गुलाम रब्बानी ताबाँ | जिनका क़लाम नूरानी है और पेचदार भी

  • 9:06 pm
  • 15 February 2021

‘राहों के पेचो ख़म में गुम हो गई हैं सिम्तें/ ये मरहला है नाज़ुक ताबाँ संभल-संभल के.’ ताबाँ के मायने नूरानी यानी दीप्त के हैं और पेचदार भी. ‘ताबाँ’ के क़लाम में इसके दोनों मायने नुमाया होते हैं. उनकी शायरी में सादा बयानी तो है ही, एक अना भी है.तंज-ओ-मिज़ाह की शायरी से शुरु करके संजीदा शायरी की तरफ़ मुखातिब हुए गुलाम रब्बानी ताबाँ वकील थे, मगर वकालत उन्हें रास न आई तो नौकरी कर ली मगर शायरी करते रहे. शायरी की ज़मीन पर तरक्क़ीपसंद ख़्याल और उसूलों को आम करने की हर मुमकिन कोशिश की. शायरी उनके लिए दिल बहलाने का जरिया नहीं, प्रतिबद्धता थी. उस मुआशरे को बेहतर बनाने की प्रतिबद्धता जिसमें वे रहते थे.

उनकी पैदाइश-परवरिश क़ायमगंज (फ़र्रूख़ाबाद) के एक ज़मींदार घराने में हुई. क़ायमगंज के बाद वह आगरा के सेंट जोंस कॉलेज से उन्होंने ग्रेजुएशन और आगरा कॉलेज से एलएलबी की डिग्री हासिल की. उन्हीं दिनों उनका अदबी सफ़र शुरू हुआ. मौलाना हामिद हसन कादरी और मैकश अकराबादी की सोहबतों में उनका शौक परवान चढ़ा.

पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ दिनों तक वकालत की मगर शायराना मिज़ाज के चलते उन्हें यह पेशा ज्यादा समय तक रास नहीं आया. अंग्रेज़परस्त कुनबे से ताल्लुक होने के बावजूद उनकी सोच फ़र्क थी. और यही सोच उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ़ ले गई. कम्युनिस्ट पार्टी से वास्ता रखने के इल्जाम में सन् 1943 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. इस पर घर वाले काफ़ी नाराज़ हुए.

जेल से लौटने के बाद इस नाराज़गी के चलते उन्होंने घर छोड़ दिया रोजगार की तलाश में बंबई चले गए. कुछ अर्सा वहाँ कृश्न चंदर के यहां रहे, मगर उस शहर का माहौल भी उन्हें नहीं भाया तो दिल्ली चले आए. दिल्ली में वह प्रकाशन की संस्था ‘मक़तबा जामिया’ से जुड़ गए और लम्बे अर्से तक डायरेक्टर के तौर पर काम किया.

प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के मेंबर होने के नाते उसकी सरगर्मियों और अदबी महफ़िलों में वह हमेशा पेश-पेश रहते थे. शायरी की उनकी शुरुआत तंज-ओ-मिज़ाह से हुई, हालांकि बाद में संजीदा शायरी की ओर मुखातिब हुए. गुलाम रब्बानी ताबाँ ने शुरू के दिनों में नज़्में कहीं मगर पहला मजमुआ ‘साज़े लर्जां’ (1950) छपने के बाद सिर्फ़ ग़ज़लें कहने लगे. उनकी शायरी की नुमायां शिनाख्त, उसका क्लासिकी और रिवायती अंदाज होने के साथ-साथ तरक्कीपसंद ख्याल के पैकर में पैबस्त होना है.

उनकी शायरी, ख़ालिस वैचारिक शायरी है, जिसमें उनके समाजी, सियासी और इंक़लाबी सरोकार झलकते हैं – ‘‘मंज़िलों से बेगाना आज भी सफ़र मेरा/ रात बे-सहर मेरी दर्द बे-असर मेरा/…आसमां का शिकवा क्या वक़्त की शिकायत क्यूं/ ख़ून-ए-दिल से निखरा है और भी हुनर मेरा/ दिल की बे-क़रारी ने होश खो दिए ’ताबाँ’/ वर्ना आस्तानों पर कब झुका था सर मेरा.’’

बड़ी हुनरमंदी से उन्होंने अपने क़लाम के ज़रिये सियासी, समाजी पैगाम दिए. सरमायेदारी पर तंज़ कसते हुए कहते हैं, ‘‘जिनकी सियासतें हों जरोजाह की ग़ुलाम/ उनको निगाहो दिल की सियासत से क्या गरज.’’ ताबाँ ने यों कम लिखा, लेकिन मानीख़ेज लिखा. बेमिसाल लिखा. उनकी शायरी में ज़िंदगी की जद्दोजहद और तमाम मसाएल दिखाई देते हैं. शाइस्तगी से वे अपने शे’रों में बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं – ‘‘दौर-ए-तूफ़ां में भी जी लेते हैं जीने वाले/ दूर साहिल से किसी मौज-ए-गुरेज़ां की तरह/…किस ने हंस हंस के पिया ज़हर-ए-मलामत पैहम/ कौन रुस्वा सर-ए-बाज़ार है ‘ताबाँ’ की तरह.’’

तंकीद निगार एहतेशाम हुसैन अपनी किताब ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में गुलाम रब्बानी ताबाँ की ग़ज़लों पर तंकीद करते हुए लिखते हैं, ‘‘उन्होंने अपनी ग़ज़लों में सूक्ष्म संकेतों, गहरी मनोभावनाओं और व्यक्तिगत अनुभूतियों से बड़ी रोचकता पैदा कर दी है.’’ ताबाँ की ग़ज़ल के इन अश्आर की मिसाल देखिए, ‘‘ये हुजूम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की पाबंदी भी है/ ग़ालिबन कुछ शैख़ को ज़ोम-ए-ख़रिद-मंदी भी है/ उस ने ’ताबाँ’ कर दिया आज़ाद ये कह कर कि जा/ तेरी आज़ादी में इक शान-ए-नज़र-बंदी भी है.’’

ताबाँ की शायरी में सादा बयानी तो है ही, एक अना भी है, जो ख़ुद्दार शायर की निशानदेही है. ‘‘बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत/ इस मेहर ओ जफ़ा की नगरी से दिल के हैं मगर रिश्ते भी बहुत/…कहते हैं जिसे जीने का हुनर आसान भी है दुश्वार भी है/ ख़्वाबों से मिली तस्कीं भी बहुत ख़्वाबों के उड़े पुर्ज़े भी बहुत/ रुस्वाई कि शोहरत कुछ जानो हुर्मत कि मलामत कुछ समझो/ ’ताबाँ’ हों किसी उनवान सही, होते हैं मिरे चर्चे भी बहुत.’’

तांबा की शायरी में ज़िंदगी की जद्दोजहद और उसके जानिब एक पॉजिटिव रवैया हमेशा दिखलाई देता है. तमाम परेशानियों में भी अपना हौसला, उम्मीदें नहीं खोते. ‘‘चमन में किसने किसी बेनवा का साथ दिया/ वो बूए-गुल थी कि जिसने सबा का साथ दिया…जुस्तज़ू हो तो सफ़र ख़त्म कहां होता है/ यूं तो हर मोड़ पर मंजिल का गुमां होता है.’’

ग़ज़ल की कहन में वह परंपरा का दामन नहीं छोड़ते और कुछ इस अंदाज़ में अपनी बात कह जाते हैं कि तर्ज़े बयां नया हो जाता है – ‘‘हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह/ उजाला ग़ैरों से क्या मांगते क़मर की तरह/….बस और क्या कहें रूदाद-ए-ज़िंदगी ’ताबाँ’/ चमन में हम भी हैं इक शाख़-ए-बे-समर की तरह.’’

‘साज़-ए-लारजां’, ‘हदीस-ए-दिल’, ‘जौक-ए-सफ़र’, ‘नवा-ए-आवारा’, ‘गुबार-ए-मंज़िल’ उनकी ग़ज़लों के अहम मजमुए हैं. ताबाँ ने अंग्रेज़ी की कई मशहूर किताबों का उर्दू में तर्जुमा किया. शायर होने के साथ ही वह बेहतरीन तर्जुमा निगार भी थे. अच्छे तर्जुमे के लिए ताबाँ तीन चीज़ें ज़रूरी मानते थे. ‘‘पहला, जिस ज़बान का तर्जुमा कर रहे हैं, उसकी पूरी नॉलेज होनी चाहिए. दूसरी बात, जिस ज़बान में कर रहे हैं, उसमें और भी ज्यादा कुदरत हासिल हो. तीसरी बात, किताब जिस विषय की है, उस विषय की पूरी वाकफ़ियत होनी चाहिए. इन तीनों चीज़ों में से यदि एक भी चीज़ कम है, तो वह कामयाब तर्जुमा नहीं होगा.’’

शायरी और तर्जुमा निगारी के अलावा उन्होंने कुली कुतुब शाह वली दक्कनी, मीर और ‘दर्द’ के क़लाम पर तंकीद निगारी की. सियासी, समाजी और तहजीब के मसायल पर मजामीन लिखे. ‘शे’रियात से सियासियात’ तक उनके मजामीन का मजमुआ है. ‘गम-ए-दौरां’ सम्पादन के उनके कौशल का नायाब नमूना है. इस किताब में उन्होंने वतनपरस्ती के रंगों से सराबोर नज़्मे और ग़ज़लें शामिल की है. उनके संपादन में आई दूसरी किताब ‘शिकस्त-ए-ज़िंदा’ है. इस किताब में उन्होंने भारत और दीगर एशियाई मुल्कों में चले आज़ादी के आंदोलन से मुताल्लिक शायरी संकलित की है.

उर्दू से उन्हें बेहद मोहब्बत थी. वे कहा करते थे, ‘‘उर्दू क़ौमी यकजहती की अलामत है. यह प्यार-मोहब्बत की ज़बान है. उर्दू ज़बान को फरोग देने के लिए सबने अपनी क़ुर्बानियां दी हैं.’’ उनका कहना था,‘‘उर्दू को ज़िंदा रखने के लिए हमें सरकार से भीख नहीं मांगनी चाहिए, बल्कि उसके लिए जद्दोजहद करनी होगी.’’ हिंदी और उर्दू दोनों ही ज़बानों में उन्होंने फ़िरक़ापरस्ती के ख़िलाफ़ ख़ूब लिखा. फ़िरक़ापरस्ती को वे मुल्क की तरक्क़ी और इंसानियत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानते थे. अपनी जिंदगी में सख़्त इम्तिहानों से गुजरते हुए भी उन्होंने ख़ुद इन उसूलों पर पुख़्तगी से चलकर दिखाया.

हिंदुस्तान के अदबी राजदूत के तौर पर पर दुनिया के तमाम मुल्कों में गए. साहित्य अकादमी अवार्ड, सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, उ.प्र.उर्दू अकादमी अवार्ड और कुल हिन्द बहादुरशाह ज़फ़र अवार्ड के साथ ही सन् 1971 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से भी नवाज़ा गया. सन् 1978 में अलीगढ़ में हुए दंगे के बाद उन्होंने ‘पद्मश्री’ की उपाधि लौटा दी थी.. निज़ाम के ख़िलाफ़ एहतिजाज करने का यह उनका तरीक़ा था.

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