पुस्तक अंश | आज़ाद-कथा

- (पंडित रतननाथ धर ‘सरशार’ का उपन्यास ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ 19वीं सदी के गल्प साहित्य और लोकप्रिय उर्दू लेखन की रवायत की उम्दा नज़ीर पेश करता है. पंडित जी लखनऊ से निकलने वाले रोज़ाना ‘अवध अखबार’ के संपादक थे, और ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ पहले उसी अख़बार (1878-80 तक) में छपता था. प्रेमचंद ने ‘आज़ाद-कथा’ के नाम से हिंदी में इसका संक्षिप्त अनुवाद किया है. इसकी भूमिका में प्रेमचंद ने लिखा है कि चार जिल्द में यह क़रीब 4000 पन्नों का उपन्यास है, और पूरे उपन्यास का अनुवाद 12000 पन्नों का वृहद ग्रंथ हो जाता. उन्होंने इसे अनुवाद के बजाय परिष्कृत संस्करण कहा है. पंडित रतननाथ लखनऊ में ही पैदा हुए थे, इसलिए लखनऊ के तौर-तरीक़ों से वह ख़ूब वाक़िफ़ रहे, तो उनके इस उपन्यास में भोले-भाले नवाब और उनके ख़ुशामदी मुसाहब हैं, बाँकें हैं, मदारी हैं, मुजरे हैं और मुजरे वालियाँ हैं, सरकस, बाज़ार और गुज़रे ज़माने में लखनऊ की ज़िंदगी के रास-रंग और हँसी-ठिठोली भी है. ‘आज़ाद-कथा’ का यह अंश इस उम्मीद के साथ यहाँ प्रस्तुत है कि आपको पसंद आएगा. -सं.)
नवाब साहब के दरबार में दिनों दिन आज़ाद का सम्मान बढ़ने लगा. यहाँ तक कि वह अक्सर खाना भी नवाब के साथ ही खाते. नौकरों को ताकीद कर दी गई कि आज़ाद का जो हुक्म हो, वह फौरन बजा लाएँ, ज़रा भी मीनमेख न करें. ज्यों-ज्यों आज़ाद के गुण नवाब पर खुलते जाते थे, और मुसाहबों की किरकिरी होती जाती थी. अभी लोगों ने अच्छे मिर्ज़ा को दरबार से निकलवाया था, अब आज़ाद के पीछे पड़े. यह सिर्फ़ पहलवानी ही जानते हैं, गदके और बिनवट के दो-चार हाथ कुछ सीख लिए हैं, बस, उसी पर अकड़ते फिरते हैं कि जो कुछ हूँ, बस, मैं ही हूँ. पढ़े-लिखे वाजिबी ही वाजिबी हैं, शायरी इन्हें नहीं आती, मज़हबी मुआमिलों में बिलकुल कोरे हैं.
एक दिन नवाब साहब के सामने एक साहब बोल उठे — हुजूर, इस शहर में एक आलिम आया है, जो मंतिक (न्याय) के ज़ोर से झूठ को सच कर दिखाता है. मगर ख़ुदा को नहीं मानता, पक्का मुनकिर (नास्तिक) है. मियाँ आज़ाद को तो मंतकी बनने का दावा है. कहिए, उस आलिम को नीचा दिखाएँ.
आज़ाद — हाँ! हाँ, जब कहिए तब, मुझे तो ऐसे मुनकिरों की तलाश रहती है. लाइए मंतकी साहब को, ख़ुदा का वह पक्का सबूत दूँ कि वह ख़ुद फड़क जायँ, ज़रा यहाँ तक लाइए तो सही, भागे राह न मिले. जो फिर इस शहर में मुँह दिखाएँ, तो आदमी न कहना.
नवाब —हाँ! हाँ! मीर साहब, ज़रा उनको फाँस-फूँसकर लाइए, तो मियाँ आज़ाद के जौहर तो खुलें.
मीर साहब ने ज़ोर से हुक्के के दो-चार दम लगाए और झप से उस आलिम को बुला लाए. हज़ारों आदमी बहस सुनने के लिए जमा हो गए, गोया बटेरों की पाली है. इतनी भीड़ थी कि थाली उछालिए तो सिर ही सिर जाय. आलिम ने आते ही पूछा कि कौन साहब बहस करेंगे?
मियाँ आज़ाद बोले — हम हैं! अब सब लोग बेक़रार हो रहे हैं कि देखें, क्या सवाल-जवाब होते हैं, चारों तरफ़ खिचड़ी पक रही है.
आलिम — जनाब, आप तो किसी अखाड़े के पट्ठे मालूम होते हैं, सूरत से तो ऐसा मालूम होता है कि आपको मंतिक छू भी नहीं गई.
आज़ाद — जी, सूरत पर न जाइएगा, कोई सवाल कीजिए, तो हम जवाब दें.
आलिम — अच्छा, पहले इन तीन सवालों का जवाब दीजिए —
(1) ख़ुदा है, तो हमें नज़र क्योंव नहीं आता?
(2) शैतान दोजख़ में जलाया जायगा. भला नारी (आग से बने हुए) को आग का क्याल डर? आग आग में नहीं जल सकती.
(3) जो करता है, ख़ुदा करता हैं, फिर इनसान का कसूर क्या.
चारों तरफ सन्नाटा पड़ गया कि वाह, क्या आलिम है, कैसे कड़े सवाल किए हैं कि कुछ जवाब ही नहीं सूझता. बिगड़े दिल लोग दाँत पीस रहे हैं कि बाहर निकले तो गरदन भी नापें. मियाँ आज़ाद कुछ देर तक तो चुपचाप खड़े रहे, फिर एक ढेला उठा कर उस आलिम की खोपड़ी पर मारा, बेचारा हाय करके बैठ गया. अच्छे जंगली से पाला पड़ा, मैं बहस करने आया था या लप्पा-डुग्गी. जब कुछ जवाब न सूझा तो पत्थर मारने लगे. जो मैं भी एक पत्थर खींच मारूँ तो कैसी हो? नवाब साहब, आप ही इन्साफ़ कीजिए.
नवाब — भाई आज़ाद, हमें यह तुम्हारी हरकत पसंद नहीं आई. इस ढेलेबाज़ी के क्यात माने? माना कि मुनकिर गरदन मारने लायक होता है; मगर बहस करके क़ायल कीजिए, यह नहीं कि जूता खींच मारा या ढेला तान कर मारा.
कमाली — हुजूर, आलिम का जवाब देना कारेदारद है. ढेलेबाजी करना दूसरी बात है.
झम्मन — अजी, इसने बड़े-बड़े आलिमों को सर कर दिया, भला आज़ाद क्यां इसके मुँह आएँगे.
नवाब — यह पत्थर क्यों फेंका जी, बोलते क्योंर नहीं.
आज़ाद — हुजूर, मैंने तो इनके तीनों सवालों का वह जवाब दिया कि अगर कोई कदरदाँ होता तो गले से लगा लेता और करोड़ों रुपए इनाम भी देता, सुनिए —
(1) ख़ुदा है, सो हमें नज़र क्योंल नहीं आता?
जवाब — अगर उस ढेले से उनको चोट लगी, तो चोट नज़र क्योंक नहीं आती?
सुभान अल्लाह का दौंगड़ा बरस गया. वाह उस्ताद! क्याक जवाब दिया है कि दाँत खट्टे कर दिए.
(2) शैतान को जहन्नुम में जलाना बेकार है, वह तो ख़ुद नारी (अग्निमय) है.
जवाब — इनसे पूछिए कि यह मिट्टी के ही पुतले हैं या नहीं? इनकी खोपड़ी मिट्टी की बनी है या रबड़ की? फिर मिट्टी का ढेला लगा, तो सिर क्योंद भन्ना गया?
तमाशाइयों ने गुल मचाया — सुभान अल्लाह! वाह मियाँ आज़ाद! क्या मुँह तोड़ जवाब दिया है.
(3) जो करता है ख़ुदा करता है.
जवाब — फिर ढेले मारने का इलज़ाम हम पर क्योंा है?
चारों तरफ टोपियाँ उछलने लगीं — वाह मेरे शेर! क्या कहना है! कहिए, अब तो आप ख़ुदा के क़ायल हुए, या अब भी कुछ मीनमेख है? लाख बातों की एक बात यह है कि जब आपका सिर मिट्टी का है और मिट्टी ही का ढेला मारा, तब आपकी खोपड़ी क्योंक भिन्नाई? मियाँ मुनकिर बहुत झेंपे, समझ गए कि यहाँ शोहदों का जमघट है, चुपके से अपने घर की राह ली. आज़ाद की और भी धाक बँधी. अब तक तो पहलवान और फिकैत ही मशहूर थे, अब आलिम भी मशहूर हुए. नवाब ने पीठ ठोंकी — वाह, क्यों न हो! पहले तो मैं झल्लाया कि ढेलेबाज़ी कैसी; मगर फिर तो फड़क गया.
मुसाहबों का यह वार भी ख़ाली गया, तो फिर हँड़िया पकने लगी कि आज़ाद को उखाड़ने की कोई दूसरी तदवीर करनी चाहिए. अगर यह यहाँ जम गया; तो हम सभी को निकलवा कर छोड़ेगा. यह राय हुई कि नवाब साहब से कहा जाय, हुजूर, आज़ाद को हुक्म दें कि बटेरों को मुठियायें, बटेरों को लड़ाएँ. फिर देखें, बच्चा क्या करते हैं. बगलें न झाँकने लगें तो सही. यह हुनर ही दूसरा है.
आपस में यह सलाह कर एक दिन मियाँ कमाली बोले — हुजूर, अगर मियाँ आज़ाद बटेर लड़ाएँ, तो सारे शहर में हुजूर की धूम हो जाय.
नवाब — क्यों मियाँ आज़ाद, कभी बटेर भी लड़ाये हैं?
झम्मन — आज हमारी सरकार में जितने बटेर हैं, उतने तो मटियाबुर्ज के चिड़ियाख़ाने में भी न होंगे. एक-एक बटेर हज़ार-हज़ार की ख़रीद का, नोकदम के बनाने में तोड़े-के-तोड़े उड़ गए, सेरों मोती तो पीस कर मैंने अपने हाथों खिला दिए हैं, कुछ दिनों रोज़ खरल चलता था. मगर आप भी कहेंगे कि हम आदमी हैं. इस ड्योढी पर इतने दिनों से हो, अब तक बटेरख़ाना भी न देखा? लो आओ, चलो, तुमको सैर कराएँ.
यह कहकर आज़ाद को बटेरख़ाने ले गए. मियाँ आज़ाद क्या देखते हैं कि चारों तरफ काबुकें ही काबुकें नज़र आती हैं, और काबुकें भी कैसी, हाथीदाँत की तीलियाँ, उन पर गंगा—जमुनी कलस, कारचोबी छतें, कामदार मख़मली गिलाफ़ें, रंग-बिरंग सोने—चाँदी की नन्हींा-नन्हींर कटोरियाँ, जिनमें बटेर अपनी प्यारी-प्यारी चोंचों से पानी पिएँ, पाँच-पाँच छह-छह सौ लागत की काबुकें थीं, खूँटियाँ भी रंग-बिरंगी. दुन्नी मियाँ एक-एक काबुक उतार कर बटेर की तारीफ़ करने लगे, तो पुल बाँध दिए.
एक बटेर को दिखा कर कहा — अल्लाह रखे, क्या मझोला जानवर है! सफ़शिकन (दलसंहार) जो आपने सुना हो, तो यही है. लंदन तक ख़बर के काग़ज़ में इनका नाम छप गया. मेरी जान की क़सम, ज़रा इसकी आन-बान तो देखिएगा. हाय, क्या बाँका बटेर है! यह नवाब साहब के दादाजान के वक़्त का है. ऐसे रईस पैदा कहाँ होते हैं! दम के दम में लाखों फूँक दिए, रुपए को ठीकरा समझ लिया. पतंगबाज़ी का शौक हुआ, तो शहर भर के पतंगबाज़ों को निहाल कर दिया, कनकौवे वाले बन गए. अजी, और तो और, लौंडे, जो गली-कूचों में लंगर और लग्गे ले कर डोर लूटा करते हैं, रोज़ डोर बेच-बेच कर चखौमियाँ करते थे. अफ़ीम का शौक हुआ, तो इतनी ख़रीदी कि टके सेर से सोलह रुपए सेर तक बिकने लगी. मालवा ख़ाली, चीन खुक्खल, बंबई तक के गन्ने आते थे.
आज़ाद — ऐसे ही कितने रईस बिगड़ गए!
कमाली — रईसों के बनने-बिगड़ने की क्या फ़िक्र! यहाँ तो जो शौक किया, ऐसा ही किया; फिर भला बटेरबाज़ी में उनके सामने कौन ठहरता. उनके वक़्त का अब यह एक सफ़शिकन बाक़ी रह गया है. बुज़ुर्गों की निशानी है. बस, यह समझिए कि मुहम्मदअली शाह के वक़्त में ख़रीदा गया था. अब कोई सौ वर्ष का होगा, दो कम या दो ऊपर, मगर बुढ़ापे में भी वह दमख़म है कि मुर्ग़ को लपक कर लात दे तो वह भी चें बोल जाय. पारसाल की दिल्लगी सुनिए, नवाब साहब के मार्मं तशरीफ़ लाए. उनमें भी रियासत की बू है. कनकौवा तो ऐसा लड़ाते हैं कि मियाँ विलायत उनके आगे पानी भरें. दो-दो तोले अफ़ीम पी जायें ओर वही ख़मदम! बटेरबाज़ी का भी परले सिरे का शौक है. उनका जफ़रपैकर तो बला का बटेर है, बटेर क्या है, शेर है. मेरे मुँह से निकल गया कि हुजूर को तो बटेरों का बहुत शौक है, करोड़ों ही बटेर देख डाले होंगे, मगर सफ़शिकन-सा बटेर तो हुजूर ने भी न देखा होगा. बोले, इसकी हकीक़त क्याल है, जफ़रपैकर को देखो तो आँखें खुल जायें, बढ़कर एक लात दे, तो सफ़शिकन क्या़, आपको नोकदम पाली बाहर कर दे. हौसला हो, तो मँगवाऊँ.
‘दूसरे दिन पाली हुई. हज़ारों आदमी आ पहुँचे. शहर भर में धूम थी कि आज बड़े मार्के का जोड़ है. जफ़रपैकर इस ठाट से आया कि ज़मीन हिल गई, ओर मेरा तो कलेजा दहलने लगा. मगर सफ़शिकन ने उस दिन आबरू रख ली, जभी तो नवाब साहब इसको बच्चों से भी ज्यादा प्यार करते हैं. पहले इसको दाना खिलवा लेते हैं, फिर कहीं आप खाते हैं. एक दिन ख़ुदा जाने; बिल्ली देखी या क्या. हुआ कि अपने आप फड़कने लगा. नवाब समझे कि बूँदा हो गया, फिर तो ऐसे धारोधर रोए कि घर भर में कुहराम मच गया. मैंने नवाब साहब को कभी रोते नहीं देखा. मुहर्रम की मजलिसों में एक आँसू नहीं निकलता. जब बड़े नवाब साहब सिधारे तो आँसू की एक बूँद न गिरी. यह बटेर ही ऐसा अनमोल है. सच तो यह है कि उसने उस दिन नवाब की सात पीढ़ियों पर एहसान किया. वल्लाह, जो कहीं घट जाता, तो मैं तो जंगल की राह लेता. मियाँ, जग में आबरू ही आबरू तो है, और क्या . ख़ैर साहब, जैसे ही दोनों चक्की खा चुके, जफ़रपैकर बिजली की तरह सफ़शिकन की तरफ चला! आते ही दबोच बैठा, चोटी को चोंच से पकड़ कर ऐसा झपेटा कि दूसरा होता तो एक रगड़े में फुर्र से भाग निकलता. नवाब का चेहरा फक हो गया, मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगीं कि इतने में सफ़शिकन लौट ही तो पड़ा. वाह मेरे शेर! ख़ूब फिरा!! पाली भर में आवाज़ गूँजने लगी कि वह मारा है! एक लात ऐसी जमाई कि जफ़रपैकर ने मुँह फेर लिया. मुँह का फेरना था कि सफ़शिकन ने उचक कर एक झँझोटी बतलाई. वाह पट्ठे, और लगा! आख़िर जफ़रपैकर नोकदम पाली बाहर भागा. चारों तरफ टोपियाँ उछल गईं. आज यह बटेर अपना सानी नहीं रखता. मियाँ आज़ाद, अब आप बटेरख़ाना अपने हाथ में लीजिए.’
नवाब — वल्लाह, यही मैं भी कहनेवाला था.
झम्मन — काम ज़रा मुश्किल है.
दुन्नी — बटेरों का लड़ाना दिल्लशगी नहीं, बड़े तजरबे की ज़रूरत है.
आज़ाद — हुजूर फ़रमाते हैं, तो बटेरख़ाने की निगरानी मैं ही करूँगा.
कहने को तो आज़ाद ने यह कह दिया; मगर न कभी बटेर लड़ाए थे, न जानते थे कि इनको कैसे लड़ाया जाता है. घबराए, अगर कहीं नवाब के बटेर हारे तो सारी बला मेरे सिर पर पड़ेगी. कुछ ऐसी तदबीर करनी चाहिए कि यह बला टल जाय. जब शाम हुई तो वह सबकी नज़रें बचा कर बटेरख़ाने में गए और काबुकों की खिड़कियाँ खोल दीं. बटेर सब फुर्र से भाग गए. पिंजरे ख़ाली हो गए. कई पुस्तों की बसाई हुई बस्ती उजड़ गई. बटेरों को उड़ा कर आज़ाद ने घर की राह ली.
दूसरे दिन मियाँ आज़ाद सबेरे मुँह अँधेरे बाज़ार में मटरगश्त करते हुए नवाब साहब की तरफ़ चले. बाज़ार भर में सन्नाटा! हलवाई भट्टी में सो रहा है, नानबाई बरतन धो रहा है, बजाजा बन्द, कुँजड़ों की दुकान पर अरुई न शकरकंद, जौहरियों की दुकान में ताला पड़ा हुआ है. मगर तंबाकू वाला जगा हुआ है. मेहतर सड़क पर झाड़ू दे रहा है. मैदेवाला पिसनहारियों से आटा ले रहा है. इतने में देखते क्या हैं कि एक आदमी लुंगी बाँधे, हाथ में चिलम लिए, बौखलाया हुआ घूम रहा है कि कहीं से एक चिनगारी मिल जाय तो दम लगे, धुआँधार हुक्का उड़े. जहाँ जाते हैं, ‘फिर’,’भाग’ की आवाज़ आती है. भाई, ऐसा शहर नहीं देखा जहाँ आग माँगे न मिले, जानों इसमें छप्पन टके ख़र्च होते हैं. मुहल्ले वालों को गालियाँ देते हुए नानबाई की दुकान पर पहुँचे ओर बोले — बड़े भाई, एक जरी आग तो झप से दे देना, मेरा यार, ला तो झटपट.
नानबाई — अच्छा,अच्छा, तो दुकान से अलग रहो, छाती पर क्योंा चढ़े बैठते हो? यहाँ सौ धंधे करने हैं, आपकी तरह कोई बेफिकर तो हूँ नहीं कि तड़का हुआ, चिलम ली, और लगे कौड़ी दुकान माँगने! मिल गई तो ख़ैर, नहीं तो गालियाँ देनी शुरू कीं. सबेरे-सबेरे अल्लाह का नाम न राम- राम. चिलम लिए दुकान पर डट गए. वाह, अच्छी दिल्लगी है! ऐसी ही तलब है तो एक कंडी क्योंे नहीं गाड़ रखते कि रात भर आग ही आग रहे. ऐसे ही उचक्के तो चोरी करते हैं. आँख चूकी, और माल गायब! क्याग सहला लटका है कि चिलम ले कर आग माँगने आए हैं. किसी दिन में चिलम-विलम न तोड़-ताड़ कर फेंक दूँ. तुम तड़के-तड़के दुकान पर न आया करो जी, नहीं तो किसी दिन ठायँ-ठायँ हो जाएगी.
हज़रत की आँखों से ख़ून टपकने लगा, दाँत पीस कर रह गए. यहाँ से चले, तो हलवाई की दुकान पर पहुँचे ओर बोले — मियाँ एक ज़रा-सी आग देना, भाई हो न! हलवाई का दूध बिल्ली पी गई थी, झल्लाया बैठा था, समझा कि कोई फक़ीर भीख माँगने आया है. झिड़क कर बोला कि और दुकान देखो. सबेरे-सबेरे कौड़ी की पड़ गई. जाता है, कि दूँ धक्का! रहे कहीं, मरे कहीं, कौड़ी माँगने यहाँ मौजूद. दुनिया भर के मुर्दे नानामऊ घाट! अब खड़ा घूरता क्याद है?
चिलमबाज — कुछ वाही हुआ है बे! अबे, हम कोई फक़ीर हैं, कहीं मैं आकर एक घस्सा दूँ न! लो साहब! हम तो आग माँगने आए हैं, यह हमको भिखमंगा बनाता है! अंधा है क्या?
हलवाई — भिखमंगा नहीं, तू है कौन? लँगोटी बाँध ली और चले आग माँगने! तुम्हारे बाबा का कर्ज़ खाया है क्याआ!
बेचारे यहाँ से भी निराश हुए, चुपके से कान दबाए चल खड़े हुए. आज तड़के-तड़के किसका मुँह देखा था कि जहाँ जाते हैं, झौंड़ हो जाती है. इतने में देखा कि एक सुनार की दुकान पर आग दहक रही है. उधर लपके. सुनार दुकान पर न था. यह तो हुक्के की फ़िक्र में चौंधियाए हुए थे ही, झप से दुकान पर चढ़ गए. सुनार भी उसी वक़्त आ गया और इनको देख कर आग-भभूका हो गया. तू कौन हे बे? वाह, ख़ाली दुकान पर क्यार मज़े से चढ़ आए! (एक धप जमाकर) और जो कोई अदद जाता रहता? इतने में दस-पाँच आदमी जमा हो गए. क्यार है मियाँ, क्या है? क्यों भले आदमी की आबरू बिगाड़े देते हो?
सुनार — है क्याड! यह हमारी दुकान पर चोरी करने आए थे.
चिलमबाज — मैं चोर हूँ, चोर की ऐसी ही सूरत होती है?
एक आदमी — कौन! तुम! तुम तो हमें पक्के चोर मालूम होते हो. अच्छा, तुम फिर उनकी दुकान पर गए क्योंह? दुकानदार नहीं था, तो वहाँ तुम्हारा क्या काम? जो कोई गहना ले भागते, तो यह तुम्हें कहाँ ढूँढ़ते फिरते.
सुनार — साहब, इनका फिर पता कहाँ मिलता, जाते जमुना उस पार. चलो थाने पर.
लोगों ने सुनार को समझाया, भाई, अब जाने दो. देखो जी, ख़बरदार, अब किसी की दुकान पर न चढ़ना, नहीं पथे जाओगे. सुनार ने छोड़ दिया. जब आप चलने लगे, तो उसे इन पर तरस आ गया. बोला, अच्छा आग लेते जाओ. हजरत ने आग पाई और घर की राह ली. तड़के-तड़के अच्छी बोहनी हुई, चोर बने, मार खाई, झिड़के गए, थाने जाते-जाते बचे, तब कहीं आग मिली.
मियाँ आज़ाद यह दिल्लागी देख कर आगे बढ़े और नवाब की ड्योढ़ी पर आए.
नवाब — आज इतना दिन चढ़ गया, कहाँ थे?
आज़ाद — हुजूर, आज बड़ी दिल्लगी देखने में आई, हँसते-हँसते लोट जाइएगा. तलब भी क्याक बुरी चीज़ है.
यह कह कर आज़ाद ने सारी दास्तान सुनाई.
नवाब — ख़ूब दिल्लगी हुई. आग के बदले चपलें पड़ीं. अरे मियाँ, ज़रा खोजी को बुलाना. हाँ, ज़रा खोजी के सामने सुनाना. किसी दिन यह भी न पिटें.
खोजी नवाब के दरबार में मसखरे थे. ठेंगना क़द, काले कौए का सा रंग, बदन पर माँस नहीं, पर आँखों में सुरमा लगाए हुए. लुढ़कते हुए आए और बोले — ग़ुलाम को हुजूर ने याद किया है?
नवाब — हाँ, इस वक़्त किस फ़िक्र में थे?
खोजी — ख़ुदावंद, अफ़ीम घोल रहा था, और कोई फ़िक्र तो हुजूर की बदौलत क़रीब नहीं फटकने पाती. मैं फ़िक्र क्या जानूँ, ‘जोरू न जाँता, अल्लाह मियाँ से नाता.’
नवाब — अच्छा खोजी, इस हौज में नहाओ तो एक अशर्फी देता हूँ.
खोजी — हुजूर, अशर्फियाँ तो आपकी जूतियों के सदक़े से बहुत-सी मिल जायँगी, मगर फिर जीना कठिन हो जाएगा. न मरे सही, लेकिन ‘नकटा जिया बुरे हवाल!’ न साहब, मुझे तो कोई एक गोते पर एक अशर्फी दे, तो भी पानी में न पैठूँ, पानी की सूरत देखे बदन काँप उठता है.
दुन्नी — कैसे मर्द हो कि नहाने से डरते हो!
खोजी — हम नहीं नहाते तो आप कोई काज़ी हैं?
आज़ाद — अजी, सरकार का हुक्म है.
खोजी — चलिए, आपकी बला से. कहने लगे सरकार का हुक्म है. फिर कोई अपनी जान दे.
आज़ाद — हुजूर, जो इस वक़्त यह हौज में धम से न कूद पड़ें, तो अफ़ीम इन्हें न मिले.
खोजी — आप कौन बीच में बोलनेवाले होते हैं? अरसठ बरस से तो मैं अफ़ीम खाता आया हूँ, अब आपके कहने से छोड़ दूँ, तो कहिए, मरा या जिया?
नवाब — अच्छा भाई, जाने दो. दूध खाओगे?
खोजी — वाह ख़ुदावंद, नेकी ओर पूछ-पूछ. लेकिन ज़रा मिठास ख़ूब हो. शाहजहाँपुर की सफ़ेद शक्कर या कालपी की मिश्री घोलिएगा. अगर थोड़ा-सा केवड़ा भी गबड़ दीजिए तो पीते ही आँखें खुल जाएँ.
इतने में एक चोबदार घबराया हुआ आया और बोला — ख़ुदावंद, ग़ज़ब हो गया. जाँबख्शी हो तो अर्ज करूँ, सब बटेर उड़ गए.
नवाब — अरे! सब उड़ गए?
चोबदार — क्या! कहूँ, हुजूर, एक का भी पता नहीं.
मुसाहबों ने हाय-हाय करनी शुरू की, कोई सिर पीटने लगा, कोई छाती कूटने लगा. नवाब ने रोते हुए कहा, भाई और जो गए सो गए, मेरे सफ़शिकन को जो कोई ढूँढ़ लाए, हज़ार रुपए नक़द दूँ. इस वक़्त मैं जीते-जी मर मिटा. अभी साँड़नी सवारों को हुक्म दो कि पचकोसी दौरा करें. जहाँ सफ़शिकन मिले, समझा-बुझा कर ले ही आएँ.
झम्मन — उनको समझाना, हुजूर, मुश्किल है. वह तो अरबी में बातें करते हैं. सारा क़ुरान उन्हें याद है. उनसे कौन बहस करेगा?
नवाब — मुझे तो उससे इश्क हो गया था जी, वह नोकीली चोंच, वह अकड़-अकड़ कर काकुन चुनना! सैकड़ों पालियाँ लड़ी, मगर कोरा आया. किस बाँकपन से झपट कर लात देता था कि पाली भर थर्रा उठती थी. उसकी बिसात ही क्या थी, मझोला जानवर, लेकिन मैदान का शेर. यह तो मैं पहले ही से जानता था कि यह बटेर की सूरत में किसी फक़ीर की रूह है. अब सुना कि नमाज़ भी पढ़ता था.
झम्मन — हुजूर को याद होगा कि रमज़ान के महीने में उसने दिन के वक़्त दाना तक न छुआ; हुजूर समझे थे कि बूँदा हो गया, मगर मैं ताड़ गया कि रोज़े से है.
खोजी — ख़ुदावंद, अब मैं हुजूर से कहता हूँ कि दस-पाँच दफ़ा मैंने अफ़ीम भी पिला दी; मगर वल्लाह, जो ज़रा भी नशा हुआ हो.
कमाली — हुजूर, यक़ीन जानिए, पिछले पहर से सुबह तक काबुक से हक-हक की आवाज़ आया करती थी. गफ़ूर, तुमको भी तो हमने कई बार जगा कर सुनाया था कि सफ़शिकन ख़ुदा को याद
कर रहे हैं.
नवाब — अफ़सोस, हमने उसे पहचाना ही नहीं. दिल डूबा जाता है, कोई पंखा झलना.
मुसाहब — जल्दी पंखा लाओ.
नवाब —
प्रीतम जो मैं जानती कि प्रीत किए दुःख होय;
नगर ढिंढोरा पीटती कि प्रीत करै जनि कोय.
खोजी — (पीनक से चौंककर) हाँ उस्ताद, छेड़े जा. इस वक़्त तो मियाँ शोरी की रूह फड़क गई होगी.
नवाब — चुप, नामाकूल. कोई है? इसको यहाँ से टहलाओ. यह रईसों की सोहबत के क़ाबिल नहीं. मुझको भी कोई गवैया समझा है. यहाँ तो जी जलता है, इनके नजदीक कौवाली हो रही है.
खोजी — ख़ुदावंद, ग़ुलाम तो इस दम अपने आपे में नहीं. हाय, सफ़शिकन की काबुक ख़ाली हो और मैं अपने आपे में रहूँ! हुजूर ने इस वक़्त मुझ पर बड़ा ज़ुल्म किया.
नवाब — शाबाश खोजी, शाबाश! मुआफ़ करना, मैं कुछ और ही समझा था. क्यों जी, साँड़नी सवार दौड़ाया गया कि नहीं?
सवार — हुजूर, जाता तो हूँ, मगर वह मेरी क्याु सुनेंगे, कोई मौलवी भी तो साथ भेजिए, मैं तो कुछ ऊँट ही चढ़ना जानता हूँ, उनसे दलील कौन करेगा भला!
आज़ाद — किसी अच्छे मौलवी को बुलवाना चाहिए.
मुसाहिबों ने एक मौलाना साहब को तजवीजा. मगर यारों ने उनसे कुल दास्तान नहीं बयान की. चोबदार ने मकान पर जा कर सिर्फ़ इतना कहा कि नवाब साहब ने आपको याद किया है. मौलवी साहब उसके साथ हो लिए और दरवार में आकर नवाब साहब को सलाम किया.
नवाब — आपको इसलिए तकलीफ़ दी कि मेरी आँखों का नूर, मेरे कलेजे का टुकड़ा नाराज़ होकर चला गया है. बड़ा आलिम और दीनदार है, बहस करने में कोई उससे पेश नहीं पाता, आप जाइए और उसको माकूल करके ले आइए.
मोलाना — माँ-बाप का कड़ा हक होता है. वह कैसे नादान आदमी हैं?
खोजी — मौलाना साहब, वह आदमी नहीं हैं, बटेर हैं. मगर इल्म और अक्ल में आदमियों के भी कान काटते हैं.
कमाली — सफ़शिकन का नाम तो मौलाना साहब, आपने सुना होगा. वह तो दूर-दूर तक मशहूर थे. जनाब; बात यह है कि सरकार का बटेर सफ़शिकन कल काबुक से उड़ गया. अब यह तजवीज हुई है कि एक-एक साँड़नी-सवार जाय और उसे समझा-बुझा कर ले आए. मगर ऊँटवान तो फिर ऊँटवान, वह दलील करना क्याी जाने, इसलिए आप बुलाए गए हैं कि साँड़नी पर सवार हों, और उनको किसी तदबीर से ले आएँ.
मोलाना — ठीक, आप सब के सब नशे में तो नहीं हैं? होश की बातें करो. ख़ुद मसख़रे बनते हो. बटेर भी आलिम होता है, वह भी कोई मौलवी है, ला हौल! अच्छे-अच्छे गाउदी जमा हैं. बंदा जाता है.
नवाब — यह किस कोढ़मगज को लाए थे जी? खासा जाँगलू है.
आज़ाद — अच्छा, हुजूर भी क्या याद करेंगे कि इतने बड़े दरबार में एक भी मंतकी न निकला. अब ग़ुलाम ने बीड़ा उठा लिया कि जाऊँगा ओर सफ़शिकन को लाऊँगा. मुझे एक साँड़नी दीजिए, मैं उसे ख़ुद ही चला लूँगा. ख़र्च के लिए कुछ रुपए भी दिलवाइए, न जाने कितने दिन लग जायँ.
नवाब — अच्छा, आप घर जाइए और लैस हो कर आइए.
मियाँ आज़ाद घर गए तो और मुसाहिबों में खिचड़ी पकने लगी — यार, यह तो बाज़ी जीत ले गया. कहीं से एक आध बटेर पकड़ कर लाएगा और कहेगा, यही सफ़शिकन है. फिर तो हम सब पर शेर हो जाएगा. हमको आपको कोई न पूछेगा. खोजी जा कर नवाब साहब से बोले — हुजूर, अभी मियाँ आज़ाद दो दिन से इस दरबार में आए हैं, उनका एतबार क्याब? जो साँडनी ही लेकर रफूचक्कर हों, तो फिर कोई कहाँ उनका पता लगाता फिरेगा.
कमाली — हाँ ख़ुदावंद कहते तो सच हैं.
झम्मन — खोजी सूरत ही से अहमक मालूम होते हैं, मगर बात ठिकाने की कहते हैं. ऐसे आदमी का ठिकाना क्यास?
दुन्नी — हम तो हुजूर को सलाह न देंगे कि मियाँ आज़ाद को साँड़नी और सफ़र-ख़र्च दीजिए. जोख़िम की बात है.
नवाब — चलो, बस, बहुत न बको. तुम ख़ुद जैसे हो, वैसा ही दूसरों को समझते हो. आज़ाद की सूरत कहे देती है कि कोई शरीफ़ आदमी है, और मान लिया कि साँड़नी जाती ही रहे, तो मेरा क्या बिगड़ जाएगा? सफ़शिकन पर से लाखों सदके हैं. साँड़नी की हकीक़त ही क्या.
इतने में मियाँ आज़ाद घर से तैयार होकर आ गए. अशर्फियों की एक थैली ख़र्च के लिए मिली. नवाब ने गले लगा कर रुख़सत किया. मुसाहब भी सलाम बजा आए. आज़ाद साँड़नी पर बैठे और साँड़नी हवा हो गई.
सम्बंधित
पुस्तक अंश | यूं गुज़री है अब तलक
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं