पेरिस ओलंपिक | जुनूँ का नाम उछलता रहा ज़माने में

कल यानी आठ अगस्त की रात को पेरिस के स्टेड डी फ़्रांस में पुरुषों की जेवलिन स्पर्धा के अपने पहले प्रयास में जब पाकिस्तान के अरशद नदीम रनअप से चूके और फ़ाउल कर बैठे, तो लगा कि वे दबाव में हैं. लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और सोच रखा था. उनके दूसरे प्रयास में उनके हाथ से निकले भाले ने एक ऐसी अविस्मरणीय उड़ान भरी, जो दुनिया के खेल इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गई. एक अकेली ऐसी उड़ान जिसने एथलेटिक्स की दुनिया में नदीम को लेजेंड बना दिया.

सच तो ये है कि दूसरे प्रयास में नदीम के भाले की 92.97 मीटर दूरी की इस उड़ान ने न केवल उनके लिए स्वर्ण पदक सुनिश्चित कर दिया था बल्कि औरों के लिए स्वर्ण पदक के रास्ते भी बंद कर दिए थे. अब कोई चमत्कारी थ्रो ही नदीम से स्वर्ण पदक छीन सकती थी और हम जानते हैं इस तरह के चमत्कार रोज़-रोज़ नहीं होते हैं. क्या ही कमाल वे करते हैं कि एक प्रतियोगिता की छह थ्रो में वे 90+मीटर की दो-दो थ्रो करते हैं और नीदरलैंड के एंड्रियास थोरकिल्डसन द्वारा 2008 के बीजिंग ओलंपिक में स्थापित 90.57 मीटर के पिछले ओलंपिक रिकॉर्ड को ध्वस्त कर देते हैं. वे एक ऐसी थ्रो को अंजाम देते हैं जो अब तक कि छठी सबसे लंबी थ्रो थी.

ये नदीम की दूसरी थ्रो केवल 92.97 मीटर की उड़ान भर नहीं थी बल्कि ये पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब के सुदूर कोने में स्थित एक छोटे से गांव मियां चुन्नू से पेरिस तक की लंबी उड़ान थीं. एक गुमनाम ज़िंदगी से शोहरत की बुलंदियों तक पहुँचाने की उड़ान. अगर इस 92.97 मीटर की उड़ान के दो बिंदुओं को देखेंगे तो इसके एक छोर पर मियां चुन्नू और दूसरे छोर पर पेरिस दिखाई देगा. दरअसल ये उड़ान उनकी इन दो बिंदुओं के बीच की मुश्किलों और संघर्षों से भरी यात्रा का एक ख़ूबसूरत रूपक है.

यह बात आज अतिश्योक्ति लग सकती है लेकिन यह तय है कि आने वाली दुनिया में वे किसी किंवदंती की तरह ही याद किए जाएंगे, जैसे कि हिंदुस्तान में ध्यानचंद को या मिल्खा सिंह को याद किया जाता है.

उनकी यह जीत इसलिए और भी ज़्यादा शानदार है कि ये असमानों के बीच का मुक़ाबला था. एक तरफ नीरज, वेबर, वादलेच जैसे सुविधा सम्पन्न प्रतिभागी थे तो दूसरी ओर येगो और अरशद नदीम जैसे प्रतिभागी, जिन्हें अभ्यास के एक भाले को बदलने के लिए भी जनता की तरफ़ देखना पड़ता हो. यह दो विपरीत ध्रुवों के बीच मुक़ाबला था. एक तरफ़ वे प्रतिभागी थे जिन्हें विश्व के सर्वश्रेष्ठ कोच और इस समय विश्व में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ तकनीक और सुविधाओं के साथ ट्रेनिंग उपलब्ध थी और दूसरी तरफ अरशद नदीम जैसे खिलाड़ी जिनकी ट्रेनिंग सामान्यतः बहुत ही साधारण और औसत दर्जे की सुविधाओं और उपकरणों से होती है. हालांकि उन्होंने कुछ समय दक्षिण अफ्रीका के कोच टेरसियस लिबेनबर्ग से भी ट्रेनिंग ली है.

पहले दर्ज़े के खिलाड़ी सुविधाओं से अपनी प्रतिभा को निखारते हैं और दूसरे दर्ज़े के खिलाड़ी अपनी प्रतिभा से सुविधाओं की भरपाई करते हैं.

अरशद ऐसे ही खिलाड़ी हैं, जो बचपन से ही बेहद प्रतिभाशाली लेकिन अभावों की दुनिया में बड़े होते हैं. जिनके लिए नॉन वेज खाना भी लग्ज़री होता है. जिसे अपने सबसे प्रिय खेल क्रिकेट को इसलिए छोड़ना पड़ता है कि उस खेल के ख़र्चों को उनका परिवार वहन नहीं कर सकता था. वे एक इतने ग़रीब मुल्क से आते हैं जो पेरिस ओलंपिक में भाग लेने वाले केवल सात प्रतिभागियों का ख़र्च उठाने की कुव्वत नहीं रखता और अंततः एक कमेटी यह तय करती है कि देश केवल नदीम और उसके कोच की हवाई यात्रा का ख़र्च वहन करेगा. एक ऐसा खिलाड़ी जिसके अंतरराष्ट्रीय प्रतिगोगिताओं में भाग लेने का इंतज़ाम उसके गांव वाले मिलकर करते हैं.

लेकिन प्रतिभाएं सुविधाओं की मोहताज कहाँ होती है. वो अपना रास्ता ख़ुद बनाती है. ऐसे लोग लीक पर नहीं चलते, वे ख़ुद लीक बनाते हैं. बहते निर्मल पानी को भला कौन रोक सकता है. लाख चट्टानों के होने के बावजूद वो अपना रास्ता बना ही लेता है.

अरशद नदीम भी ऐसे ही है. अभावों की कोई भी बाधा उनका रास्ता कहां रोक सकती थी. उन्होंने भी अपना रास्ता ख़ुद बनाया. मियां चुन्नू से पेरिस तक. गुमनामी से शोहरत तक. आम से विशिष्ट तक. खिलाड़ी से लेजेंड बनने तक.

सही कहें तो गुदड़ी के लाल ऐसे ही होते हैं.
नदीम को सोने का तमग़ा मुबारक. जीत मुबारक.

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