बायलाइन | यादगीर-ए-बहादुर वाले मुन्शी जी

बरेली शहर के क़िला बाज़ार से होकर द्रोपदी कन्या इंटर कॉलेज की तरफ़ जाने वाली गली में दाख़िल होकर जैसे ही आगे के छोटे-से चौराहे पर पहुँचते हैं, ख़ासी भीड़भाड़ वाली एक दुकान की दीवार पर ‘रवि के मशहूर समोसे’ की मुनादी करता फ़्लेक्स जड़ा हुआ नज़र आता है, कड़ाह घेर कर खड़े लोग समोसों के निकलने के इंतज़ार में बेताब मिलते हैं. इसी दीवार के क़रीब निशान-ए-राह के पत्थर पर एक नाम दर्ज मिलता है—मुन्शी दीवान बहादुर सिंह मार्ग. समोसे वाले दुकानदार से लेकर आसपास आबाद लोगों, बुज़ुर्गों और राहगीरों से इस नाम की तफ़्सील दरयाफ़्त करने पर कुछ हाथ नहीं लगा. साथी महबूब आलम इस कोशिश में कुछ दूर तक हो आए. हैरानी हो रही थी और थोड़ी कोफ़्त भी. कोई रास्ता किसी के नाम से मंसूब किया गया है तो वह कोई मामूली शख़्सियत तो न रहे होंगे. कॉलेज उस वक़्त तक बंद हो चुका था वरना वहाँ भी कोशिश करके देखते. यही रहगुज़र जब काले इमामबाड़े से होकर आगे क़िला पुलिस चौक़ी के पास अलखनाथ मंदिर वाली सड़क पर खुलती है, वहाँ भी ऐसा ही एक पत्थर मिलता है. पड़ोस की मोटरसाइकिल मरम्मत की दुकान का कुछ सामान इस पत्थर पर भी रखा मिलता है.
मुन्शी जी के बारे में जानने की बेचैनी में घर लौटकर किताबें खंगालना शुरू की. कुछ न मिला तो बहुत मद्धिम-सी उम्मीद में नेविल के 1911 के बरेली गज़ेटियर के पन्ने पलटना शुरू किया तो दो जगह उनके नाम का ज़िक्र मिल गया. गज़ेटियर में जहाँ देवरनिया नदी के नैनीताल और मुरादाबाद जाने वाले रास्तों पर बने चिनाई वाले पुलों से होकर गुज़रने का उल्लेख है, वहीं यह भी दर्ज है कि 1842 में ये पुल जिला न्यायालय के एक सेवानिवृत्त अफ़सर दीवान बहादुर सिंह ने बनवाये थे. यह भी बताया गया है कि रामगंगा में मिलने से पहले पूरे रास्ते में देवरनिया नदी सिंचाई के लिए बहुत उपयोगी है, क्योंकि इस पर आसानी से बाँध बनाए जा सकते हैं, हालाँकि आम तौर पर माना जाता है कि इसका पानी दलहन की फ़सलों को नुक़सान पहुँचाता है. (पेज 10) हमारे शहर के लोग इसे क़िला नदी पुकारते आए हैं.

-
एच.आर.नेविल का बरेली गज़ेटियर 1911
गज़ेटियर कहता है कि दीवान बहादुर सिंह, ब्रिटिश शासनकाल के शुरुआती दिनों में आगरा से बरेली आए थे. यहाँ उन्होंने कई जगह ज़मीनें ख़रीदी और बरेली में क़िला की नदी पर पुल बनवाया. उनके बेटे माधो सिंह थे, जिनकी बड़ी जायदाद उनके बेटों बलदेव सिंह, नरोत्तम सिंह और अन्य के बीच बँट गई. बलदेव सिंह के उत्तराधिकारी रंजीत सिंह और भीम सिंह थे. रंजीत डिप्टी कलेक्टर हुए, और भीम सिंह आगरा, मथुरा, पीलीभीत और अन्य ज़िलों में ज़मीनों के मालिक थे, उनके पास नवाबगंज और बहेड़ी ने भी ज़मीनें थीं. वह बरेली में रहते हैं और मानद मजिस्ट्रेट हैं. (पेज 103)
गज़ेटियर से मिले सुराग़ ने उम्मीद बंधाई, पर मुन्शी दीवान बहादुर सिंह को और जानने की ख़्वाहिश अभी बाक़ी थी. अचानक ख़्याल आया कि अभय भाई से पूछकर देखा जाए, शायद वह कुछ मदद कर सकें. प्रो. अभय सिंह, रूहेलखंड विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास विभाग के शोध छात्र और बाद में शिक्षक भी रहे हैं. बरेली के इतिहास में उनकी गहरी दिलचस्पी है. इन दिनों वह नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति हैं. पत्थर की तस्वीर उन्हें भेजकर आग्रह किया कि मुन्शी जी के बारे में पूछा. उनसे मिला हुआ जवाब यहाँ जस का तस पेश कर रहा हूँ:
दीवान बहादुर सिंह का इतिहास दिलचस्प हैं. फ़ारसी में लिखी हुए 1200 पन्नों की ‘यादगीर-ए-बहादुर’ उनकी ऐसी किताब है, जो सन् 1810 की दुनिया के बारे में तफ़्सील से बताती है. यह दुर्लभ पाण्डुलिपि हैं, जो अवध और स्थानिक इतिहास का मूल स्रोत हैं. इलियट और डाउसन ने इसकी प्रशंसा की है. इसमें दुनिया का भूगोल, विज्ञान, धर्म, और इतिहास की जानकारी है. सूफ़ी विचारों पर, अवध/लखनऊ के इतिहास पर विशेष अध्याय हैं.
बहादुर सिंह कायस्थ जमींदार थे, जो शाहजहानाबाद, यानी पुरानी दिल्ली, के बाशिंदे थे, और 1739 में नादिर शाह और 1761-67 अहमद शाह अब्दाली के हमलों से उजड़ी दिल्ली में जिनका बचपन बहुत मुश्किलों में बीता था. कैसे ही निकल कर वह अवध के दरबार तक पहुँचे. अपने ज्ञान और प्रतिभा के बूते नवाब लखनऊ के दरबार में वज़ीफ़ा पाया, दीवान का दर्जा/पद मिला. वारेन हेस्टिंग के काल में अवध-रुहेला युद्ध (1774) के बाद बरेली जब अवध रियासत के अधीन आ गया, उस समय दीवान बहादुर सिंह भी बरेली आ पहुंचे और रुहेलखण्ड के हो गए.
सन् 1802 के पास अंग्रेज़ों ने बरेली में छावनी बनाई. कार्नवालिस के स्थायी बंदोबस्त 1793 की तर्ज़ पर अंग्रेज़ों ने रुहेलखण्ड में कुछ जमींदारों को मान्यता दी, जिनमें दीवान बहादुर सिंह एक थे. उनके पास नवाबगंज, पीलीभीत और अन्य क्षेत्रों में खेती की ज़मीनें थीं.
दीवान साहब ने कठेरियों के पुराने क़िले की भूमि ख़रीद कर 1825 में वहाँ क़िला कोठी तामीर कराई. इसी कोठी की दीवार में उन्होंने सय्यद नादरशाह वली का आला बनाया. शहर के इंग्लिशगंज में बाज़ार विकसित किया, आवागमन की सुविधा के लिए किला नदी पर पुल का निर्माण किया.
दीवान बहादुर सिंह के पुत्र माधो सिंह भी फ़ारसी के अध्येता थे, वह शायरी भी करते थे और मिर्ज़ा ग़ालिब से शायरी की इस्लाह लिया करते थे. उनका तख़ल्लुस ‘साहेब’ था. उनके पौत्र राय बहादुर मुंशी भीम सिंह थे, जो न्यायाधीश और म्युनिसिपल कौंसिल के सदस्य थे, जिन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य (टीकाकरण) के लिए योगदान दिया.

-
क़िला पुलिस चौक़ी के क़रीब लगा निशान-ए-राह.
महबूब भाई को साथ लेकर क़िला नदी के पुल तक गया कि शायद मुन्शी जी की कोई निशानी वहाँ मिल सके, पर सब्ज़ी और फल वालों की दुकानों की भीड़ और लोगों की रेलमपेल के बीच हम कुछ ढूंढ नहीं पाए. यों भी हमारे शहर के चुंगी वालों को पुराने पत्थरों से बैर है, जहाँ मौक़ा मिलता है, तोड़कर सड़क की गिट्टियों में मिला देते हैं. कंपनी बाग़ के पीछे पुराने बिजलीघर यानी 1928 में बने मार्टिन एण्ड बर्न पावर हाऊस का पता हेलेन रोड हुआ करता था, अक्षर विहार के क़रीब कोने पर ऐसा एक पत्थर भी गड़ा हुआ था पर सड़क चौड़ी हुई औऱ वह निशान ग़ायब हो गया. शुक्र है कि रास्तों के कुछ पुराने पत्थर उनके हथौड़ों से अब भी बचे रह गए हैं, और अपने में गुम लोगों की भीड़ के बीच इतिहास के एक सफ़्हे की शक़्ल में महफ़ूज़ हैं.
सम्बंधित
बायलाइन | सैंया उनको ढूंढे गले में बाजा डाल के…
बायलाइन | पढ़ने का टैम नहीं है, पास कुंजी से होंगे
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं