चिकित्सा के क्षेत्र में इस साल का नोबेल पुरस्कार हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज करने के लिए दिया गया. हार्वे जे. ऑल्टर,माइकल हॉफ़टन और चार्ल्स एम. राइस को संयुक्त रूप से यह पुरस्कार मिला है. [….]
गूगल का आज का ख़ास डूडल साहिबज़ादी ज़ोहरा बेग़म मुमताज उल्ला ख़ान को समर्पित है. सन् 1946 के कान्स फ़िल्म फ़ेस्टिवल में आज ही के दिन दिखाई गई ज़ोहरा सहगल की फ़िल्म ‘नीचा नगर’ की स्मृति में है. ‘नीचा नगर’ को इस फ़ेस्टिवल में पाल्मे डी’ओर अवॉर्ड मिला था. [….]
पत्रकार-साहित्यकार नीलाभ लिखते हैं कि ‘जैज संगीत एफ़्रो-अमेरिकंस के दुःख-दर्द से उपजा चट्टानी संगीत है’. फ्लशिंग मीडोज़ का बिली जीन किंग टेनिस सेंटर और विशेष रूप से आर्थर ऐश सेन्टर कोर्ट मुझे एक ऐसा स्थान लगता है, जहां ये संगीत नेपथ्य में हर समय बजता रहता है [….]
क़ुर्रतुलएन हैदर ने एक इंटरव्यू में बताया था कि सरहद पार के रिश्तेदार तरकारी कहने पर उनका मज़ाक बनाया करते क्योंकि वे लोग तो सब्ज़ी खाते हैं. मगर अपने यहां तो सब्ज़ी वाला, सब्ज़ी मंडी, हरी सब्ज़ियां जाने कब से लोगों की ज़बान पर हैं [….]
बात 1381 साल पहले की है. यह अजब जंग थी. इंसानी तहज़ीब और तारीख़ का सबसे ख़तरनाक अंधा मोड़. जब कर्बला में अंधेरों ने सच की उजियारे को निगल जाने की नाकाम कोशिश की थी. [….]
कहानी एक लफ़्ज़ की | अलमारी बोलते हुए शायद ही कभी आपको लगा हो कि यह लफ़्ज़ पुर्तगाली से हमारी ज़बान में आया. [….]
रघुपति सहाय यानी फ़िराक़ गोरखपुरी की ज़िंदगी में और अब तक ऐसे कितने क़िस्से-वाक़ये बयान किए जाते रहे हैं कि वह हिन्दी और हिन्दी के लेखकों को पसंद नहीं करते थे. उनकी शख़्सियत पर चस्पा इस नापसंदगी की बाबत कुछ ऐसे क़िस्से भी कहे-सुने जाते हैं कि वह हिन्दी के घोर विरोधी थे. [….]
कहानी एक लफ़्ज़ की | एक दौर में शैतान और पढ़ाई से बचने वाले हिन्दुस्तानी बच्चों को नसीहत के तौर पर बुजुर्गों की पसंदीदा कहावत थी – पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब/ खेलोगे-कूदोगे होगे ख़राब. [….]
कहानी एक लफ़्ज़ की | बहुत से आमफ़हम लफ़्ज़ हैं, जो हम रोज़मर्रा के कामकाज में इस्तेमाल करते हैं मगर कई बार उसके मायने से ग़ाफ़िल ही रहते हैं. आज से हम हर रोज़ एक शब्द के बारे में बताएंगे. [….]
अदब की दुनिया में अदब से ‘इस्मत आपा’ कही जाने वाली इस्मत चुग़ताई अपने दौर की इस क़दर बेबाक़ और बग़ावती तेवर वाली लेखिका थीं कि ‘महिला मंटो’ और ‘लेडी चंगेज़ ख़ां’ भी कही जातीं. उनके दौर में जब ‘स्त्री विमर्श‘ साहित्य की कोई स्वतंत्र धारा नहीं थी [….]