तमाशा मेरे आगे | यादों के हादसे वाया बनिहाल

सुबह की पहली चाय हम तीनों—माँ, रजनी और मैं— डाइनिंग टेबल पर इकट्ठे ही पीते हैं. दूसरी चाय के लिए माँ टेबल छोड़ अपने बिस्तर की ओर चल देती हैं. उस पहले दौर में हम दोनों अपना-अपना अख़बार भी साथ में चुसक रहे होते हैं. रजनी का ‘हिन्दू’ और मेरा ‘एक्सप्रेस’. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि माँ एक अख़बार अपनी तरफ़ खींच लेती हैं और फिर चाहे चश्मा पहना हो या नहीं, मोटी-मोटी हेडलाइन या रंगीन तस्वीरों पर वो ग़ौर कर ही लेती हैं.

बायसरन/पहलगाम का हादसा 22 अप्रैल को हुआ था, हालाँकि कुछ ख़बरें उसी शाम हमने टीवी पर देखीं पर माँ को उस बारे में कुछ पता नहीं चला. 23 तारीख़ की सुबह जब हम चाय पी रहे थे तो माँ के सामने पड़े अख़बार में मोटे लाल अक्षरों में छपा था Terrorists kill tourists in Kashmir. बिना चश्मे के भी ये लफ़्ज़ माँ को समझ आ गए होंगे. कुछ देर उसे घूरने के बाद चाय के मग को अपनी तरफ़ सरकाकर माँ ने अख़बार परे कर दिया. दो घूँट चाय पी, रजनी की तरफ देखा और यकायक उनके मुँह से निकला ‘बनिहाल’. उस वक़्त मेरा ध्यान अख़बार में था और रजनी माँ के लिए चाय मग से कटोरी में उंडेल रही थी. ‘बनिहाल’ बोलते हुए माँ के हाव-भाव मैं नहीं देख सका. माँ की तोतली ज़बान से निकला वो शब्द रजनी को तो समझ नहीं आया पर उसने मेरे कान खड़े कर दिए. मैंने सोचा कि इस बारे में उनसे पूछूँ या बात करुँ पर उनकी सुस्त तबियत देख मैंने कुरेदना ठीक नहीं समझा.

बनिहाल माँ को कैसे याद आया, यह समझने के लिए इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने का एक-एक शब्द मैंने दो बार पढ़ लिया. उस पेज पर बनिहाल का कोई ज़िक्र न था. वो पेज तो छोड़िये अगले तीन पन्नों पर भी पहलगाम, बायसरन, अनन्तनाग, पुलवामा, कश्मीर जैसे सब नाम थे, पर बनिहाल नहीं था. बनिहाल उनके ज़ेहन के किस कोने में छुपा था जो तब तारी हो गया. माँ की याददाश्त अब भी कितनी अच्छी है, ये सोच कर मैं हैरान था. बनिहाल का नाम ही उन्होंने शायद 40 साल बाद लिया होगा.

आजकल कश्मीर जाने वाले सैलानियों को बनिहाल के छोटे से गांव से कोई सरोकार न होगा, ख़ासतौर पे उन लोगों को जो हवाई जहाज़ से उड़ कर कश्मीर पहुंचते हैं, पर एक वक्त था कि सड़क के रास्ते पठानकोट, जम्मू से होकर कश्मीर वादी को जाने वाला हर मुसाफ़िर बनिहाल से वाकिफ़ था. यह वो नाम था, जिसे सुन कर कुछ लोग डर जाते थे और बाक़ी अपनी ख़ैरियत के लिए रब को याद करते थे.

आख़िरी बार माँ कश्मीर पिता जी के साथ क़रीब 30 साल पहले गई थीं यानि सन् 1985 के आसपास. इसके बाद वो कश्मीर को याद तो करती रहीं पर जा न सकीं. कभी पिता जी की ख़राब सेहत के चलते और कभी घर की मसरूफ़ियत की वजह से. इसके बावज़ूद कश्मीर से उनका प्यार और श्रीनगर की उनकी चाहत बरकरार रही. वहां जाने वालों को और वहां से आने वालों के साथ उनका एक ख़ास रिश्ता बना रहता, ख़बर मिलती रहती, उन्हें ये हमेशा पता रहता कि कश्मीर के सियासी और समाजी हालात कैसे हैं.

कश्मीर से आने वाले अख़रोट, वहाँ के राजमाः, वहां का केसर, श्रीनगर के आड़ू, बादाम और आलू बुखारे, वहां के फ़िरन, शालें, लकड़ी या पेपर मशे का सामान, और दिल्ली में काम न आने वाली कांगड़ी हर मौसम में अपने आप घर पहुँच जाते. माँ मुतमुईन हो जाती कि उनका कश्मीर ख़ैरियत से है.

हमारे बचपन से ही माँ को कश्मीर जाने की लत लग चुकी थी. माँ पिताजी पहली बार कश्मीर शायद 1954 या 1955 में गए थे, हमारे आने से बहुत पहले. दोनों को ही कश्मीर, वहां की वादियों, झीलों, मौसम, वहां के फ़ल, खाने और लोगों से बहुत प्यार था. घर में रह-रह कर कश्मीर की बातें होती थीं. मुझे याद नहीं हमारी कोई भी गर्मी की या दशहरे की छुट्टियाँ पहाड़ों के सिवा कहीं और बीतीं हों. कश्मीर, मसूरी, शिमला, नैनीताल, डलहौज़ी, जम्मू, काँगड़ा, दार्जिलिंग— आप पहाड़ का नाम लीजिए माँ को वहां जाना होता था. हमारे नाना माँ को कहते थे, ‘तुम्हारे पाँव के नीचे पहिये हैं, तुम टिक के बैठ नहीं सकतीं.’

माँ का बस चलता तो वो किसी रोमा जिप्सी की तरह घूमती ही रहतीं, फक्कड़, एक जगह से दूसरी जगह, एक गांव से दूसरे, एक शहर से दूसरे. मैं अक्सर सोचता था कि ऐसी घुमक्कड़ी ही करनी थी तो शादी क्यों की, घर क्यों बसाया, बच्चे क्यों पैदा किये. मस्ती करतीं, घूमती, सैर करती और मज़े लेती दुनिया के. हम बच्चों को बहुत देर में समझ आए कि घर में खाना बनाना या घर का और कोई काम करना माँ को क्यों अच्छा नहीं लगता था, वो बस घूमना चाहती थी, बिना कोई ज़िम्मेदारी उठाए, बिना किसी लाग-लपेट के. उन दिनों वो माँ कम और अच्छी दोस्त ज्यादा थी.

बाज़ साल तो माँ कश्मीर मई और अक्टूबर दोनों महीनों में घूमने चली गई. ये वो वक़्त था जब हिंदी फ़िल्मों पे भी कश्मीर का भूत सवार था. हर दूसरी फ़िल्म कश्मीर की घाटियों में ही शूट होती थी. कश्मीर में गुलमर्ग, खिल्लनमर्ग और टंगमर्ग उनके चहेते इलाक़े थे. वैसे श्रीनगर शहर और पहलगाम भी उन्हें उतने ही पसंद थे.

डल लेक के कोने से बुलेवार्ड पर चलते हुए शंकराचार्य मंदिर तक कच्ची पगडण्डी पे खड़ी चढ़ाई. बुलेवार्ड पर, झील के साथ-साथ, आगे 4 किलोमीटर पैदल चलते हुए मुग़ल गार्डन्स तक जाना. मुग़ल गार्डन्स के बाहर से ही रोडवेज़ की बस या जोंगा टेम्पो ले हम कभी-कभी सोनमर्ग की तरफ़ भी निकल जाते. उन दिनों सोनमर्ग से घोड़े या ख़च्चर लेकर इंडस यानी सिंधु नदी के पार हम थाजीवास ग्लेशियर देखने भी जाते थे. सिंधु नदी के पानी जैसा स्वाद मुझे आ तक किसी पानी में नहीं मिला. वेरीनाग से निकली झेलम नदी के किनारे पैदल चलकर वापस डल लेक तक आ जाने में हम लोग थक के पस्त हो चुके होते थे.

पूरे दिन के लिए सालम शिकारा लिए डल झील में मौज मस्ती, वहां से निगीन और वुलर झीलों तक जाना, चार चिनार और दूसरे टापुओं तक की घुमक्कड़ी से माँ का दिल कभी न भरता. किसी साल होटल में तो किसी साल हाउस बोट में ठहरना लाज़मी होता. कभी-कभी वो गांदेरबल में खीर भवानी मंदिर तक भी निकल पड़ती जहाँ के सेंध चश्मा के पानी से उन्हें ख़ास लगाव था.

हर साल रंग बिरंगे, भड़कीले कश्मीरी पहनावे पहन और चांदी के आभूषणों में लदी माँ की कितनी ही तस्वीरेँ घर में मिल जातीं. उन दिनों पिता जी को भी तस्वीरें खींचने का बहुत शौक़ था. उनके पास कोडक बॉक्स कैमरा था जिसे वो साथ लिए-लिए घुमते थे और माँ की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें खींचते थे. 2बी साइज के वो छोटे प्रिंट अब धुंधले पड़ने लगे हैं, जिनमें हम सब के चेहरों से बड़े घोड़े या ख़च्चर के मुँह और गर्दन दीखते हैं.

ख़ैर, बनिहाल पर वापस लौटते हैं. जम्मू और कश्मीर की शाहराह (हाईवे) पर अब जहाँ जवाहर टनल है, वो सड़क ठीक बनिहाल पास के नीचे है. पास यानी दर्रा, किसी पहाड़ से उसके दूसरी तरफ खुलने वाली वादी का ऊंचाई वाला पार करने का रास्ता. कश्मीर घाटी में उतरने से पहले बनिहाल उस रास्ते का सबसे ऊँचा स्थान हुआ करता था, जहाँ चढ़ते-चढ़ते पुरानी बसों की सांस फूलने लगती थी और वो खच-खच करती, धुआं उगलती बड़ी मुश्किल से ऊपर तक पहुँचती थीं. उस रास्ते की वो सबसे ठंडी जगह हुआ करती थी, जहाँ से हलकी बर्फ़ से लदे सफ़ेद पहाड़ पास ही दिख जाते थे. मौसम ख़राब होने पर बनिहाल पास पे बहुत कोहरा रहता था और वहां बर्फ़ गिरती भी थी. वैसे कश्मीरी और डोगरी भाषा में बनिहाल के माने ही होते हैं बर्फ़ानी तूफ़ान.

पीर पंजाल पहाड़ियों को चीरते 7,100 फुट से भी ज़्यादा ऊंचे बनिहाल दर्रे के लिए उन दिनों कहा जाता था कि वो ‘वादियों और दिलों को जोड़ता’ है. दर्रे के ऊपर सड़क बहुत संकरी और घुमावदार थी, एक बस और फ़ौजियों की एक जीप बमुश्किल ही इकट्ठे निकल पाती थीं. दोनों तरफ़ गहरी खाई और ढलान, जिसके नीचे देखने में भी डर लगता था. ये दर्रा काफ़ी लंबा चलता है और इसकी पहाड़ियों से उतरने वाले नालों में पानी तेज़ बहाव से आता है. इन्हीं में से एक है शैतानी नाला जो अक्सर लैंडस्लाइड (भूस्खलन) का सबब बनता है.
बनिहाल को हमेशा से जम्मू और श्रीनगर को जोड़ने वाला प्रवेश द्वार माना जाता है. इसके ठीक नीचे बनी 2.5 किलोमीटर लंबी जवाहर सुरंग और अब बनिहाल-काजीगुंड रेल सुरंग (भारत की सबसे लंबी) ने प्रसिद्ध बना दिया है.


पहलगामः 1969, घोड़े पर सवार लेखक और पास में खड़ी हुई माँ.

1960 से 1980 तक सुबह-सुबह जम्मू से छूटी बस में अधखुली आंखों से खिड़की के पार देखे कई नज़ारे मैं भूल नहीं सकता. मैं तो ख़ैर बच्चा था पर माँ मेरे से भी ज़्यादा बच्ची और ज़िद्दी थी. पापाजी बताते थे, माँ को अगर खिड़की वाली सीट न मिले तो वो नाराज़ हो जाती थी. सब यात्रियों के कहने के बावजूद ज़बरदस्त ठण्ड में भी वो खिड़की खुली रखती और सर खिड़की से बाहर निकाल कर झांकती रहती थी. उन्हें उलटी न आए इसलिए वो आम पापड और खट्टा चूरन हर वक़्त चबाती रहतीं. मुझे याद है उनके गोरे चेहरे और लाल हो रहे गालों पर नाक से निकलती पानी-सी धार बहती रहती थी, जिसे वो बार बार अपनी क़मीज़ के बाज़ू से पोंछ लेती थी. ठण्ड से उनका चेहरा और आँखें सूज से जातीं पर वो बस की खिड़की बंद नहीं करती थी.

मुझे ये भी याद है कि बनिहाल पास के ऊपर फ़ौजियों की टोली अपनी छोटी-सी कोठरी में तैनात रहती थी. वहां बस और ट्रक आदि को ठीक करने के लिए एक जुगाड़ू टाइप के मैकेनिक की दुकान भी थी. पास से बीस मीटर नीचे चाय-पकौड़ों की कुछ दुकानें, कुछ गरम कपड़े और जूते बेचने वाले कश्मीरियों के कच्चे-पक्के खोखे भी होते थे. वहां की जो सबसे साफ़ याद मेरे जेहन में है, वो है पास के ठीक ऊपर तारों से बंधा आसमान को छेदता ऊँचा लंबा एंटेना जिसका ऊपर वाला हिस्सा हमेशा बादलों या धुंध में छुपा रहता था. उस एंटेना के नीचे सर्दी में ठिठुरते दो फ़ौजी एक वायरलेस मशीन पर कुछ अजीब से मैसेज देते रहते थे, “टैंगो चार्ली ओवर”.

बनिहाल पास के नीचे बस आधा घंटे के लिए रुकती थी. बस के सभी यात्री वहां चाय सुट्टा लगाकर ताज़ादम हो जाते थे. यहाँ माँ दो गिलास चाय पीती थी. सब लोग एक गिलास से तृप्त हो जाते पर माँ माँ थी, दो बड़े गिलास गरमा गर्म चाय, बस. बनिहाल पास के बाद वादी के नज़ारे ख़ूबसूरत और हसीन हो जाते थे, हरे, चमकते पहाड़, ज़िंदगी और ख़ुशी से भरे दीखते थे. उस तरफ़ की हवा में एक ख़ास मनमोहक ख़ुशबू होती थी. बनिहाल पास के बाद रास्ते भर फ़ल, सब्ज़ी, दूध, क़हवा, मक्खन और बड़ी-बड़ी नान नुमा रोटियां बेचने वाले लम्बे ऊँचे कद के गोरे-चिट्टे सेहतमंद गुज्जर जहाँ-तहाँ मिल जाते और बस में भी चढ़ आते. उन दिनों में समझ न आने वाली उनकी डोगरी भाषा आज मुझे बहुत अच्छी लगती है.

गज़ब, पर बनिहाल क्यों?

सन 1962 में दिवाली 28 अक्टूबर को थी. हम श्रीनगर में थे और हमें 24 को दिल्ली वापस पहुंचना था. उसी बरस 21 अक्टूबर (1962) को चीन ने हिन्दुस्तान पर हमला बोलकर जंग छेड़ दी. 18 अक्टूबर से हम लोग श्रीनगर में थे और 21 तारीख़ को हमें होटल छोड़ने का आदेश हो गया. फ़ौज का आर्डर था, हम लोग श्रीनगर के बस अड्डे पर रात बिताने को मजबूर थे, कोई बस शाम को जम्मू की तरफ़ नहीं छोड़ी गई. वैसे भी नीचे से फ़ौज के ट्रक ऊपर कश्मीर की तरफ आ रहे थे. सड़क संकरी और एकतरफ़ा थी. हमारी तरह दो सौ से ज़्यादा परिवार अक्टूबर की ठण्ड में खुले आसमान के नीचे रात गुज़ारने पर मज़बूर थे, कोई कुछ बोल नहीं सकता था, जो थोड़ा खाने का सामान सबके पास था वो आपस में मिल-बाँट के खाया जा रहा था.

सुबह पांच बजे तीन बसें और मिलिट्री के चार ट्रक जम्मू के लिए रवाना किए गए. एक बस में हम पांच लोग भी थे, माँ पिताजी, मेरी बड़ी बहन और मुझ से छोटा एक भाई. नींद में झूलते, थकान और ठण्ड से लाचार, पर चुप. आवाज़ निकालना तो दूर. हम सुबक कर रो भी नहीं सकते थे. हमारी बसों और ट्रकों का कारवां बार-बार इसलिए रोक दिया जाता ताकि ऊपर आने वाली मिलिट्री की गाड़ियों को पहले रास्ता दिया जा सके. शाम चार बजे तक हम बनिहाल पहुंचे, जहाँ से आगे नीचे जाने की सख़्त मनाही थी. हमें वो रात बस के अंदर ही बितानी थी. डरे, थके और दुबके से हम हर आहट पर जागते और खिड़की के बाहर बनिहाल को कोसते. आख़िर सुबह हुई और बसें जम्मू की ओर चल दीं. अब डर ये था कि चीनी लड़ाकू जहाज़ हम पर कभी भी बमबारी कर सकतें हैं. दिन की गर्म धूप और दो दिन की थकान ने हमें जल्द ही सुला दिया. अब नींद में कोई क्या डरेगा, फिर चाहे चीन हो या यमराज.

पर अभी बनिहाल ने हम से पूरा बदला नहीं लिया था. एक बार फिर बनिहाल ने हमारा बुरा हाल करना था.


सर्दियों में जवाहर टनल, बनिहाल रेलवे स्टेशन, 2023.
फ़ोटोः विकीपीडिया के सौजनय से.

साल था 1969, महीना था मई. वही जम्मू और वही जम्मू से श्रीनगर जाने वाली बस. वही रास्ता, हालांकि अब सड़कें काफी बेहतर थीं, बसें भी बेहतर, अच्छी सीटों वालीं ट्रांजिस्टर लगी, तेज़ी से भागती. बादलों में घिरे इलाक़े में रुक-रुक कर बौछार हो रही थी. ड्राइवर चाहता था तेज़ी से बनिहाल पार कर लिया जाए पर इस तेज़ी ने ही काम ख़राब किया. पहले बस खराब हो गई और फिर बनिहाल से क़रीब चार किलोमीटर पहले हमारे दाएं चल रहे पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा दरक कर सड़क पर खिसक आया. ऊपर वाले ऊपर और नीचे वाले नीचे.
पीछे से आने वाली गाड़ियों ने रास्ता इस कदर बंद कर दिया कि बस लौट के भी न जा सके. ऊपर से आने वाले फ़ौजी जवानों और वहां के बाशिंदों ने हमारी अगुवाई की और हम फिर से बनिहाल पास पे रात बिताने को मजबूर थे. नीचे से सड़क और चट्टानें साफ़ करने वालों को आने में अभी एक घंटा था और फिर जाने कितनी देर सड़क को साफ़ करने में लगनी थी. शुक्र था ऊपर वाले का कि इस बार हमें रात बिताने के लिए एक छोटा गेस्ट हाउस मिल गया जहाँ गरम खाना, चाय और अच्छा बिस्तर भी था.

सुबह पांच बजे हमारी आँख खुलने से पहले ही पीडब्ल्यूडी और फ़ौज वालों ने मिलकर रास्ता खोल दिया था और हमारी बस बनिहाल पास पे खड़ी थी. अंगड़ाइयां तोड़ते हम बस में आकर सो गए पर इस बार माँ को ये रुकावट बिलकुल नहीं भाई. माँ नाराज़ थी. ग़ुस्से में थी हमसे, पिता से, उस रास्ते से, बस से, सड़क से, मौसम से, बारिश से और बनिहाल से. पर माँ कश्मीर से नाराज़ नहीं थी, श्रीनगर पहुंचते ही वो सब भूल गईं. उस बरस के बाद भी माँ कई बार कश्मीर गईं पर तब तक बनिहाल पास का तोड़ आ चुका था. अब बनिहाल हमें रोक नहीं सकता था, अब पंडित नेहरू ने हर मौसम में पार करा देने वाली एक सुरंग बना दी थी, जवाहर टनल.

माँ को कैसे भूल सकता था बनिहाल और फिर कश्मीर यानी अपने प्यारे पहाड़ी घर के नाम पर क्यों न याद आता बनिहाल. कश्मीर अगर ख़ुश था तो कश्मीर का एक हिस्सा दुःख और ग़म भी था. तब का भी और अब का भी. बनिहाल के नाम की फांस आज भी दुखती होगी.

दर्द कहाँ भूलते हैं.

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