फ़ोटोग्राफ़ी के इतिहास पर नए नज़रिये की ज़रूरत

  • 10:48 am
  • 29 May 2020

कैटलॉग | अ शिफ़्टिंग फ़ोकसः फ़ोटोग्राफ़ी इन इंडिया 1850-1900

नई दिल्ली की नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉर्डर्न आर्ट में 15 अक्टूबर 1995 से शुरू होकर यह प्रदर्शनी 13 सितम्बर 1996 को भुवनेश्वर में पूरी हुई.ब्रिटिश लाइब्रेरी के ओरिएण्टल एण्ड इंडिया ऑफ़िस के आर्काव्ज़ से चुनी हुई डेढ़ सौ तस्वीरों की प्रदर्शनी साल भर में देश के 17 अलग-अलग शहरों में लगाई गई. ब्रिटिश काउंसिल की तरफ़ से आयोजित इस प्रदर्शनी के कैटलॉग का जैकेट कुछ अनूठा है. यह दरअसल चार फ़ोल्ड का एक पैनोरमा है – सन् 1860 की यह तस्वीर एलफ़िंस्टन लैण्ड एण्ड प्रेस कम्पनी की तरफ़ से बनाए गए बंदरगाह की है, जिसकी पृष्ठभूमि में फ्रेर रोड के घर और एकदम दाईं ओर ग्रेट इंडियन पेनिन्सुला रेलवे का टर्मिनस दिखाई देता है.

भारत में फ़ोटोग्राफ़ी के इतिहास और उसके विकास को समझने में महत्व वाली तस्वीरों के साथ ही फ़ोटोग्राफ़र सतीश शर्मा और जॉन फाल्कनर के लिखे हुए दो विश्लेषणात्मक लेख भी हैं. प्रदर्शनी का शीर्षक – शिफ़्टिंग फ़ोकस – भी दरअसल इन लेखों का निष्कर्ष है. किसी एतिहासिक छवि में निहित अर्थ सार्वकालिक नहीं होते बल्कि इसके सांस्कृतिक और एतिहासिक संदर्भों से तय किए जा सकते हैं. सतीश शर्मा ने तस्वीरों में निहित ‘औपनिवेशिक नज़रिए’ और फ़ोटोग्राफ़र की निगाह के हवाले से 19वीं सदी के भारत में फ़ोटोग्राफ़ी की पड़ताल की है. जॉन फाल्कनर ने छोटे देग्युरेटाइप स्टुडियो से लेकर सैमुअल बर्न के कमर्शियल स्टुडियो की सफलता को रेखांकित करते हुए तमाम भारतीय और यूरोपीय फ़ोटोग्राफ़र्स के योगदान का उल्लेख किया है.

शुरुआती दौर में हिन्दुस्तानियों की भागीदारी शौकिया फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर रही, और कलकत्ता, बंबई और मद्रास में वे फ़ोटोग्राफ़िक सोसाइटी के ज़रिये सक्रिय रहे. इनकी गतिविधियों की बाबत संक्षेप में कैटलॉग में दर्ज ब्योरा दिलचस्प है. फ़ोटोग्राफ़िक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल के सक्रिय सदस्य राजेंद्रलाल मित्रा 1857 में ट्रेज़रार बने. सोसाइटी का एक उद्देश्य हिन्दुस्तानियों को फ़ोटोग्राफ़ी सिखाने का भी था मगर हुआ यह कि बंगाल में नील कामगारों के साथ ज्यादती के ख़िलाफ़ राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने की वजह से राजेंद्रलाल मित्रा को सोसाइटी से निकाल दिया गया. नतीजा यह कि अधिसंख्य हिन्दुस्तानी सदस्यों ने सोसाइटी का बायकॉट कर दिया.

देश की पहली फ़ोटोग्राफ़िक सोसाइटी 1854 में बंबई में बनी, जिसके संस्थापक सदस्यों में कई हिन्दुस्तानी डॉक्टर और इंजीनियर शामिल थे. सबसे ज़्यादा सक्रिय सदस्य रहे डॉ. नारायन दाजी रहे, जिनके बनाए 31 पोट्रेट फ़ोटोग्राफ़िक सोसाइटी ऑफ बंगाल की 1857 की प्रदर्शनी में रखे गए. डॉक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करते हुए भी 1860 तक उन्होंने बॉम्बे सोसाइटी में भी ख़ूब योगदान किया. फ़ोटोग्राफ़ी की तकनीक में वह इतने दक्ष थे कि 1855 में एलफ़िंस्टन इंस्टीट्यूट में शुरू हुई फ़ोटोग्राफ़ी की क्लास में इन्स्ट्रक्टर के लिए आवेदन किया था हालांकि इस पद पर ज़्यादा तजुर्बेकार फ़ोटोग्राफ़र विलियम एच.एस.क्रॉफोर्ड को तैनाती मिली.

हिन्दुस्तान में फ़ोटोग्राफ़ी के शुरुआती दिनों में इस तरह की क्लास फ़ोटोग्राफ़ी की थ्योरी और प्रैक्टिकल सीखने के लिहाज़ से अनूठी पहल थी. सबसे क़ाबिल शागिर्दों में बंबई के हरीचंद चिंतामन रहे, जिन्होंने 1855 में बेहतरीन फ़ोटो को सालाना इनाम जीता और 1857 से 1880 तक सफल कमर्शियल फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर काम करते रहे. बॉंबे फ़ोटोग्राफ़िक सोसाइटी में वह ख़ूब सक्रिय रहे और उनकी तस्वीरों का एक बड़ा संग्रह 1867 में पेरिस इंटरनेशनल एग़्ज़ीबिशन के लिए चुना गया. फ़ोटोग्राफ़ी क्लास की शुरुआत में ख़ूब लोग जुटे और उनका काम यूरोप के शौक़िया फ़ोटोग्राफ़र के काम की बराबरी करता, मगर बाद में कम लोगों के आने की वजह से यह क्लास बंद हो गई.

मद्रास में फ़ोटोग्राफ़ी की तकनीक के प्रशिक्षण की शुरुआत का क़िस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है. मद्रास स्कूल ऑफ़ इण्डस्ट्रियल आर्ट्स के डॉ.एलेग़्जेंडर हंटर ने 1856 में सरकार से दरख़्वास्त की कि बंबई की तरह का एक कोर्स उनके संस्थान में भी शुरू किया जाए. मद्रास गवर्नमेंट ने नियमित फ़ोटोग्राफ़र देने से इन्कार करते हुए कहा कि किसी प्रशिक्षक के सिखाने का काम कुछ हफ़्तों में पूरा हो जाता है और फिर इस कोर्स की इतनी मांग नहीं है. हालांकि बाद में तय किया गया कि प्रेसीडेंसी के फ़ोटोग्राफ़र कैप्टन लिनिअस ट्रिप हर साल कुछ महीने के लिए स्कूल आकर प्रशिक्षण दिया करेंगे. ट्रिप के सहायक के तौर पर काम करने के साथ ही स्कूल में प्रशिक्षण लेने वाले सी. अय्यासामी ख़ुद भी बेहतरीन फ़ोटोग्राफ़र साबित हुए. 1860 में वह मद्रास स्कूल ऑफ आर्ट्स में फ़ोटोग्राफ़र तैनात हुए. मद्रास फ़ोटोग्राफ़िक सोसाइटी की उस साल की प्रदर्शनी में उनकी कई तस्वीरें शामिल रहीं. ट्रिप का ओहदा ख़त्म हो जाने के बाद भी फ़ोटोग्राफ़ी स्कूल में प्रशिक्षण का सिलसिला जारी रहा और वहां से प्रशिक्षित कई फ़ोटोग्राफ़र ने दक्षिण भारत के फ़ोटोग्राफ़िक डॉक्युमेंटेशन में बहुत योगदान दिया.

ऐसा नहीं कि फ़ोटोग्राफ़ी की सारी गतिविधियां सरकारी संस्थानों तक ही सीमित रही हों. लखनऊ के फ़ोटोग्राफ़र अहमद अली ख़ान के पोर्ट्रेट्स के दो अलबम मिलते हैं, जिनमें 1857 की सैनिक क्रांति के ठीक पहले तक लखनऊ में रहे भारतीय और यूरोपीय लोगों के पोर्ट्रेट मिलते हैं. हालांकि ये तस्वीरें तकनीकी दृष्टि से बहुत उम्दा नहीं हैं मगर एतिहासिक दस्तावेज़ के तौर पर ये बहुत काम की हैं. रेवरेंड हेनरी पॉलहेम्प्टन ने अहमद अली ख़ान ने अपनी कई मुलाक़ातों के हवाले से लिखा है – ‘बहुत दिलदार और उदार क़िस्म के इंसान थे. वह अपनी तस्वीरों के दाम नहीं लेते थे. आपको जितनी तस्वीरें चाहिए, वह बख़ुशी आपको दे दिया करते. मेरा अंदाज़ है कि काग़ज़-केमिकल पर उनका कम से कम सौ पाउण्ड सालाना तो ख़र्च होता ही होगा.’ बाद में लखनऊ के ही एक और हिन्दुस्तानी फ़ोटोग्राफ़र ने बहुत नाम कमाया और वह म्युनिसिपल इंजीनियर दारोगा अब्बास अली थे. ‘द लखनऊ अलबम’ (कलकत्ता, 1874), उनकी पचास तस्वीरों का एक संग्रह ‘अ गाइड टू द सिटी’ और ‘ऐन इलस्ट्रेटेड हिस्टोरिकल अलबम ऑफ़ राजाज़ एण्ड तालुकदार्स ऑफ़ अवध’ (इलाहाबाद, 1880) से इसकी गवाही मिलती है.

उस दौर में राजे-रजवाड़ों के लिए फ़ोटोग्राफ़ी नए क़िस्म का फ़ैशन बन गई. सैमुअल बर्न के मुताबिक चंबा के राजा के पास कई मंहगे कैमरे थे, मगर फ़ोटो खींचने के बजाय उनकी दिलचस्पी अपने यहां आने वाले मेहमानों को कैमरे दिखाने में थी. हालांकि जयपुर के महाराजा राम सिंह और त्रिपुरा के शाही ख़ानदान के लोग फ़ोटोग्राफ़ी का हुनर सीखकर बढ़िया फ़ोटोग्राफ़र भी बने. ऐसे रजवाड़े भी थे कि जहां लोगों में ख़ुद फ़ोटोग्राफ़ी सीखने की कोई ललक नहीं थी, इसलिए उन्होंने स्टेट फ़ोटोग्राफ़र रख लिए. मसलन काशी नरेश ने ब्रज गोपाल ब्रह्मचारी को इस ओहदे पर रखा. यह 1860 के आसपास की बात है.

उस दौर के तमाम हिन्दुस्तानी फ़ोटोग्राफ़र्स में एक नाम है, जिसने दुनिया में धूम मचाई और वह लाला दीनदयाल हैं. 1844 में जन्मे लाला दीनदयाल ने रुड़की के थॉमसन सिविल इंजीनियरिंग कॉलेज से ड्राफ़्ट्समैन की पढ़ाई की और 1870 से फ़ोटोग्राफ़ी करनी शुरू की. यूरोप में उनकी तस्वीरों को हाथोहाथ लिया गया, सर लेपेल ग्रिफ़िन के 1882 में मध्य भारत के दौरे में वह उनके साथ आर्किटेक्चरल फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर गए. ग्वालियर, खजुराहो समेत कई दूसरे शहरों की तस्वीरों का उन्होंने एक बड़ा और अनूठा संग्रह तैयार किया. फिर हैदराबाद के निज़ाम की सरपरस्ती ने उनके काम और शोहरत में ख़ूब इज़ाफ़ा किया. देखा जाए तो भारतीय जन-जीवन और भारतीय वास्तुकला का जितना विविध दस्तावेज़ लाला दीनदयाल तैयार कर सके, यूरोप की किसी फ़र्म के लिए संभव न हुआ. आम लोगों की ज़िंदगी के रंगों से लेकर वायसराय के दौरों और दिल्ली दरबार की छटा की अलबम उनके काम के अलग शेड्स की साक्षी हैं.

19वीं सदी पूरी होते-होते भारतीय फ़ोटोग्राफ़ी फ़र्म भी वैसे ही काम करने लगी थीं, जैसे कि यूरोपीय फ़र्म. द जर्नल ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़िक सोसाइटी ऑफ़ इंडिया ने 1899 में एच.एम. इब्राहिम की एक किताब रहनुमा-ए-फ़ोटोग्राफ़ी-या-उसूल-ए-मुसव्वरी (रूल्स फॉर टेकिंग फ़ोटोग्राफ़) की समीक्षा छापी और इसकी ख़ासी तारीफ़ भी की. इससे हिन्दुस्तानियों में फ़ोटोग्राफ़ी के बारे में बढ़ती दिलचस्पी का अंदाज़ लगाया जा सकता है.

‘हिडेन हिस्ट्रीज़ः द कॉलोनिअल एनकाउण्टर’ में सतीश शर्मा ने लिखा हैं कि औपनिवेशिक दौर में फ़ोटोग्राफ़ी का इस्तेमाल अंग्रेज़ी हुकूमत की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किया गया और बंदूक के मुक़ाबले यह ख़ामोश मगर ताक़तवर हथियार था. तमाम किताबों और तस्वीरों के हवाले से वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि फ़ोटोग्राफ़ी के बारे में हमारी समझ और अभ्यास के इतिहास को विखंडित करके नए नज़रिये से समझने की ज़रूरत है. वह मानते हैं कि फ़ोटोग्राफ़ी की अंग्रेज़ी निगाह हमारी चेतना में इस क़दर पैबस्त है कि इतने वर्षों बाद भी समकालीन भारतीय फ़ोटोग्राफ़र पश्चिम के बाज़ार और वहां के लोगों की निगाहों को सुकून देने वाली सुरम्य तस्वीरें बनाकर ही संतुष्ट हैं – फ़ोटो प्रदर्शनी हों या फ़ोटो बुक, अंग्रेज़ी दौर के फ़ोटोग्राफ़ी क्लब या सोसाइटी के मेम्बरान के काम की याद दिलाते हैं. अपनी तस्वीरों के लिए दाद और मान्यता ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़ी से चाहते हैं.

यों यह प्रदर्शनी का कैटलॉग है मगर मुझे लगता है कि फ़ोटोग्राफ़ी के इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह बड़े काम का दस्तावेज़ है, जिसमें संक्षेप में ही सही विमर्श की विस्तृत शुरुआत के तमाम सूत्र मिल जाते हैं.

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