ज़ाइक़ा | इस सर्द मौसम में आग, अदहन, अलाव

हर पीढ़ी के पास अपने दौर के ज़ाइक़ों की ख़ास स्मृति होती है और विशिष्टता का यह बोध हमेशा साथ रहता है. ये स्मृतियां उस दौर की हैं, जब ‘ग्लोबल विलेज’ के बारे में दूर-दूर तक किसी को ख़बर नहीं थी. गांवों की चौहद्दी होती थी और दूसरा शहर परदेस समझा जाता था. ज़िंदगी में आज की तरह की हड़बड़ी भी दाख़िल नहीं हुई थी. यह उन्हीं दिनों की बात है.

इन दिनों पूरा उत्तर भारत कुहासे की चादर लपेटे हुए है. कोहरा, धुंध, पारा, आलस रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहुत कुछ बदलकर रख देते है. नए साल की आमद, इसके स्वागत का जश्न नई पीढ़ी में ख़ास तरह की हरारत पैदा करते है. मुंह से भाप निकलने वाले इस मौसम में वर्षों तक शिमला, मसूरी, दार्जिलिंग, डलहौज़ी में बिताए गए वक़्त के साथ फ़ायर प्लेस से लेकर गांव में लगने वाले अलाव की यादें एक-एक कर ज़ेहन में उतरती आती हैं.

ऐसी ही यादों में डूबते-उतराते हुए एक नौजवान से पूछ बैठा – इस बार नए साल पर जश्न की क्या तैयारी है? उसने तपाक से जवाब दिया – हम लोग इस बार सिज़लर रेस्तरां में सिज़लर फ़ूड का मज़ा लेने वाले हैं. कड़कड़ाती सर्दी में सिज़लर का ज़ाइक़ा लेने का अपना सुख है. खाने की मेज़ पर धुंआ-धुंआ प्लेट में गरमा-गरम व्यंजन. उस नौजवान ने मुझे वेज, नॉन-वेज सिज़लर और रेस्टोरेंट के मेन्यू के तमाम नाम बता डाले. यह ताक़ीद भी की कि आप चाहें तो गूगल पर खोज कर ऑनलाइन भी मंगा सकते हैं. यह भी जोड़ा कि ऑनलाइन वाले खाने में मगर वैसा सुख नहीं है, जो रेस्तरां में बैठकर मेज़ पर आती धधकती प्लेट से निकालकर खाने में आता है.

उसकी बात और उत्साह के बीच हम याद कर रहे थे कि सिज़लर तो ख़ैर हमारे ज़माने में भी हुआ करते थे, मगर उनकी सूरत-सीरत कुछ और ही हुआ करती थी. सुबह-सुबह घर के बाहर नुक्कड़ पर किसी हलवाई के कड़ाह से निकलने वाली गरमागरम जलेबी, जिसे थाल तक पहुंचने से पहले ही लेकर हम भागते थे कि घर पहुंचते-पहुंचते ठंडी न हो जाए.

किसी चाट वाले के तवे पर गर्म तेल में छनछनाती टिकिया या किसी सकोडे वाले की कड़ाही से निकलती भाप और मसालों की तेज़ ख़ुशबू, किसी राजस्थानी स्टॉल के बाहर छनती गरम मुंगौड़ी या पकौड़ी, किसी बाबा या कल्लू की कड़ाही से निकले सुनहरे-ख़स्ता वरक़ वाले समोसे, जिन्हें घर ले जाने की जल्दी होती थी ताकि ठंड़े होने से पहले घर वालों की ज़बान तक पहुंच जाएं.

फिर शादी-ब्याह में परोसे जाने वाला कोयले की आग पर सिंका हुआ पनीर टिक्का और सीख कबाब भी इसी फ़ेहरिस्त में शामिल हो गए. बनारस के श्रीराम की पूड़ी हो या इलाहाबाद में नेतराम या सुलाकी की गरमागरम कचौड़ी की थाली – यह अनंत काल से सिज़लर के हमारे देसी अवतार रहे हैं. उन ठिकानों पर बैठकर खान का सुख और कड़ाह से उतरती गरम गरम पूड़ी-कचौड़ी का ज़ाइक़ा तो खाने वाले ही बता सकते हैं.

इस सर्द मौसम में सुबह-सुबह अतीत के पन्नों से निकल आए कुछ देसी स्वाद की बात करने का मन हो उठा. बचपन में घर के आंगन में, दलान या चौपाल में जलने वाला अलाव और उसमें भूने जाने वाले आलू-शकरकंद उस दौर के सिज़लर फ़ूड ही तो थे. अपने-अपने हिस्से की आग बांट कर हम उसमें नई फ़सल के आलू पकाते. उसका सोंधापन और धुएं में लिपटा ज़ाइक़ा आज भी बेजोड़ मालूम होता है. वह फ़ास्ट फ़ूड भी हुआ करता था. बैगन-आलू का चोखा इन्हें आग में भूनकर ही बनता और लिट्टी, भौरी और रोटी भी.

दूध की दोहनी (मिट्टी का बर्तन) में उपले की आग में गोरसी या बोरसी का गाढ़ा लाल दूध जाड़े की रातों में जब गुड़ के साथ अम्मा- नानी देती थीं, तो वह स्वाद रात भर ज़बान पर बसा रहता. अब स्मृति में बचा रह गया है. लोकनाथ की दुकानों में कड़ाही में पका दूध पीने का चलन हालांकि अब भी पुराने लोगों के बीच है.

तब जाड़े के दिनों में रसोई आंगन में चली आती थी, अम्मा जहाँ उठाऊ चूल्हे पर धूप में बैठकर खाना पकाती थीं. फूल या काँसे की बटोई में पहले बाहर से राख की परत लगा दी जाती थी, ताकि लकड़ी की आग में बर्तन काला न पड़े. इसमें पहले दाल का अदहन उबलता था, फिर दाल डालकर धीमी आंच में पकाई जाती. अपनेपन का वह स्वाद अब सिर्फ़ यादों में और कभी-कभार उनकी जुगाली करके लिखने के लिए ही बचा रह गया है .

खेत से उखाड़े हरे चने के पौधे अलाव में भूनकर जो होरहा बनता, उसके लिए किसी गृहिणी की मदद की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. सुबह या शाम को होरहा नाश्ते की तरह खाया जा सकता था. और शर्त लगा सकता हूँ कि ‘रोस्टेट चिकपी’ कही जाने वाली कोई शै स्वाद में उसका मुक़ाबला नहीं कर सकती. तब जाड़े की रातों में गली से मूंगफली वाले का गुज़र भी घर भर के लोगों के लिए किसी नियामत से कम नहीं होता था. मूंगफली का स्वाद तो ख़ैर बाद में मिलता मगर उसके ठेले पर आग की लपटों पर चढ़ी कड़ाही की रेत में मूंगफली भूने जाने से उठने वाली महक हमारी ललक और तेज़ कर देती थी.

गांव के बाहर भाड़ में महुआ-आम की पत्तियाँ झोंककर भुंजवा जब किसिम-किसम का चबैना भूँजता था तो अपनी टोकरी-मउनी में लाई का चावल, चना, मटर, गेहूं, बाजरा या मकई लेकर बैठे लोगों को अपनी बारी आने की जल्दी होती. किस अनाज को कितनी गर्म रेत में कितनी देर भूँजा जाना है, भुंजवा की देसज समझ और आग में धधकते मिट्टी के साबित-टूटे बर्तनों से तय होता था.

यक़ीन मानिए कि स्टोर से लाए हुए पैकेट में बंद कॉर्न को कुकर में गर्म करके पॉपकॉर्न बना लेने की लियाकत से उसकी सलाहियत का मुक़ाबला मुमकिन ही नहीं है. हाँ, एजी दफ़्तर के बाहर जयप्रकाश जैसे लोगों के ठेले आज की पीढ़ी के लिए लाइव डेमो का काम कर सकते हैं. अलबत्ता वे लोग भी अब रेत का झंझट नहीं पालते, नमक से काम चलाते हैं.

भुने हुए गेहूं को गरम गुड़ में मिलाकर जो गुड़धानी बनती थी, उसका ज़ाइक़ा वैसी मिठास किसी देहाती के गुलाब जामुन या शिमला के लालजी के इंडक्शन पर गरम किए गए गुलाब जामुन से हरग़िज़ कम नहीं हुआ करता. ऐसे गरमागरम खानों के बीच गुज़रा हमारा बचपन. और अब यह बहुत पीछे रह गया लगता है या यों कहें कि ज़माना इन सबसे बहुत आगे निकल आया है. हीटर, ब्लोअर, फ़ायर प्लेस के सामने बैठ कर अब अलाव के दिनों के किस्से याद करने-सुनाने की चीज़ हैं.

‘पड़ोसी के चूल्हे से आग ले ले..’ सरीखी गुलज़ार की पंक्ति उधार लेकर कहें तो हम नेक्स्ट जनरेशन के नए-नए सिज़लर फ़ूड का स्वाद ले रहे है. हालांकि हमें ख़ूब याद है कि हमारे गांव में चूल्हे की आग नहीं दी जाती थी कि आग देने की परंपरा हमारे लोक में वर्जित है (गुलज़ार से क्षमा सहित).

समय मिले तो आप भी इस कड़ी में अपनी यादों के स्वाद को जोड़कर इसे आगे बढ़ा सकते है.

कवर | prabhatphotos

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