बायलाइन | रास्तों के पत्थर

शहर बरेली में अयूब ख़ाँ चौराहे पर पुलिस बूथ के क़रीब ही एक पत्थर है, जो कोतवाली की तरफ़ जाने वाले रास्ते का पता देता है—पं.द्वारिका प्रसाद मार्ग. इसकी लिखाई देखकर ही मालूम हो जाता है कि यह पिछली सदी में लगाया गया था.
हमारे शहर में रास्तों के नाम के पत्थर तो लगते आए हैं, पर बोलचाल में या चिट्ठियों में पता लिखते हुए भी इनका इस्तेमाल कभी नहीं होता. यक़ीन न हो तो किसी शहरी से रास्ते के इन नामों के बारे में पूछकर देख लीजिए.
यह रास्ता कभी 56-सिविल लाइंस के पते को पहचान देने वाले शख़्स के नाम पर है. पंडित द्वारिका प्रसाद ज़िला परिषद् के पहले चेयरमैन बने, नगर पालिका के अध्यक्ष रहे, विरासत से ज़मींदार मगर तबियत से स्वतंत्रता सेनानी थे और पंडित गोविंद बल्लभ पंत की अगुवाई में बनी पहली असेंबली के सदस्य भी रहे.
उनके पिता पंडित हेतराम रीवा रियासत में दीवान हुआ करते थे. वहाँ से रिटायर होने के बाद बरेली आकर आबाद हो गए. यहाँ फ़रीदपुर के आसपास क़रीब साठ गाँवों की ज़मींदारी उन्हें मिल गई थी.
पंडित द्वारिका प्रसाद ने इलाहाबाद में रहकर इंटर तक पढ़ाई और आगे की पढ़ाई के लिए पहले बंगलौर और फिर ऑक्सफ़ोर्ड चले गए. उनके भाई कृष्ण प्रसाद भी ऑक्सफ़ोर्ड में थे. पढ़ाई के साथ ही टेनिस और हॉकी में भी दोनों ने ख़ूब महारत हासिल की थी और ऑक्सफ़ोर्ड डबल का ख़िताब पाया.
हिंदुस्तान लौट आने के बाद गाँधी जी से प्रभावित होकर 1919 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए. उनका घर जिला कांग्रेस कमेटी का दफ़्तर बन गया और आज़ादी की लड़ाई की गतिविधियों का केंद्र भी. महात्मा गाँधी, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद, गोविंद बल्लभ पंत, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी, रफ़ी अहमद किदवई समेत तमाम नेता जब बरेली आते तो उनके घर पर ही ठहरते थे.
पंडित द्वारिका प्रसाद ने ज़िला कांग्रेस कमेटी की ओर से महात्मा गाँधी को बरेली आने का न्योता दिया. नवंबर 1920 में गाँधी जब दूसरी बार बरेली आए, तो पंडित द्वारिका प्रसाद की अगुवाई में मोती पार्क में उनका नागरिक अभिनंदन किया गया, और असहयोग आंदोलन तेज़ करने का संकल्प लिया गया.

पंडित द्वारिका प्रसाद
परमहंस योगानंद की आत्मकथा ‘योगी कथामृत’ में पंडित द्वारिका प्रसाद से उनकी मैत्री के कई प्रसंग मिलते हैं. अपने किशोरवय के दिनों का ज़िक्र करते हुए योगानंद ने लिखा है कि उनके पिता बाबू भगवतीचरण घोष जब बरेली में रेलवे की नौकरी करते थे, तो वे लोग हेतराम जी के बंगले के एक हिस्से में रहा करते थे. अपने आध्यात्मिक गुरू की तलाश में घर छोड़कर भागते समय योगानंद ने द्वारिका प्रसाद को दो अलग-अलग मौक़ों पर अपने साथ चलने का प्रस्ताव दिया मगर दोनों ही बार उन्होंने इनकार कर दिया था.
उनकी नियति में पलायन नहीं, संघर्ष बदा था. उनकी तीसरी पीढ़ी के योगेश प्रसाद बताते हैं कि रॉलेट एक्ट का विरोध करने पर वह पहली बार जेल गए और उसके बाद सात बार उन्होंने जेल की सज़ा भुगती. सन् 1921 में वह ज़िला परिषद् के पहले चेयरमैन बने. 1929 में नगर पालिका के चेयरमैन बन गए. 1931 में गोल मेज़ सम्मेलन में शामिल होने के लिए लंदन गए. और 1936 में पहली यूपी असेम्बली के लिए हुए चुनाव में वह सदस्य चुने गए थे.
आज़ादी के दीवानों में शामिल रहे पंडित द्वारिका प्रसाद शिक्षा की फ़िक्र करने वालों में से भी थे. उन्हें हमेशा लगता था कि अंग्रेज़ी हुकूमत की पढ़ाई का तौर-तरीक़ा हिंदुस्तानियों की आज़ादख़्याली के रास्ते में रोड़ा है. सो भारतीय शिक्षा पद्धति की पढ़ाई के लिए उन्होंने अपने बंगले के एक हिस्से में ही ‘तिलक विद्यालय’ की शुरुआत कर दी.
पाँचवी कक्षा तक पढ़ाई कराने वाले इस स्कूल में क़रीब ढाई सौ बच्चे पढ़ते थे. शहर के स्वतंत्रता सेनानी और गुज़रे ज़माने में राजनीति की महत्वपूर्ण शख़्सियत के तौर पर पहचाने गए राममूर्ति, आछू बाबू और सतीश चंद्रा ने भी अपनी शुरुआती पढ़ाई इसी तिलक विद्यालय से की थी. इस विद्यालय की जगह पर ही अब जीपीएम स्कूल चलता है.
आज़ादी आंदोलनों में बरेली कॉलेज के छात्रों का वह हमेशा समर्थन करते रहे थे. 1944 में जब उन्हें ल्यूकेमिया हुआ और ख़ून देने की ज़रूरत पड़ी, तो छात्रों का हुजूम ख़ून देने के लिए अस्पताल पहुँच गया. बीमारी के हरसंभव इलाज की कोशिश हुई, पर उन्हें बचाया नहीं जा सका. 22 दिसंबर 1945 को उनका निधन हो गया.
रास्ते के पत्थरों पर खुदे हुई इबारत सिर्फ़ नाम नहीं हैं, ये हमारे शहर के नायकों की स्मृतियाँ भी हैं.
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