आंचल से परचम बनाने के हिमायती मजाज़ लखनवी

  • 12:36 pm
  • 19 October 2020

एक कैफ़ियत होती है प्यार. आगे बढ़कर मुहब्बत बनती है. ला-हद होकर इश्क़ हो जाती है. फिर जुनून. और बेहद हो जाए तो दीवानगी कहलाती है. इसी दीवानगी को शायरी का लिबास पहना कर तरन्नुम से पढ़ा जाए तो उसे मजाज़ कहा जाता है.

किसी ने उन्हें ख़ूबसूरत कहा किसी ने ख़ुश शक्ल. लेकिन ख़ुश अख़लाक़ कहने में कहीं दो राय न हुई. ज़्यादातर अलीगढ़ी शेरवानी या/और लखनवी चिकन पहनने वाले मजाज़ खुश मिज़ाज, ख़ुश लिबास, कम बोलने वाले हैं. उनकी हाज़िरजवाबी और चुटीली बातों के तमाम क़िस्से लखनवी लच्छेदार बातों के उदाहरण के तौर पर याद किए जाते हैं.

आप सोचेंगे एक ‘कम्प्लीट पैकेज’ वाला व्यक्तित्व लिए मजाज़ को बेहतरीन और भरपूर ज़िंदगी मिली होगी. सच है और नहीं भी.

बाराबंकी में रुदौली के ज़मींदार सिराज उल हक़ के दो बेटों की मौत के बाद 19 अक्टूबर,1911 को पैदा हुए असरार उल हक़ अम्मी-अब्बू के जग्गन (जगन), सफ़िया – हमीदा – अन्सार के जग्गन भईया हैं.

अब्बू चाहते थे असरार इंजीनियरिंग कर के उन्हीं की तरह सरकारी मुलाज़िम लग जाएं. लखनऊ के ‘अमीनाबाद कॉलेज’ से हाई स्कूल पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज भेजे गए. पढ़ते हुए शायरी कहने लगे.

इस्लाह के लिये फ़ानी बदायूंनी के पास बैठा करते. उस वक़्त तख़ल्लुस ‘शहीद’ हुआ करता था. ‘शहीद’ को ‘मजाज़’ से तब्दील कर लेने का मशवरा देने वाले फ़ानी ने कुछ रोज़ बाद यह कह कर इस्लाह बंद कर दी कि भई, आपका और मेरा अंदाज़ जुदा है.

उर्दू बोलने, उर्दू लिखने, उर्दू पढ़ने, उर्दू खाने, उर्दू पीने, उर्दू ओढ़ने और उर्दू ही बिछाने वाले मजाज़ की ज़हानत को किसी उस्ताद की ज़रूरत भी क्या थी भला!

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे तो वहाँ मिले – फैज़ अहमद फैज़, अली सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी, जां निसार अख़्तर. अब क्या था. शायरी परवान चढ़ने लगी. और इंजीनियरिंग… उसे तो छूटना ही था.

फैज़ की ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग’ और साहिर की ‘ताजमहल’ से भी ज़्यादा मशहूर हुई मजाज़ की ‘आवारा’. पढ़िए या तलत महमूद की आवाज़ में यूट्यूब पर सुनिये तो लगता है उदासी, बेबसी, आवारगी इतनी बुरी शै भी नहीं.

ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल/ जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल/ आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल/ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ/ रास्ते में रुक के दम ले लूँ मिरी आदत नहीं/ लौट कर वापस चला जाऊँ मिरी फ़ितरत नहीं/ और कोई हम-नवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं/ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ/ जी में आता है ये मुर्दा चाँद तारे नोच लूँ/ इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूँ/ एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ/ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ.

तरन्नुम से पढ़ने का अंदाज़ और उनके शेर… लड़कियाँ दीवानी हुई जाती थी. गर्ल्स हॉस्टल में उनके नाम की पर्ची निकलती कि किस ख़ुशक़िस्मत लड़की के तकिये को आज रात ‘आहंग’ (मजाज़ का काव्य संग्रह) का स्पर्श मिलेगा.

अहमद ‘फ़राज़’ की शोहरत में माँओं ने बच्चों के नाम उन जैसे रखे. लेकिन मजाज़ का नाम तो कुंवारी लड़कियों ने क़सम खा-खा कर भविष्य में होने वाली औलादों पर मुक़र्रर कर दिया.

इस्मत चुगताई ने छेड़ते हुए कहा कि लड़कियां तो मजाज़ मर मरती हैं. मजाज़ ने झट से कहा, और शादी पैसे वाले से कर लेती हैं.

हाँ, यही पैसा उनकी मंगेतर छीन ले गया.

वजह वही रिवायत – दौलत. मंगेतर के वालिद अपनी हैसियत से बेहतर दामाद के ख़्वाहिश्मंद थे. गृहस्थी के लिए गुणा-भाग करने वाले अब्बुओं ने इश्क़ से नाज़ुक एहसास की कब क़द्र की थी भला!

मजाज़ देर रात तक तक मुशायरे पढ़ते. दाद लूटते. शराब पीते. दफ़्तर अक्सर देर से आते. ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी करते और नज़्में लिखते इन्क़लाबिया. तो अंग्रेज़ों को बगावत कब पसंद आनी थी!

दिल्ली आकाशवाणी रेडियो की पहली पत्रिका ‘आवाज़’ में बतौर संपादक लगी नौकरी साल भर में ही छूट गई और टूट गयी सगाई भी. मजाज़ के लिये यह झटका था. कला पर रूपये को तरजीह मिली थी. मुल्क़ का ताज़ा बंटवारा हुआ था. परिवार बिखर रहा था. छूट रहे थे दोस्त एहबाब. उसी वक़्त गांधी की हत्या.. दिमाग़ी संतुलन बिगड़ गया. शराब बढ़ गई.

रोएँ न अभी अहल-ए-नज़र हाल पे मेरे/ होना है अभी मुझ को ख़राब और ज़ियादा/ उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ाँ मिरे दिल से/ देखूँगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और ज़ियादा.

रूमानियत की नज़्में कहना. निजी ज़िंदगी में उसी से महरूम होना. साथ ही अत्यधिक संवेदनशीलता ने उन्हें उर्दू शायरी का कीट्स तो बनाया, गंभीर अवसाद का मर्ज़ भी दे दिया.

फिर भी जब बात औरत की आती है, तब यही शायर जिसने अपने इर्द-गिर्द औरतों को हमेशा हिजाब में देखा, कहता है- सर-ए-रहगुज़र छुप-छुपा कर गुज़रना/ ख़ुद अपने ही जज़्बात का ख़ून करना/ हिजाबों में जीना हिजाबों में मरना/ कोई और शय है ये इस्मत नहीं है.

मजाज़ मानते कि माशरे की तस्वीर बदलने के लिये औरतों को आगे आना/लाना होगा. फ़ेमिनिज़्म लफ़्ज़ की पैदाइश को आपने 21वी सदी में जाना होगा लेकिन मजाज़ के यहां मुल्क़ की आज़ादी से भी पहले का ख़्याल है.
दिल-ए-मजरूह (घायल) को मजरूह-तर करने से क्या हासिल/ तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था/ तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन/ तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था.

सिर्फ़ औरत नहीं, एक छोटी बच्ची के लिये मजाज़ का नज़रिया देखिये – इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन/ पतली बाँहें पतली गर्दन/ कैसी सुंदर है क्या कहिए/ नन्ही सी इक सीता कहिए/ हाथ में पीतल की थाली है/ कान में चाँदी की बाली है/ दिल में लेकिन ध्यान नहीं है/ पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है/ हँसना रोना उस का मज़हब/ उस को पूजा से क्या मतलब/ ख़ुद तो आई है मंदिर में/ मन उस का है गुड़िया-घर में.

औरत से इतर मजाज़ की संवेदनशीलता भीड़ के उस आख़िरी इंसान के लिए भी है, जो गरीब है. शोषित है. लेकिन तब वे अपने गीतों से सहलाते नहीं, जोश भरते हैं – जिस रोज़ बग़ावत कर देंगे/ दुनिया में क़यामत कर देंगे/ ख़्वाबों को हक़ीक़त कर देंगे/ मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम.

मजाज़ जितने रूमानी है (मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद/ उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई) उतने ही इन्क़लाबी भी. फ़र्क़ बस इतना है ‘आम इंकलाबी शायर इन्कलाब को लेकर गरजते हैं, सीना कूटते हैं. जबकि मजाज़ इन्क़लाब में भी हुस्न ढूँढ़कर गा लेते हैं – बोल कि तेरी ख़िदमत की है/ बोल कि तेरा काम किया है/ बोल कि तेरे फल खाए हैं/ बोल कि तेरा दूध पिया है/ बोल कि हम ने हश्र उठाया/ बोल कि हम से हश्र उठा है/ बोल कि हम से जागी दुनिया/ बोल कि हम से जागी धरती/ बोल! अरी ओ धरती बोल! राज सिंघासन डाँवाडोल.

लगभग शराब छोड़ देने के बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी के एक प्रोग्राम में मजाज़ ने अपनी नज़्में गाईं. हमेशा की तरह दाद लूटी. महफ़िल खत्म हुई. कुछ दोस्तों के इसरार पर फिर पीने बैठ गये. दिसंबर की सर्द रात थी. पीते-पीते खुली छत बेसुध हो गए. सुबह लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.

लेकिन मजाज़ जैसे लोग मरते कहाँ हैं! उनकी नज़्में, गज़लें और सबसे बढ़कर मजाज़ीफ़े (मजाज़ के लतीफ़े) लखनऊ रहने तक शहर की हवा में तैरते रहेंगें.

(नाज़िश स्वतंत्र रूप से लिखती हैं. लखनऊ में रहती हैं.)

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