बैकस्टेज शब्द पर्व | स्थापित सत्य से अलग राह पकड़ता है रंगमंच

  • 11:34 pm
  • 27 March 2021

प्रयागराज | विश्व रंगमंच दिवस के मौक़े पर आयोजित बैकस्टेज शब्द पर्व में नाट्य समीक्षक डॉ.अमितेश कुमार ने कहा, ‘रंगमंच हमेशा पहले से स्थापित सत्य से अलग राह पकड़ता है, इसलिए रंगमंच हमेशा नया होता जाता है. आप जिसे हमेशा से सत्य मानते आ रहे होते हैं, रंगमंच उसमें नया दृष्टिकोण दिखाता है और इसी में रंगमंच की आधुनिकता छुपी हुई हो सकती है.’

‘भारत में आधुनिक रंगमंच’ विषय पर व्याख्यान में उन्होंने कहा कि रंगमंच की जिस आधुनिकता से हम प्रभावित होते हैं, उसमें बर्तोल्त ब्रेख़्त का योगदान महत्वपूर्ण है. ब्रेख़्त ने कहा था कि आपको जो भी सत्य प्रदान किया जाता है, या जो हम परम्परा से प्राप्त करते हैं या समाज से प्राप्त करते हैं, उसकी सत्यता की जाँच करते रहना चाहिए और अपने नज़रिए को बदलना चाहिए. सार्वभौम सत्य के अलावा समाज द्वारा हम पर थोप दिए गए सत्य की भी जाँच-परख करनी चाहिए.

डॉ. अमितेश ने कहा कि आधुनिक रंगमंच भारत में तब आया जब अंग्रेज़ आए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब उन्होंने अपनी राजधानी कलकत्ता में बनाई और दो बड़े नगरों कलकत्ता और बंबई में थिएटर लेकर आए. तब मूलतः इसका उद्देश्य मनोरंजन भर ही था. मनोरंजन के ऐसे ठिकाने, जहां वे अपनी शामें बिता सकें.

पहले वहाँ भारतीयों का प्रवेश वर्जित था लेकिन बाद में उन्हें लगा कि अगर हम भारतीयों को अपनी तरह नहीं बनाएंगे तो हम उनके बीच टिक नहीं पाएंगे. इसलिए, अपने को टिकाऊ बनाने के लिए उन्होंने भारतीयों को थिएटर में दाख़िल होने की इज़ाज़त दे दी. जब आप किसी को खींच कर लाते हैं तो ज़रूरी नहीं है कि वह आपकी बात उसी तरह माने जैसा आप चाहते हैं, वह उससे अपने काम की चीज़ें लेकर उसे अपने तरह से विकसित कर सकता है. ब्रिटिश जो आधुनिकता भारत में लागू कर रहे थे, लोगों को उससे भी आपत्ति थी. वह उस आधुनिकता को भारत में लागू नहीं कर रहे थे, जो ब्रिटेन में लागू कर रहे थे.

बंबई में ‘एलफिंस्टन’ कॉलेज था. वहां पर जो पारसी लोग पढ़ रहे थे, उन्हीं लोगों में से जब कुछ लोग शेक्सपियर के नाटकों से परिचित हुए तो वहां से निकलकर पहले उन्होंने गुजराती में, उर्दू में और फिर धीरे-धीरे हिंदुस्तानी की तरफ बढ़ते हुए एक ऐसा रंगमंच विकसित किया, जिसे पारसी रंगमंच कहा गया, जो विक्टोरियन शैली पर आधारित था. जिसमें रंगे हुए पर्दे होते थे.

इन नाटकों की संरचना में शेक्सपियर के नाटकों की तरह थी. बीच-बीच में गाने भरे जाते थे. इसे लोकप्रिय बनाने के लिए, उन्होंने भारतीय लोक में प्रचलित शैलियों के तत्वों को भी शामिल किया. जैसे महाराष्ट्र के तमाशा और उत्तर भारत के नौटंकी आदि के तत्व. अंग्रेज़ों ने भारतीय तत्वों को इसलिए लिया क्योंकि दर्शक जो थे, वे इन तत्वों के अभ्यस्त थे, आधुनिक रंगमंच के अभ्यस्त नहीं थे. इसके बाद पारसी रंगमंच में तड़क-भड़क बढ़ गई.

बाद में जब राधेश्याम कथावाचक आए तो उन्होंने महाभारत की कहानियों को आधार बनाकर नाटक लिखे. डॉ.अमितेश ने संस्कृत और प्रगतिशील रंगमंच, भारतेंदु युग, ड्रामेटिक परफ़ॉर्मेंस एक्ट, भारतीय आधुनिक रंगमंच में इब्राहिम अलकाज़ी, हबीब तनवीर, के.एन.पणिक्कर, रतन थियाम आदि के योगदान और आधुनिक नाट्य अभ्यास और निर्देशकों विस्तार से चर्चा की.

मेहमानों का स्वागत भास्कर शर्मा, सिद्धार्थ पाल और अनुज कुमार ने किया. विश्व रंगमंच दिवस पर ब्रिटिश अभिनेत्री हेलेन मीरेन के सन्देश का अंजल सिंह ने पाठ किया. बैकस्टेज प्ले हाउस में हुए इस कार्यक्रम में शिशिर सोमवंशी, अनिल मिश्र, सतीश तिवारी, निखिल मौर्य, प्रदीप्त प्रीत, अजित बहादुर, अलोक राज, प्रत्यूष वर्सने, दिवेश यादव, स्मृति श्रीवास्तव, रजनीश यादव, अक्षय यादव, प्रकाश, नितीश, चन्दन आदि मौजूद रहे. संचालन प्रवीण शेखर ने किया.

[प्रेस विज्ञप्ति]

सम्बंधित

‘देह’ के जरिए इंसानी सभ्यता को आगाह करता नाटक


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.