लॉकडाउन में ज़िंदगी | सेल्फ़ पोर्ट्रेट इन द टाइम ऑफ़ सोशल डिस्टेसिंग

  • 7:59 pm
  • 9 November 2020

‘सेल्फ़ पोर्ट्रेट इन द टाइम ऑफ़ सोशल डिस्टेसिंग’ लॉकडाउन के दिनों में ज़िंदगी का यथार्थ है. दिल्ली के फ़ोटोग्राफ़र पार्थिव शाह का यह फ़ोटोग्राफ़ी प्रोजेक्ट थोड़े से लोगों की तस्वीरों और ‘सेल्फ़ी’ की प्रचलित परिभाषा से कहीं आगे अपने सब्जेक्ट के मनोभावों का ख़ूबसूरत और असरदार दस्तावेज़ है.

लॉकडाउन के दिनों जब घरों में बंद बहुत से लोग बदली हुई परिस्थितियों की आदत डालने की कोशिश कर रहे थे, सृजन की दुनिया से वाबस्ता लोगों की फ़िक्र उन असामान्य परिस्थितियों की छवियाँ सहेजने की थी. और अब जब ज़िंदगी पटरी पर लौटने लगी है, बेचैनी की धुंध कम हुई है और उन दिनों की छवियाँ ज़ेहन से धुंधलाने लगी हैं तो उन दिनों की सृजनात्मक फ़िक्र का महत्व और बढ़ जाता है.

सेल्फ़ पोर्ट्रेट इन द टाइम ऑफ़ सोशल डिस्टेसिंग’ ऐसा ही एक दस्तावेज़ है. दिल्ली के फ़ोटोग्राफ़र पार्थिव शाह का यह फ़ोटोग्राफ़ी प्रोजेक्ट थोड़े से लोगों की तस्वीरों और ‘सेल्फ़ी’ की प्रचलित परिभाषा से कहीं आगे अपने सब्जेक्ट के मनोभावों का ख़ूबसूरत और असरदार दस्तावेज़ है. दुनिया से कटे होने और एकांत के उन दिनों में ख़ुद की तलाश के सवाल और उनके जवाब भी हैं.

इस प्रोजेक्ट में उन्होंने देश और दुनिया भर से कलाकारों, फ़ोटोग्राफ़र, आर्किटेक्ट, लेखक, कवि, पत्रकार, शिक्षाविद् और दूसरे पेशे से जुड़े लोगों को शामिल किया हैं. डेढ़ सौ से ज़्यादा लोगों ने लॉकडाउन के दिनों में अपनी रोज़ की गतिविधियों के बारे में, ख़ुद को सक्रिय और व्यस्त रखने वाले कामों और अचानक बदली हुई परिस्थितियों में जीने की अपनी मनोदशा के बारे में लिखा है, अपनी तस्वीरें साझा की हैं.

दृक् के संस्थापक, फ़ोटोग्राफ़र और सोशल एक्टीविस्ट शाहिदुल आलम बंगलादेश में हुए चुनाव के दिनों में सरकार के कोप का निशाना बने थे. तब उन्हें ढाई महीने से ज़्यादा वक़्त तक जेल में रहना पड़ा था. शाहिदुल आलम लिखते हैं,
“5 अगस्त 2018 को गिरफ्तारी के बाद से, मेरी आवाजाही सीमित हो गई है. पहली बात, क्योंकि मैं जेल में था, और वहाँ से लौटने के बाद, सुरक्षा कारणों से. साइकिल पर चलने और आज़ादी से कहीं भी घूमने का ज़माना गया. कोरोना ने उस एकाकीपन में एक नया पहलू और जोड़ दिया है, लेकिन यह वक्त मैंने ऐसे काम करने में लगाया, जिन्हें करने के लिए पहले मेरे पास वक़्त ही नहीं था. मैंने बरसते हुए पानी की तस्वीरें बनाईं, बादलों की और कैक्टस के फूलों पर ओस की बूंदों की भी. रात को, मैं सड़कों पर भात के लिए बिलखते हुए लोगों की फ़ोटो खींचता हूँ. हमारा बरामदा और हमारी छत फ़िलहाल मेरा स्टूडियो, मेरी दुनिया, मेरा कैनवस सब कुछ हैं.”

लेखक अमिताव कुमार की तस्वीर में किताबें पास रखे हुए वह इत्मीनान से बाथटब में पढ़ते हुए दिखाई देते हैं. बाथटब में हालांकि पानी नहीं है. वह लिखते हैं,“लेखकों के लिए, इस तरह का थोपा हुआ एकांतवास कुछ भी असामान्य नहीं है, लेकिन बाक़ी दुनिया की तरह ही मैं भी भटकाव की स्थिति में हूँ. बहुत ख़ुशनसीब हूँ कि कोई क्लेश नहीं है.”

फ़िल्म अभिनेत्री शहाना गोस्वामी ने अपने घर के एक कोने की तस्वीर साझा करते हुए लिखा है कि वहाँ अकेला एक पौधा ही है, जो उनका सजीव संगी है.

“मेरे लिविंग रूम का यह अव्यवस्थित छोटा-सा कोना मेरी छोटी-सी दुनिया बन गई है. मैं दिन भर यहीं बैठी रहती हूँ – एक साथ तमाम किताबें पढ़ते हुए, रिमोट पास है तो सारे टीवी शो और फ़िल्में देखती रही हूँ, और हाल ही में ख़रीदी हुई छोटी-सी मेज़ पर लैपटॉप रखकर काम करती हूँ, इसी पर रखकर अपनी डायरी लिखती हूँ और खाना भी खाती हूँ. यह फ़्रेंच प्रेस भरी जाती है और ख़ाली भी हो जाती है मगर इन दिनों मेरी ज़िंदगी के बेतरतीब नक्शे का हिस्सा बनी यहीं पड़ी रहती है. एक छोटा-सा स्पीकर है, जिससे झरता अलग-अलग रंग का संगीत वर्कआउट के वक़्त मेरा साथ देता है, एक प्लेलिस्ट है, जिसके गाने पढ़ते समय मेरा चित्त शांत रखते हैं, गाने जिनके साथ मैं एक रात गुनगुनाना चाहती हूँ. एडेप्टर और चार्जर के उलझे हुए लाल-सफ़ेद तार हैं, जिनकी वजह से तमाम बैटरियाँ चार्ज होती रहती हैं. और जब दिन ढ़लने लगता है और सांझ उतरने लगती है, अकेले काले तार से जुड़े लैंप की रोशनी में यह सब कुछ ऐसे ही पड़ा रहता है. पास में रखा हुआ यह छोटा-सा पौधा अकेला ऐसा संगी है, जो रोज़ बस थोड़ा-सा पानी मांगता है. और हर रोज़, जहाँ तक मुझे लगता है कि अपना वर्कआउट ख़त्म करके, नहाकर तरोताज़ा होने के बाद भी शाम तक मैं ख़ुद को इन्हीं कपड़ों में, इसी छोटे-से कोने में बैठी हुई मिलूंगी. हालांकि लगातार की यह बेतरतीबी जीते हुए अब इसकी आदत-सी हो गई है.”

पार्थिव शाह का कहना है कि महामारी के दिनों में दूसरों से दूर रहने की ज़रूरत ने मुझे अंतर्मन में झांकने को प्रेरित किया. आत्ममंथन या अन्तर्दर्शन – सुनने में बहुत दार्शनिक लग सकता है – और रूमी से लेकर आदि शंकराचार्य तक इस बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है – मगर सच यही है कि उन दिनों में सोचने और तर्क-वितर्क करने, सीखने और भूलने की प्रक्रिया बहुत तेज़ हो गई थी. मुझे लगा कि औरों के साथ भी तो ऐसा हो रहा होगा. वे क्या सोच रहे हैं? बदली हुई स्थिति का मुकाबला वे कैसे कर रहे हैं? और खुद को किस तरह सक्रिय रखते हैं? इन्हीं सवालों के जवाब की तलाश से इस प्रोजेक्ट की शुरूआत हुई.

इन तस्वीरों की किताब बनाने का काम पूरा होने को है. उनका इरादा इन तस्वीरों की प्रदर्शनी लगाने का भी है.

पार्थिव शाह ने 1986 से 2002 तक मिलों में काम करने वाले उन प्रवासी मजदूरों पर काम किया है, जो मिलें बंद होने से बेरोज़गार हो चुके थे और जिनके पास रोजगार का कोई और विकल्प भी नहीं था. 2003 में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस और एम्सटर्डम यूनिवर्सिटी प्रेस से उनकी पहली फ़ोटो बुक ‘वर्किंग इन द मिल नो मोर’ आई. इसके पहले इंग्लैंड में भारतीय मूल के लोगों का उनका फ़ोटो डॉक्यूमेंटेशन ‘फ़िगर्स, फ़ैक्ट्स, फ़ीलिंग्ज़ – अ डायरेक्ट डाएसपोरिक डायलॉग’ की पहले प्रदर्शनी हुई और फिर सीएमएसी से कैटलॉग की शक़्ल में छपकर आया. दिल्ली के ट्रांसजेंडर्स पर भी उन्होंने काम किया है.

कवर | फ़ोटोग्राफ़र शाहिदुल आलम

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