राहुल सांकृत्यायन अथक यायावर हुए हैं. उनके बाद ‘बाबा’ को यह ख़िताब मिला. उनके बाद फिर किसी को नहीं. बाबा यानी वैद्यनाथ मिश्र – विद्यार्थी, वैदेह. यात्री नागार्जुन बाबा! हिन्दी और मैथिली कविता के, जनपक्षधरता और प्रगतिशीलता के अप्रतिम कवि. [….]
विष्णु प्रभाकर हिन्दी के उन विरले साहित्याकरों में हैं, जिन्होंने कहानियां लिखीं, उपन्यास, नाटक और यात्रा वृतांत लिखे, ‘अर्द्धनारीश्वर’ के लिए पुरस्कार-सम्मान पाए, आत्मकथा लिखी, जिनकी सौ से ज्यादा किताबें हैं मगर वृहत्तर पाठक वर्ग उन्हें ‘आवारा मसीहा’ के लिए जानता है. [….]
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) और हिंदी सिनेमा दोनों में ही प्रेम धवन की पहचान एक वतनपरस्त गीतकार की रही. जिन्होंने अपने गीतों से लोगों में वतनपरस्ती का जज़्बा जगाया. एकता और भाईचारे का संदेश दिया. [….]
अगर वह होते तो देख पाते कि हमने उनकी बानी और उनका दर्शन किस क़दर आत्मसात किए हैं, कितना अमल करते हैं उनके कहे पर. लुकाठी हाथ लेकर बाज़ार में खड़े होने के उनके आह्वान से इतना मुतासिर हुए कि हमने अपने आसपास का सब कुछ बाज़ार में तब्दील कर डाला है [….]
अमृतसर में ‘पिंगलवाड़ा’ इंसानियत का ऐसा तीर्थ है, जिसकी कोई और मिसाल नहीं मिलती और न ही ‘पिंगलवाड़ा’ के संस्थापक भगत पूरन सिंह सरीखा ही दूसरा कोई हुआ. ‘पिंगलवाड़ा’ अपनी तरह का अकेला ऐसा ठिकाना है, जो बच्चे-बूढ़े, औरत-मर्द, बीमार-अपाहिज और बेसहारा लोगों का अपना घर है. [….]
‘‘लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटककार आओ, हाथ से और दिमाग़ से काम करने वाले आओ और स्वंय को आज़ादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो.’’ [….]
शरद जोशी ने फ़िल्मों के लिए संवाद लिखे, टेलीविज़न के सीरियल भी लिखे, मंच पर पढ़ते हुए ख़ूब मक़बूल हुए मगर ज़माना उनकी तंज़निगारी का क़ायल हुआ, आज तक है. [….]
बक़ौल नामवर सिंह, “छायावाद का अर्थ चाहे जो हो, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो 1918 से 36 ईस्वी के बीच लिखी गईं. [….]
गिरीश कर्नाड, नाम जेहन में आते ही वो बेधने वाली तस्वीरें सामने आ जाती है जिसमें एक शख्स नाक में ड्रिप लगाए ‘नॉट इन माई नेम’ की तख्ती लिए हुआ खड़ा है, जो अपने समय में अपनी उपस्थिति को भौतिक रूप से भी दर्ज कराना चाहता है. जिसके सरोकार का दायरा केवल रचनाओं तक सीमित नहीं है. [….]
पाकिस्तान से युद्ध के दिन थे. हवा भारी थी. लोग डरे हुए और सचमुच नीमसंजीदा. आकाश झुककर छोटा सा हो गया था. – रंगहीन मटमैला तथा डरावना. क्षणों की लंबाई कई गुना बढ़ गई थी. आतंक, असुरक्षा और बेचैनी से लदा दिन वक्त से पहले निकलता और शाम के बहुत पहले यकबयक डूब जाता था. [….]