-सी कहानी को काफ़ी फैला दिया था और उस वक़्त की सियासत को बड़ी ख़ूबसूरती से कहानी के अंदर ले आए थे. सबसे बड़ी ख़ूबी ये थी कि उन्होंने अवध के आख़िरी ताजदार वाजिद अली शाह का मज़ाक उड़ाने के बजाए उनकी कमज़ोरियों का ज़िक्र किया था, मगर उसे एक ऐसा बादशाह दिखाया था, जो अपनी कमज़ोरी की वजह से नहीं, बल्कि अंग्रेज़ों की मक्कारी की वजह से सल्तनत खो बैठता है.
हमारे सामने बड़ा मसला ये था कि अगर हम वही ज़बान लिखते हैं, जो उस वक़्त राइज थी, तो आज के फ़िल्म देखने वाले समझ ही नहीं पाएँगे, क्योंकि मुहावरा बदल चुका है. अल्फ़ाज़ और उनका इस्तेमाल भी वह नहीं है, जो था. चुनांचे हमने तय किया कि हम एक ऐसी ज़बान लिखेंगे, जो आसान और आमफ़हम होगी. मगर सुनते हुए ऐसा लगेगा जैसे वह डेढ़ सौ साल पहले की उर्दू है. हमने ये भी तय किया कि किरदारों की ज़बान मुख़्तलिफ़ होगी और उसमें समाजी, कल्चरल और कारोबारी झलक दिखाई देगी.
अगर आप ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के मुकालमों की ज़बान पर ग़ौर करें, तो आपको एहसास होगा कि मीर और मिर्ज़ा की ज़बान अलग है. वाजिद अली शाह के लफ़्ज़ दूसरे हैं. इसमें ऐसी नग्मगी है जो बंदिश में आ जाए, तो ठुमरी मालूम होगी. दरबारियों की ज़बान पर फ़ारसी का असर है, अवाम अवधी बोलते हैं और ख़वातीन कहावतों और मुहावरों से सजी हुई रवाँ-दवाँ बोली बोलती हैं. हमने कोशिश करके पूरी फ़िल्म में ऐसा कोई लफ़्ज़ नहीं इस्तेमाल किया, जो कानों को बुरा मालूम हो.
उर्दू का कमाल ये है कि इसमें एक ला-महसूस मूसीक़ी है. अगर क़लम किसी जानकार के हाथ में है, तो लफ़्ज़ नहीं, सुर बन जाते हैं. मेरे और शम्अ के जोश का आलम ये था कि अपना होश नहीं था. रोज़ाना बारह-चौदह घंटे काम करते, मगर ज़रा भी थकान का एहसास नहीं होता.
स्क्रिप्ट धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया और बहुत-से राज़ों से पर्दा भी उठता गया. मालूम हुआ कि सत्यजित राय तक मेरा नाम पहुँचाने वाली शम्अ ही थीं और इस सिफ़ारिश के पीछे एक कहानी थी.
जब प्रोड्यूसर सुरेश जिंदल ने मानकदा को राज़ी कर लिया कि वे हिंदी या उर्दू में फ़िल्म बनाएँगे और उन्होंने प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाडी’ का इंतिख़ाब किया, तो सवाल पैदा हुआ कि इसके मुकालमे (संवाद) कौन लिखेगा. हर अच्छे स्क्रीनप्ले की तरह ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में भी मतलब और ज़रूरत को समझाने के लिए अंग्रेज़ी मुकालमे लिख दिए गए थे, मगर वे मुकालमे नहीं थे, वे तो इशारिए थे जिनकी मदद से उसी तारीख़ी फ़िल्म के मुकालमे लिखे जाने थे.
सुरेश जिंदल का ख़याल था कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के डायलॉग राजेंदर सिंह बेदी से बेहतर कोई लिख ही नहीं सकता. फ़िल्म के एक हीरो थे संजीव कुमार. वे चाहते थे कि गुलज़ार से लिखवाए जाएं, जो अपनी ज़बान की सादगी और मिठास के लिए मशहूर हैं. मगर मानकदा के पुराने साथी और दोस्त आर्ट डायरेक्टर बंशीचंद्र गुप्त और शबाना की नज़र में कैफ़ी आज़मी के अलावा कोई दूसरा इस फ़िल्म के साथ इंसाफ़ नहीं कर सकता. उम्मीदवारों में एक नाम और भी था अख़्तरूलईमान का. उनका नाम शायद अमजद ख़ाँ ने तज्वीज किया था जो वाजिद अली शाह का किरदार अदा कर रहे थे और अख़्तर साहिब के दामाद थे.
मानकदा के सामने सारे नाम रखे गए. काफ़ी मुबाहसे हुए. मगर उनकी राय सबसे अलग थी. उन्होंने कहा. बेदी साहब और गुलज़ार साहब बहुत अच्छा लिखते हैं, मगर पंजाबी हैं और फ़िल्म का पस-मंज़र लखनऊ है, जिसे वह नहीं जानते. अख़्तरूलईमान इसलिए क़ाबिले-क़बूल नहीं थे कि मानक दा को बी.आर.चोपड़ा की फ़िल्मों जैसे संवाद नहीं चाहिए थे. ले-दे के रह जाते थे कैफ़ी साहब. उर्दू दुनिया का बड़ा नाम, उत्तर भारत के रहने वाले और ‘हीर-राँझा’ और ‘गर्म हवा’ जैसी फ़िल्मों की मुकालमानिगारी का तजुर्बा भी रखते थे.
फ़ैसला हुआ कि ‘शतरंज के खिलाडी’ के डायलॉग कैफ़ी साहब लिखेंगे. चुनाँचे एक मुलाकात का बंदोबस्त किया गया. मगर वह मुलाकात जिसे फ़िल्म और अदब का संगे-मील बनना था. बुरी तरफ फ़्लॉप हो गई. क्योंकि उसमें ‘ज़बाने-यार मन तुर्की व मन तुर्की नमी दानम’ वाली सूरते हाल पैदा हो गई. कैफ़ी साहब ने सारी ज़िंदगी उर्दू के इलावा किसी और ज़बान को मुँह नहीं लगाया था और सत्यजित राय बाबू बाँग्ला और इंग्लिश के इलावा कोई और ज़बान न बोल सकते थे, न समझ सकते थे.
इस टेढे मस्अले के बहुत-से हल सोचे गए जिनमें से एक ये भी था कि शबाना तर्जुमान (प्रवक्ता) का काम करें. वह अपने अब्बा के लिए ये तकलीफ़ सहने को तैयार भी थीं. मगर रे साहब का कहना था कि राइटर और डायरेक्टर का रिश्ता मियाँ-बीवी के रिश्ते जैसा होता है और ये बिना शिरकते-ग़ैर होना चाहिए. उन्होंने कहा, ‘मुझे कोई नाम वाला अदबी या फ़िल्मी राइटर नहीं चाहिए. नया आदमी भी चलेगा. बस उसे ज़बान आनी चाहिए.”
और यही वह मौक़ा था. जब शम्अ ने मेरा नाम लिया और बहुत-से लोगों के नाक-भौं सिकोड़ने और शम्अ की नासमझी पर एतराज करने के बावजूद सत्यजित राय ने मुझसे मिलने का इरादा ज़ाहिर किया.
ये पस-मंज़र (पृष्ठभूमि) था. पेश-मंज़र ये था कि हम दोनों ने आठ ही दिन में सारे डायलॉग लिख डाले और एक दूसरे की ख़ूब कमर ठोंकी, मगर दिल डर रहा था, क्योंकि असली इम्तिहान तो बाक़ी था. मानकदा के सामने पेशी.
कोई दो दिन बाद वे तेहरान से लौटे, तो फ़ोन किया – ‘तुमने स्क्रिप्ट पढ़ लिया.’
‘पढ़ लिया? सर हमने तो लिख लिया!,’ मैंने ख़ुश होकर कहा.
फ़ोन पर उनकी हंसी सुनाई दी, ‘रियली..दैट इज़ माइ स्पीड यंगमैन.’
तय पाया कि दो दिन बाद हम मिलेंगे और स्क्रिप्ट सुनाया जाएगा.
दो दिन बाद मैं और शम्अ होटल प्रेसिडेंट पहुँचे, तो हैरान रह गए.
कमरे में जलसा जमा हुआ था. फ़र्श के ऊपर दीवार से कमर टिकाए कोई आधा दर्जन बुज़ुर्ग तशरीफ़फ़र्मा थे. उनमें से कुछ लोगों को मैं जानता था. कुछ सूरत-आशना थे. प्रोफ़ेसर निज़ामुद्दीन सेंट ज़ेवियर में उर्दू-फ़ारसी डिपार्टमेंट के हेड थे. एक साहब अंजुमने इस्लाम रिसर्च इंस्टिट्यूट के निगरां थे. एक और बुज़ुर्ग एक अदबी रिसाले के एडिटर थे. बाक़ी हज़रात भी कुछ इसी क़बील के थे. उर्दू के उन माहिरीन की सूरत देखते ही समझ में आ गया कि इन लोगों को मेरी और शम्अ की क़ाबिलियत जाँचने के लिए बुलाया गया है. मानकदा बेड पर बैठे थे और उनके पास ही सुरेश जिंदल और बंशीचंद्र गुप्त विराजमान थे.
मुझसे जर्नलिज़्म छूट चुका था, मगर उसकी आदतें नहीं छूटी थी. ये बुरी आदत अब तक है कि किसी से डरता नहीं हूँ. अच्छा सहाफ़ी वही होता है, जो अमीरों-वज़ीरों तक को ख़ातिर में नहीं लाता और ख़तरों में बेख़तर कूद पड़ता है.
मैंने भी एक कोना पकड़ा. फ़ाइल खोलकर इस तरह सामने रखा जैसे मीलाद पढ़ने का इरादा हो. शम्अ मेरे बराबर बैठ गईं. मैंने एक बार मानकदा की तरफ़ देखा जिनकी आँखों में ऐसी चमक थी जैसे बच्चे को मुँह माँगा खिलौना मिलने वाला हो और चश्मे की कमानी मुँह में थी.
मैंने पहले सीन से लेकर आख़िरी डायलॉग तक पूरा स्क्रिप्ट इस तरह सुनाया कि गला गीला करने के लिए भी नहीं रुका.
कोई डेढ़ घंटे बाद जब फ़ाइल बंद हुई तो कमरे में अजीब तरह का सन्नााटा था. हाजिरीन की सोचती, तौलती आँखें मेरे और शम्अ के ऊपर जमी हुई थीं. थोड़ी देर बाद सबसे पहली आवाज़ मानकदा की सुनाई दी. एक हल्की-सी हँसी के साथ उन्होंने कहा, ‘आई डोंट नो व्हॉट ही हैज़ रिटेन, बट इट्स साउंड्स गुड.’
कुछ बुजुर्ग़ों ने तब्सिरे और कुछ ने सवाल किए. बंशीचंद्र गुप्त ने, जो बहुत अच्छी उर्दू जानते और बोलते थे, पूछा, ‘आपने एक जगह लिखा है, तड़के चलेंगे झुटपुटे में लौट आएंगे. क्या लोग इसे समझ पाएंगे?’ मैंने अर्ज किया, ‘कहना ये है कि सुब्ह को चलेंगे, शाम को लौट आएंगे.’ इस डायलॉग में सुबह-शाम भी इस्तेमाल हो सकते थे. ये भी कहा जा सकता था कि सवेरे चलेंगे, रात को लौट आएँगे. लेकिन तड़के और झुटपुटे इसलिए इस्तेमाल किया है कि उस ज़माने की ज़बान का मुहावरा सुनाई दे सके. कान को ज़रा-सा अजनबी लगता है, मगर अच्छा लगता है और मतलब तो समझ में आ ही जाता है.”
मुख़्तसर ये कि मैं और शम्अ बहुत अच्छे नंबरों के साथ पास हो गए. सुरेश जिंदल ने भी तरह-तरह से इत्मीनान करने के बाद सब्र व शुक्र से काम लिया और दो नए लोगों को क़बूल कर लिया. और मुझे ये ख़ुशखबरी सुनाई कि मैंने जो कारनामा अंजाम दिया है, उसके लिए इज़्जत व शुह्रत के अलावा पंद्रह हज़ार रुपए भी मिलेंगे. शम्अ चूँकि फ़िल्म के कास्ट्यूम्स भी कर रही थीं, इसलिए उनका मुआवजा क्या था, मुझे मालूम नहीं.
स्क्रिप्ट मिलने के बाद मानकदा की पहली फ़रमाइश ये थी कि मुकालमों का हर्फ़ बः हर्फ़ तर्जुमा इंग्लिश में किया जाए और उनको भेजा जाए ताकि उन्हें अंदाजा हो सके कि हम लोग उनके स्क्रीन प्ले से कितने दूर या क़रीब हैं.
ये काम शम्अ ने फ़ौरन कर दिया. उनकी इंग्लिश माशाअल्लाह मेरी उर्दू से भी अच्छी है.
उसके बाद मेरी बारी आई. मानकदा उर्दू मुकालमों का एक-एक लफ़्ज़ बाँग्ला लिपि में लिखते और फिर बोल कर देखते. मैंने वजह पूछी तो फ़रमाया,’ज़बान कोई भी हो, लफ़्ज़ों की अपनी मूसीक़ी होती है. ये मूसीक़ी सही होनी चाहिए. अगर एक सुर गलत लग जाए, तो पूरा सीन बेमानी हो जाता है.’ ये सुब्हानअल्लाह!
यहाँ तक सब ख़ैरियत थी कि अचानक मानकदा ने कलकत्ते से फ़ोन किया और बोले ‘तुम्हारे डायलॉग मेरी समझ में तो आ गए, मगर एक्टरों को कौन समझाएगा कि बोलना कैसे है? मस्अला टेढ़ा था. मैं परेशान होने लगा तो उन्होंने हल भी निकाल दिया. ‘तुम कोई दूसरा काम नहीं कर रहे हो, तो डायलॉग डायरेक्शन भी सँभाल लो.’
मैंने सोचने की मुहलत माँगी, मगर दूसरे दिन प्रोड्यूसर ने बताया कि डायलॉग डायरेक्शन के पंद्रह हज़ार रुपए और मिलेंगे, तो न कहने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची. और मैं कलकत्ते पहुँच गया और मानकदा के सलाम को हाज़िर हुआ.
मानकदा बिशप रोड पर एक फ़्लैट में रहते थे. लकड़ी के ऊँचे दरवाज़े से घर के अंदर आओ, तो एक हॉल जैसा था जिसमें कुछ सोफ़े, कुछ कुर्सियां, किताबों की अलमारी, शेल्फ़ पर कुछ ट्राफ़ियाँ और एक पियानो आँखों का इस्तक़बाल करता था. कमरे के आख़िरी सिरे पर बड़ी-बड़ी खिड़कियों के पास, जो सड़क की तरफ खुलती थी, मानकदा एक आराम कुर्सी पर नीम दराज होते थे. आम तौर पर घुटना टेढ़ा करके उस पर राइटिंग पैड रख लिया करते थे और क़लम फर्राटे भरता होता था.
घर की हर चीज़ में सलीका और नफ़ासत दिखाई देती थी. मेरा ख़याल है, इस ख़ुश-मजाक़ी की ज़िम्मेदार मानकदा से कहीं ज्यादा ‘बोदी’ (बहू दीदी) यानी मिसेज रे थीं. बड़ी ही प्यारी और मुहब्बत करने वाली ख़ातून थीं. जब भी मिलती थीं, एक बेहद मासूम मुस्कराहट चेहरे पर फैल जाती और हाथ तो इतने प्यार से फैलते थे, बेसाख़्ता गले लग जाने को जी चाहता था.
सत्यजित राय को सत्यजित राय बनाने में बोदी की बेलौस मुहब्बत और अपने मानक की सलाहियत पर यक़ीन ने बेमिसाल किरदार (रोल) अदा किया है. कहा जाता है कि ‘पथेर पंचाली’ आधे में ही बंद हो गई थी, क्योंकि पैसे ख़त्म हो गए थे. उस वक़्त बोदी ने अपने सारे ज़ेवर गिरवी रखकर कहा था, ‘जेवर तो जब चाहो, बन सकते हैं, पथेर पंचाली बार बार नहीं बन सकती!’
कलकत्ता मेरे लिए नया नहीं था. पहले भी कई बार आ चुका था, मगर वह शहर मुझे कभी पसंद नहीं आया. जिधर देखो, एक बेतरतीब हुजूम दिखाई देता था. बिल्कुल ऐसा लगता था जैसे किसी ने कोई पुराना पत्थर हटाया हो और नीचे से लाखों चिउंटियाँ बिलबिलाकर बाहर निकल आई हों. अब इसे वक़्त की सितमज़रीफ़ी ही कहिए कि कुछ दिन बाद चिउंटियों के इस बेतरतीब हुजूम में मैं और शम्अ भी शामिल हो गए.
हुआ यूँ कि कलकत्ता पहुँचकर स्टुडियो में कदम रखा, तो एक अजीब मंज़र नज़र आया. आर्ट डिपार्टमेंट के लोग और मानकदा के कुछ असिस्टेंसट मीर और मिर्ज़ा के घरों के लिए प्रॉपर्टी जमा कर रहे थे. और सख़्त परेशान थे, क्योंकि किसी को नहीं मालूम था कि जो सामान इकट्ठा किया गया है, वह ग़लत है या सही! उन लोगों के लिए जिन्होंने लखनऊ कभी देखा भी न हो, हज़ार मील दूर बैठकर डेढ़ सौ बरस पुरानी तहज़ीब को जिंदा करना चराग से जिन्न निकालने के बराबर था.
सामान सब था, मगर ज्यादातर ग़लत था. मिसाल के तौर पर पानी के लिए मिट्टी के बर्तन मँगा लिए थे. मगर वह घड़े नहीं थे, बड़े मुँह वाले मटके थे. यू.पी. के घड़े इतने छोटे मुँह के होते हैं कि हाथ फंस जाता है. मैंने सोचा, डायलॉग डायरेक्शन तो तब होगा जब शूटिंग शुरू होगी. अभी तो इंद्रपुरी स्टूडियोज़ में लखनऊ बनाने का काम शुरू कर देना चाहिए. चुनांचे मैंने आस्तीन चढ़ाई और हमला बोल दिया. घड़े तो मिल गए, उनको रखने के लिए लकड़ी की घड़ौंची बनवाई. मुँह पर बाँधने के लिए लाल कपड़ा मंगवाया, मगर तांबे या चाँदी के नक्शीं कटोरे नहीं मिले.
मानकदा आए और मुझे मिट्टी के तेल और कोयले की राख से बर्तनों को चमकाते देखा, तो हंस पड़े. ‘ये क्या हो रहा है,’उन्होंने पूछा.
‘मैं बेकार नहीं बैठ सकता सर!’ मैंने जवाब दिया. उन्होंने मेरा कंधा थपथपाया और बोले, ‘स्पेशल प्रॉपर्टी की लिस्ट शम्अ के पास है, तुम चाहो तो शम्अ की मदद कर सकते हो.’ चुनांचे हम दोनों ने कलकत्ता के गली-कूचों की ख़ाक छानना शुरू कर दी.
जिस ज़माने में शम्अ और मैं फ़िल्म के लिए सामान जमा करते घूम रहे थे, मानकदा के नाम का वही असर होता था, जो किसी मंत्र का होता है. हर दरवाज़ा खुल जाता था और दीदः और दिल फ़र्श-ए-राह हो जाते थे. बँगाल के पुराने रईस अपनी आलीशान हवेलियों में गुज़री हुई अजमत की ऐसी-ऐसी नायाब निशानियाँ छुपाए बैठे थे कि देखकर हैरत होती थी. मैं समझता था कि अपनी तहज़ीब को बचाने और बचाए रखने का काम जैसे उत्तर भारत वालों ने किया, वैसा कहीं नहीं हुआ. मगर कलकत्ता पहुँचकर अंदाज़ा हुआ कि बंगाल किसी तौर से पीछे नहीं, बल्कि कुछ आगे ही है. वहाँ कैसे-कैसे शौक़ीन रईस थे और इसका अंदाज़ा सिर्फ़ एक मिसाल से लगाया जा सकता हैं.
हमें एक क़लमदान की ज़रूरत थी. पता चला कि एक बँगाली रईस हैं, जो बंदूकें बेचते हैं, मगर नायाब चीज़ें जमा करने के शौक़ीन भी हैं. सत्यजित राय का नाम सुना, तो ख़ुद अपनी ‘बारी’ (हवेली) पर ले गए और अपने ख़जाने का दरवाज़ा खोल दिया. दीगर नायाब चीज़ों का ज़िक्र तो जाने दीजिए, क़लमदानों, कलमों और दवातों का जख़ीरा देखकर आँखें इस तरह खुलीं कि झपकना भूल गईं. चाँदी से लेकर हाथी दाँत और संदल के कलमदान थे. पर के क़लम से लेकर नैजे और निब वाले होल्डर भी थे और दवातें तो अल्लाह की पनाह इतनी थीं कि हिसाब करने मेँ स्याही कम पड़ जाए. सोने, चाँदी और काँच से लेकर लकड़ी और मिट्टी की दवातें हर साइज़ और हर डिज़ाइन में मौजूद थीं.
मुझे एक दवात आज तक याद है. शीशे को तराश के कमरख की शक्ल दी गई थी. ख़ाली देखो लो आर-पार बिल्कुल शफ़्फ़ाक दिखाई देती थी. मगर रौशनाई डालो तो पंजतन पाक (पाँच पवित्र इस्लामीनाम) के नाम नज़र आने लगते थे. उनकी मक्बूकलियत का आलम ये था कि हर आदमी दीद: और दिल फ़र्श-ए-राह कर दिया करता था. फ़िल्म के आख़िरी सीन मेँ जब मिर्ज़ा मीर पर गोली चलाता है और गोली शॉल को छूती हुई निकल जाती है, उसमें जो शॉल इस्तेमाल की गई है, वह एक बेहद क़ीमती शॉल है जिसकी क़ीमत उस ज़माने में तीस- चालीस हज़ार रुपए थी. मगर मानक दा की मुहब्बत में उस शॉल के मालिक सेठ केजरीवाल गोली का निशान दिखाने के लिए उस शॉल मेँ सुराख़ किए जाने पर भी आमादा हो गए थे. ये अलग बात है कि बाद में उस सुराख़ को रफ़ू कर दिया गया और शॉल पे कोई निशान भी न रहा लेकिन केजरीवाल की अक़ीदत का निशान आज भी बाक़ी है.
[शकील सिद्दीक़ी का यह अनुवाद ‘नया वर्क़’ से साभार]
सम्बंधित
बरेली जो एक शहर था | दाद का नशा और महबूब मुर्ग़ा
तो आग़ा हश्र ने मंटो से पूछा – लार्ड मिंटो से क्या रिश्ता है तुम्हारा
संस्मरण | जब फ़ौजियों को गीत सुनाकर देवेंद्र सत्यार्थी ने ट्रेन में जगह पाई
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं