पंडित नरेंद्र शर्मा | संवेदना और यथार्थ के गीतकार

  • 8:53 pm
  • 28 February 2021

आकाशवाणी के कार्यक्रमों से लेकर फ़िल्मों के संस्कृतनिष्ठ गीतों तक जिस एक शख़्स की छाप हमेशा बराबर मिलती है, वह पंडित नरेंद्र शर्मा हैं. बहुआयामी व्यक्तित्व वाले नरेंद्र शर्मा हिंदी की आन-बान और शान थे. कवि-गीतकार, लेखक, अनुवादक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और प्रशासक – जीवन में जो भी भूमिका मिली उन्होंने अपनी छाप छोड़ी. हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद के वह शुरुआती कवियों में से एक थे. 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में शिरकत की, और अपने गीतों के ज़रिये आज़ादी की चेतना जगाने का काम किया. कविता को नई ज़मीन पर, ज़िंदगी के और क़रीब लाने की कोशिश की.

पंडित नरेंद्र शर्मा की साठ साला सालगिरह पर बंबई में आयोजित कार्यक्रम में हरिवंश राय बच्चन ने कहा कि ‘‘इन चालीस वर्षों में हमारी हिन्दी कविता जितने सोपानों से होकर निकली है, पंडित नरेन्द्र शर्मा उन सब पर बराबर पांव रखते हुए चले हैं. शायद प्रारम्भिक छायावादी, उसके बाद जीवन के संपर्क मांसलता लेते हुए ऐसी कविताएं, प्रगतिशील कविताएं, दार्शनिक कविताएं, सब सोपानों में इनकी अपनी छाप है…मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि प्रेमानुभूति के कवि के रूप में नरेन्द्र जी में जितनी सूक्ष्मताएं हैं और जितना उद्बोधन है, मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं कर रहा हूं, वह आपको हिन्दी के किसी कवि में नहीं मिलेगी.’’

उनके गीतों पर ग़ौर करें, तो उनमें रागात्मक संवेदना और सामाजिक यथार्थवाद मिलता है. नई उम्मीद और भरोसा उनके गीतों का स्थायी भाव है. उनके गीतों में प्रकृति और मानवीय सौन्दर्य है, तो विरह और मिलन की सघन अनुभूतियां भी. संस्कृत, हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं के साथ ही मराठी, बंगाली, गुजराती की भी उन्हें ख़ूब जानकारी थी. ज्योतिष विद्या और आयुर्वेद पर पकड़ रखते थे.

महामना मदनमोहन मालवीय के अख़बार ‘अभ्युदय’ और इलाहाबाद से निकलने वाले एक और अख़बार ‘भारत’ के संपादकीय विभाग से बावस्ता रहे तो देश-दुनिया की समस्याओं से सीधा साबका रहा. उन दिनों इलाहाबाद की पहचान देश की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर थी. छायावाद के तीन प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा तो वहां थे ही, हरिवंश राय बच्चन, फिराक़ गोरखपुरी की कर्मस्थली भी इलाहाबाद ही था.

ज़ाहिर है कि इस माहौल का असर नरेन्द्र शर्मा की ज़िंदगी पर पड़ा. वे भी गीत-कविताएं लिखने लगे. 1931 में उनकी पहली कविता ’चांद’ में छपी. 1934 आते-आते, 21 साल की उम्र में उनका पहला कविता संग्रह ‘शूल-फूल’ आ गया. वह देश की आज़ादी के संघर्षों का दौर था. वह भी अपने लेखन के ज़रिये इस आंदोलन में हिस्सेदारी कर रहे थे.

वामपंथी संगठनों के संपर्क में आने के बाद उनकी कविताओं की चमक और धार में निखार आया. ‘अग्नि शस्य’, ‘पलाश वन’ आदि कविता संग्रह में उनकी कविताओं में मार्क्सवादी दर्शन दिखाई देता है. मिसाल के तौर पर ‘स्वर्ण शस्य’ में कहते हैं,‘‘दो तत्व विरोधी मिले/ जीवन गति, निद्रा गई छीज ! /गतिमय जीवन का जन्म/ आदि में तम-प्रकाश का रति रहस्य.’’ उनकी कविताओं में भाषाई सौंदर्य और यथार्थ का चित्रण एक साथ मिलता है. किसान, कामगार और हाशिए से नीचे के समाज का संघर्ष उनकी कविताओं, गीतों में बार-बार आता है. ‘‘योद्धा को तलवार श्रमिकों को मिलती छैनी/ कृषकों को हल, कवि को मिली लेखनी पैनी/ कहीं शस्ययुत क्षेत्र, कहीं उद्ग्रीव गान है/ हम किसान हैं.’’

सन् 1938 से लेकर 1940 तक नरेन्द्र शर्मा अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी, स्वराज्य भवन में हिंदी अधिकारी रहे. यहां उनका काम महात्मा गांधी के भाषण और दीगर महत्वपूर्ण दस्तावेजों का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करना था. कुछ दिन तक उन्होंने काशी विद्यापीठ में पढ़ाया भी. काशी विद्यापीठ में ही थे कि 1940 में सरकार विरोधी गतिविधियों के आरोप में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. 1943 तक वे जेल में रहे. बनारस, आगरा और देवली की जेलों में शचीन्द्रनाथ सान्याल, सोहनसिंह जोश, जयप्रकाश नारायण और सम्पूर्णानंद आदि के साथ रहे.

1939 में आई ‘प्रवासी के गीत’ वह किताब थी, जिसने हिंदी साहित्य की दुनिया में नरेन्द्र शर्मा को स्थापित कर दिया. ‘प्रवासी के गीत’ न सिर्फ़ आम पाठकों को पसंद आई, बल्कि आलोचकों ने भी इसे ख़ूब सराहा. इस संग्रह में हिन्दी काव्य के श्रेष्ठ प्रेम गीत शामिल हैं. ‘‘आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे / आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगे.’’ लय और छंद में बंधे इन गीतों का असर अर्से तक बना रहा. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखी, तो इस किताब में छायावाद के बाद हिंदी के मानचित्र पर उभरे हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे बड़े कवियों के साथ नरेन्द्र शर्मा का भी उल्लेख किया.

नरेन्द्र शर्मा ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद, सरमायेदारी और सामंतवाद के ख़िलाफ़ लिखा. उनकी प्रतिबद्धता किसानों और कामगारों के प्रति थी. श्रमजीवियों को वह नायक मानते थे और यह भी जानते थे कि यही वर्ग देश में क्रांति करेगा. ‘‘खलिहान खेत में खड़ा हुआ वह नया कृषक/ बिजली का खंभा गाड़ रहा जो बिना हिचक !/ अभिमंत्रित मंत्र-शक्ति से अब तू भी न झिझ क/विद्युत के अश्वारोही का कर अभिनन्दन !/ युग बदला, देता तुझे चुनौती युग-जीवन !’’ (कविता ‘युग बदला’)

देवली कैंप से रिहाई के बाद 1943 में वह बंबई चले गए. उस वक्त हिंदी साहित्यकारों और शायरों का एक बड़ा ठिकाना फ़िल्मी दुनिया थी. कई बड़े लेखक और शायर फ़िल्मों के लिए काम कर रहे थे. ‘बॉम्बे टॉकीज़’ से भगवती चरण वर्मा ने ही उन्हें ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के मालिक हिमांशु राय और देविका रानी से मिलाया. गीतकार के तौर पर नरेन्द्र शर्मा को पहली फ़िल्म ‘हमारी बात’ मिली. 1943 में आई इस फ़िल्म में नौ गीत थे और सभी नरेन्द्र शर्मा ने ही लिखे. इस फ़िल्म में अनिल विश्वास और पारुल घोष द्वारा गाया गीत ‘बादल दल सा निकल चला ये दल मतवाला रे’ ख़ूब चला.

कहने को यह फ़िल्मी गीत था, लेकिन इस गीत में भी उन्होंने बेहतरीन तरीके से अपने क्रांतिकारी विचार पेश कर किए. ‘‘बादल दल सा निकला ये दल मतवाला रे/ हम मस्तों में आन मिले कोई हिम्मतवाला रे/ बिजली सी तड़पन नस-नस में आज नहीं हम अपने बस में/ नये खून में लहर ले रही जीवन-ज्वाला रे/ तूफ़ानों से टक्कर लें हम परबत को दो टूक करें हम/ बहुत दिनों अन्याय का हमने बोझ संभाला रे.’’

भारत छोड़ो आंदोलन के बाद, जब पूरे मुल्क में अंग्रेज़ी दमन चक्र चल रहा था, इस तरह का गीत लिखना भी हिम्मत का काम था. आज भी यह गीत जन-आंदोलनों में गाया जाता है. पहली ही फ़िल्म में उन्होंने यह साबित कर दिखाया कि फ़िल्म की सिचुएशन के हिसाब से गाने लिख सकते हैं. ‘हमारी बात’ के बाद ‘ज्वार भाटा’, ‘मीरा’, ‘वीणा’, ‘उद्धार’, ‘सती अहिल्या’, ‘नरसिंहावतार’, ‘संत जनाबाई’ ‘श्रीकृष्ण दर्शन’ और ‘मालती माधव’ जैसी धार्मिक-संगीतप्रधान फ़िल्में आईं, जिनमें नरेन्द्र शर्मा ने संगीतकार वसंत देसाई और सुधीर फड़के जैसे लोगों के साथ काम किया.

1961 में आई फ़िल्म ‘भाभी की चूड़ियां’ के गानों ने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. ख़ास तौर पर ‘ज्योति कलश छलके..’ गीत आज भी लोगों की स्मृति में है. संस्कृतनिष्ठ हिंदी में लिखे गए इस उत्कृष्ट गीत के अलावा फ़िल्म के बाक़ी गीत ‘मेरा नन्हा कन्हैया घर आया रे’, ‘लाज राखो गिरधारी, मोरी लाल राखो’, ‘‘लौ लगाती गीत गाती’ भी हिट हुए. इस फ़िल्म जबरदस्त कामयाबी के बाद भी उन्हें फ़िल्मों में गीत लिखने के बहुत मौक़े नहीं मिले. 1978 में आई राज कपूर की फ़िल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के शीर्षक गीत के अलावा उनका गीत ‘यशोमति मैया से बोले नंदलाला’ ख़ूब लोकप्रिय हुआ. ‘ढोला ढोल मंजीरा बाजे रे’ (अखंड सौभाग्यवती), ‘भंवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले’ (प्रेम रोग), ‘खेल खेल कर कुलेल नंदजी का लाल’ (दूसरी दुलहन), ‘तुम आशा विश्वास हमारी तुम धरती आकाश..’ (सुबह) जैसे काव्यात्मक गीत नरेन्द्र शर्मा की कलम से ही निकले. ये गीत नज़ीर हैं कि भाषा और शिल्प को लेकर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया.

उन्होंने तमाम ग़ैर-फ़िल्मी गीत भी लिखे. ख़ासतौर पर भजन लिखने में उन्हे महारत थी. उनके भजनों को भीमसेन जोशी और लता मंगेशकर ने भी आवाज़ दी है. भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा से भी जुड़े रहे. 1982 में देश में हुए एशियन गेम का थीम सांग, ‘‘अथ स्वागतम, शुभ स्वागतम/आनंद मंगल मंगलम/नित प्रियं भारत भारतम.’’ उन्हीं का लिखा हुआ है. उनका एक महत्वपूर्ण योगदान आकाशवाणी के कार्यक्रम ‘विविध भारती’ की परिकल्पना और नामकरण था.

उन्होंने न सिर्फ विविध भारती के ‘पंचरंगी कार्यक्रम’ के लिए एक विशेष गीत ‘नाच रे मयूरा खोल कर सहस्त्र नयन’ लिखा, बल्कि कई लोकप्रिय कार्यक्रमों ‘हवा महल’, ‘जयमाला’, ‘मधुमालती’, ‘बेला के फूल’, ‘चौबारा’, ‘छाया गीत’, ‘चित्रशाला’, ‘उदय गान’, ‘गजरा’, ‘बंदनवार’, ‘मंजूषा’, ‘स्वर संगम’, ‘पत्रावली’ आदि की शुरुआत की. कई रूपक लिखे. 1955 से लेकर 1971 तक वह ‘विविध भारती’ के चीफ प्रोड्यूसर रहे. उनके कार्यकाल में आकाशवाणी ने नए मुकाम हासिल किए.

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