श्रीमुनि सिंह | सृजन की धुन वाले चित्रकार

चित्रकार श्रीमुनि सिंह पर दामोदर दत्त दीक्षित का आत्मीय संस्मरण उनकी किताब ‘जो मिले’ में ‘कला को समर्पित बहुमुखी प्रतिभा’ शीर्षक से शामिल है. दृश्यकला के कई रूपों में निष्णात श्रीमुनि सिंह के जीवनकाल में मिनियेचर उनकी पहचान बने. अपनी विकसित शैली के मिनियेचर. सन् 1996 में उनका निधन हो गया था. संस्मरण के इस अंश से उनकी शख़्सियत और सृजनशीलता की धुन के बारे में आप कुछ अंदाज़ ज़रूर लगा सकते हैं. अलबत्ता इंटरनेट की दुनिया में उन्हें खोजने की कोशिश पर निराश ही होंगे. भारत भवन, बीएचयू, टैगोर पुस्तकालय, लखनऊ विश्वविद्यालय के साथ ही अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, ईरान, बुल्गारिया और वियतनाम में उनके चित्र निजी संग्रह में भी हैं. यहाँ छपे चारों चित्र हमें श्री दीक्षित के सौजन्य से मिल सके हैं. -सं

प्रादेशिक सिविल सेवा के अन्तर्गत गन्ना एवं चीनी विभाग में नौकरी शुरू करने से पहले मैंने उ.प्र. राज्य संग्रहालय में कुछ समय तक कस्टोडियन पद पर नौकरी की थी. वहीं श्रीमुनि सिंह जी मूर्तिकार के रूप में कार्यरत थे. स्पष्ट कर दूँ कि यहाँ ‘मुनि’ के पहले लगा ‘श्री’आदरसूचक न होकर उनके नाम का हिस्सा है – श्रीमुनि सिंह! परन्तु बोलचाल में ज़्यादातर मुनि सिंह ही चलता था. हम दोनों में जल्दी ही मित्रता हो गई. हम दोनों इतिहास और कला पर चर्चा करते काफ़ी देर-देर तक.

संग्रहालय के निदेशक डॉ.नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी प्राचीन भारतीय इतिहास के, विशेषकर प्राचीन मूर्तिकला के, विद्वान थे. कई पुस्तकें लिखी थीं. वह चाहते थे कि संग्रहालय के सभी तकनीकी अधिकारी निरन्तर अध्ययनशील रहें, शोध कार्यों में संलग्न रहें, शोध-पत्र तैयार करें. उन्होंने योजना बनाई कि हर महीने कोई-न-कोई अधिकारी किसी विषय विशेष पर ‘पेपर’ पढ़े. संग्रहालय के अन्य अधिकारी और बाहरी जिज्ञासु उन्हें सुनें, ज्ञानार्जन करें और सवाल-जवाब कर चर्चा को जीवन्त बनाएँ. दरअसल ज़्यादातर अधिकारी रुटीन कार्य करने और वेतन उठाने तक सीमित थे. अध्ययन और शोध में उनकी रुचि नहीं थी. पर क्या करें? बॉस का हुक्म! चालू मुहावरे का सहारा लें, तो जोशी जी गधे को घोड़ा बनाना चाहते थे.

एक बार गैलरी असिस्टेन्ट शिवाधार मिश्र को हाथीदाँत की कलाकृतियों पर बोलना था. वह बोले, ख़ूब बोले. यह भी बताया कि मुग़ल काल में राँची, बरेली और आगरा हाथीदाँत कलाकृतियों के निर्माण के बहुत बड़े केन्द्र थे. डा जोशी ने पूछा, “मिश्र जी, आपने किस किताब में यह बात पढ़ी है?”

शिवाधार मिश्र बोले, “सर, किसी किताब में नहीं पढ़ा. मुनि सिंह जी ने बताया था.”

डॉ.जोशी ने श्रीमुनि सिंह जी से पूछा.

वह बोले, “सर, मिश्र जी बार-बार मुझसे पूछते थे. इनसे कहता था, थोड़ी मेहनत कीजिए. पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में संदर्भ तलाशिए. पर यह मेरे पीछे पड़े रहे. एक दिन आजिज़् आकर कह दिया कि राँची, बरेली और आगरा में हाथीदाँत पर काम होता था. मैं समझता था कि यह मेरा परिहास समझ गए हैं पर….”

सारा कमरा ठहाकों से गूँज़ उठा. दरअसल ये तीनों स्थान पागलखानों के लिए मशहूर हैं!

मिनियेचर शैली के चित्रकार और बहुमुखी प्रतिभाशाली श्रीमुनि सिंह का जन्म 5 अप्रैल, 1936 को बलिया ज़िले के गाँव शिवपुर दियरा के एक सामान्य परिवार में हुआ था. उनके परमारवंशीय पूर्वज ने कई शताब्दी पहले भोजराज की धारानगरी से आकर बिहार में अपना राज्य स्थापित किया था. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उनके परिवार के लोग जगदीशपुर के राजा कुँवर सिंह की सेना में शामिल होकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़े थे. गंगा किनारे का गाँव होने के कारण शिवपुर दियरा की कुछ ज़मीन गंगा पार बिहार प्रदेश में आती है.

श्रीमुनि सिंह जी के मन में कला क्षेत्र में जाने का विचार दूर-दूर तक नहीं था. सोच की सीमा मात्र इतनी थी कि कलकत्ता में किसी कार्यालय में क्लर्क की नौकरी मिल जाए. पर हुआ यह कि एक मित्र के आग्रह पर उन्होंने हाई स्कूल में चित्रकला और मूर्तिकला को विषय के रूप में चुना. वार्षिक परीक्षा में लखनऊ के प्रतिष्ठित कला महाविद्यालय के प्रवक्ता मो.हनीफ़ परीक्षक के रूप में आए. उन्होंने श्रीमुनि सिंह जी की प्रतिभा को पहचाना और कला महाविद्यालय, लखनऊ में प्रवेश लेने पर ज़ोर दिया. सलाह मानकर उन्होंने 1953 में कला महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया. कभी-कभी सोचता हूँ कि कलागुरु मो.हनीफ़ न मिले होते, तो वह कलकत्ता या बलिया में क्लर्की करते हुए गुमनाम-सी ज़िन्दगी जिए होते.

उस समय कला महाविद्यालय में प्रमुखतः ठाकुर शैली की वाश चित्रकला की शिक्षा दी जाती थी. परन्तु चित्रकला की यूरोपीय शैलियों, लाइन ड्राइंग, लैण्डस्केप, पोर्ट्रेट और मूर्तिकला का भी अध्ययन करवाया जाता था. एक विषय ‘ओल्ड मास्टर्स’ का था, जिसमें भारतीय मिनियेचर पेन्टिंग्स की अनुकृतियाँ बनवाई जाती थीं. इसके अलावा लोक-कला, यथार्थवादी, आदर्शवादी, आभासात्मक, प्रतीकात्मक, घनत्ववादी, शान्तिनिकेतन की टेम्परा शैली आदि का भी अध्ययन करवाया जाता था. उन्होंने 1958 में कला महाविद्यालय से डिप्लोमा प्राप्त किया.

उसके बाद वह काँगड़ा घाटी (हिमाचल प्रदेश) में पालमपुर के पास आन्द्रेटा गाँव के सुरम्य परिवेश में पहुँचे, जहाँ पारम्परिक शैली के प्रख्यात चित्रकार सरदार शोभा सिंह कला की एकान्त साधना कर रहे थे. शोभा सिंह जी को श्रीमुनि सिंह की चित्रकारी बहुत पसन्द आई. उनका इरादा ‘रिवाइवल स्कूल ऑफ़ काँगड़ा आर्ट्स’ नामक कला विद्यालय खोलने का था. उन्होंने अपनी योजना में मुनि सिंह जी को शामिल कर लिया, परन्तु यह योजना फलीभूत नहीं हो सकी. तब सरदार जी ने वहीं आन्द्रेटा में अपने साथ कार्य करने का प्रस्ताव किया, परन्तु रोज़ी-रोटी की सुनिश्चित व्यवस्था न होने के कारण वहाँ रहना सम्भव न हो सका. आन्द्रेटा के प्रवास-काल में उन्होंने काँगड़ा के प्राकृतिक दृश्यों एवं लोक जीवन का निकट से अवलोकन किया और उनसे प्रभावित होकर टेम्परा शैली में कई चित्र बनाए.

1958 में ही काँगड़ा से लौटकर उन्होंने उ.प्र.राज्य संग्रहालय, लखनऊ में मूर्तिकार के रूप में नौकरी करना शुरू किया. उनका मुख्य कार्य संग्रहालय की महत्वपूर्ण कलाकृतियों की प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की अनुकृतियाँ तैयार करना था. इन अनुकृतियों की बिक्री से संग्रहालय की महत्वपूर्ण कलाकृतियों का प्रचार-प्रसार तो होता ही था, संग्रहालय को धन की भी प्राप्ति होती थी.

संग्रहालय में कार्य करते हुए उन्होंने अपने पहले प्रेम यानी चित्रकला को जारी रखा. अवध के इतिहास का गहन अध्ययन किया और उसके बहुरूपी सांस्कृतिक जीवन को देखा और उस पर आधारित कई चित्र बनाए, जिनमें कुछ चित्र नवाब वाज़िद अली शाह पर केन्द्रित थे. इन चित्रों की बहुत सराहना हुई. उन्होंने मुगल शैली, अवध शैली और कम्पनी शैली के चित्रों से प्रभावित होकर अपनी नई शैली विकसित कर मिनियेचर चित्र बनाए. आधुनिक कला के इस युग में परिश्रमसाध्य मिनियेचर शैली को पुनरुज्जीवित किया.

उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं से सम्बन्धित चित्र-श्रृंखला तैयार की. इसके अन्तर्गत उन्होंने महारानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे, अज़ीमुल्ला ख़ाँ और बाबू कुँवर सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के चित्र और अंग्रेज़ों के साथ दिल्ली्, लखनऊ, ग्वालियर और झाँसी में हुए युद्धों के चित्र बनाए. यह चित्र-श्रृंखला कई स्थानों पर प्रदर्शित की गई और बहुत अधिक लोकप्रिय हुई. उनके कुछ अन्य प्रसिद्ध चित्र हैं – राधा-कृष्ण, जामवंत-हनुमान मंत्रणा, माउन्ट वेरनम पर ईसा मसीह का प्रवचन, स्वतंत्रता, प्रेमी, अपहरण, शरद ऋतु, ऋतुसंहार, अमलतास और गजराज.

वह बहुमुखी प्रतिभाशाली थे. नई-नई चुनौतियों को स्वीकार करते थे. उनके कलाबोध को शायद किसी एक विधा में सीमित रहना मंजूर न था. 1961 में उन्होंने वनस्थली विद्यापीठ, जयपुर में भित्ति चित्रांकन (वाल पेन्टिंग) का प्रशिक्षण प्राप्त किया. प्रागैतिहासिक गुफ़ा चित्रों और कला तकनीक पर शोध किया. उन्होंने अजन्ता के चित्रों में जिन प्राकृतिक रंगों से आधार और चित्र बनाए गए थे, उन्हीं के प्रयोग से कुछ चित्र बनाकर दिखाए. निश्चय ही यह गहन अध्ययन, व्यावहारिक बुद्धि से जुड़ा परिश्रमसाध्य कार्य था. कश्मीर में लोकप्रिय पेपरमैशी (काग़ज़ की लुगदी से बनाई जाने वाली कलाकृतियाँ) की कलाकृतियाँ भी बनाईँ.

एक बार वह लखनऊ से मैसूर गए. जाते समय और लौटते समय ट्रेन में बैठे-बैठे खिड़की से दिखने वाली झोपड़ियों के स्केच बनाते गए. विभिन्न शैली की झोपड़ियों के स्केच का अद्भुत संग्रह तैयार हो गया. इस संग्रह को देखकर स्पष्ट होता है कि झोपड़ियों के आकार-प्रकार में उपलब्ध स्थानीय वनस्पतियों की महती भूमिका होती है. महलों, स्मारकों, नगरीय भवनों और ग्रामीण भवनों की वास्तुकला को लेकर बहुत अध्ययन ओर दस्तावेज़ीकरण हुए हैं, परन्तु झोपड़ियों को लेकर शायद बहुत कम या कोई अध्ययन और दस्तावेज़ीकरण नहीं हुए हैं.

झोपड़ियों के इस स्केच-संग्रह को लेकर श्रीमुनि सिंह जी ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में दस लेख लिखे. इस महत्वपूर्ण स्केच संग्रह के लिए कोई प्रकाशक नहीं मिला और यह पुस्तकाकार में प्रकाशित नहीं सका. श्रीमुनि सिंह जी ने लोककला का गहरा अध्ययन किया. लोककला में गहरी रुचि और गति होने के कारण उ.प्र.ललित कला अकादमी ने उन्हें लोककला संग्रहालय के लिए कलाकृतियाँ एकत्रित करने का कार्य सौंपा. इसके लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश के शहरों, क़स्बों और गाँवों की ख़ाक छानी. जब मैं देवरिया और शामली में नियुक्त रहा, वह मेरे पास आए और मेरे साथ रुके. उन्हें गाँवों, क़स्बों और शहरों में ले गया, जहाँ से उन्होंने लोक कलाकृतियाँ एकत्रित कीं. उनके कहने पर मेरी माता जी श्रीमती देवहूति दीक्षित ने हार्ड बोर्ड पर हरछठ और अहोई पूजा के चित्र बनाए, जिन्हें लोककला संग्रहालय में रखा गया. उन्होंने लोककला पर एकसठ लेख लिखे, जो विभिन्नं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए.

उन्होंने 1979 में उ.प्र. राज्य संग्रहालय की नौकरी छोड़कर ‘नेशनल रिसर्च लेबोरेटरी फ़ॉर कन्ज़र्वेशन ऑफ़ कल्चरल प्रापर्टी,लखनऊ में सीनियर टेक्निकल रिस्टोरर के पद पर नौकरी शुरू की. 1989 में सीनियर कन्ज़र्वेशन आफ़िसर पर पदोन्न त हुए. केन्द्रीय सरकार की इस प्रतिष्ठित प्रयोगशाला में कार्य करते हुए उन्होंने क्षतिग्रस्त भवनों, मूर्तियों, चित्रों और अन्य कलाकृतियों के जीर्णोद्धार के कठिनसाध्य कार्य किए. उनके जीर्णोद्धार कार्यों में से कुछ प्रमुख कार्य हैं – श्रवणबेलगोला स्थित सुप्रसिद्ध विशालकाय गोम्मटेश्वर (बाहुबली ) जैन प्रतिमा के पास स्थित भित्ति चित्र, असली सोने के रंग से सुसज्जित-सुचित्रित बुरहानपुर से प्राप्त गुरुग्रन्थ साहब, विश्व का दूसरा सबसे बड़ा विहार तवांग विहार (अरुणाचल प्रदेश), सिक्किम के विहार, हुसैनाबाद पिक्चर गैलरी, लखनऊ और शिल्प संग्रहालय, दिल्ली. उन्हें 1986 में दो महीने के लिए अमेरिका भेजा गया जहाँ उन्हें संरक्षण प्रयोगशालाओं और संग्रहालयों में कलाकृतियों – विशेषकर चित्रों – के संरक्षण की नई तकनीकों से परिचित होने का अवसर मिला.

प्रख्यात कला मर्मज्ञ और कला आलोचक राय कृष्णदास श्रीमुनि सिंह जी की कला से प्रभावित थे, “श्रीमुनि सिंह उत्तर प्रदेश के प्रमुख कलाकारों में से हैं. आप मूलतः ठाकुर शैली के कलाकार हैं. परन्तु विगत कई वर्षों से उन्होंने लखनऊ राज्य संग्रहालय में काम करते हुए लखनऊ की सांस्कृतिक आत्मा का साक्षात्कार किया है. इस प्रसंग में उन्होंने 1857 वाले विद्रोह के प्रमुख पात्रों एवं दृश्यों का अंकन किया है. इस हेतु उन्हें स्थानीय अवध और कम्पनी के अतिरिक्त मुग़ल शैली का भी सूक्ष्म अध्ययन करना पड़ा. इन शैलियों को अपने नए और जीवन्त रूप में प्रकट कर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि समुचित स्पर्श से उन शैलियों का अभी भी महत्व है और इनमें मौलिक कृतित्व की अभिव्यक्ति हो सकती है. श्रीमुनि सिंह के चित्रों में व्यक्तित्व है और भावना भी है. इस प्रकार उन्होंने आधुनिक चित्रकारों को एक नया मार्ग दिखलाया है.”

प्रख्यात कथाकार अमृतलाल नागर भी उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे, जैसा कि उनके निम्नलिखित कथन से स्पष्ट है, “श्रीमुनि सिंह मुग़ल शैली के अप्रतिम चित्रकार हैं, बल्कि शायद यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उन्होंने मुगल, राजस्थानी और पहाड़ी काँगड़ा क़लम का अनोखा सम्मिश्रण करके अपनी एक स्वतंत्र शैली आविष्कृत कर ली है. इनकी क़लम की सूक्ष्म गति मुझे बड़ी सुहावनी और प्यारी लगती है. … श्रीमुनि सिंह ने सन्‌ 1958 में लखनऊ के राजकीय कला एवं शिल्प महाविद्यालय से डिप्लोमा प्राप्त किया था. स्थानीय चित्रकला प्रदर्शनियों में श्रीमुनि सिंह प्रायः तभी से ख्याति अर्जित करने लगे थे और अब तो वह कीर्तिसिद्ध कलाकारों में से माने जाते हैं. श्रीमुनि सिंह जी बड़े ही सज्जन, सरल और मृदुभाषी हैं. मैं इन्हें इनके छात्र काल से ही जानता हूँ और मेरे मन में इनके प्रति गौरव मिश्रित स्नेहभाव है.”

उ.प्र. राज्य संग्रहालय, लखनऊ के पूर्व निदेशक और प्राचीन मूर्तिकला के विद्वान डॉ. नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी ने उनकी कला सर्जना के बारे में अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किए हैं, “अमूर्त कला के वर्तमान युग में प्राचीन शैली के चित्रकार श्रीमुनि सिंह की कलाकृतियाँ अपना अनूठा स्थान रखती हैं. उनके चित्रों कों आबालवृद्ध बड़ी सरलता से समझ सकते हैं और उनकी रमणीयता का रसास्वादन कर सकते हैं. श्रीमुनि सिंह द्वारा अपनाई गई चित्र शैली कभी सारे उत्तर भारत में छाई थीं और रसिकों के गले का हार बनी थी. इस परम्परागत लघुचित्र शैली के प्राण, रेखा की लोच और विविध वर्णों के विलास होते हैं. इसी शैली में प्रस्तुत श्रीमुनि सिंह की तूलिका ने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से सम्बन्धित कतिपय घटनाओं को मूर्तिमान बनाकर जनता के सामने रखा है जो कि, मुझे विश्वास है, प्रत्येक भारतीय के लिए बड़ी प्रेरणाप्रद होगी.”

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