देश के पहले गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने एक कविता पढ़ी थी – ‘जनतंत्र का जन्म’.. आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता है मूरख मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में [….]
हिन्दी रंगमंच की दुनिया में दिनेश ठाकुर की पहचान रंगकर्मी, अभिनेता और नाट्य ग्रुप ‘अंक’ के संस्थापक और निर्देशक के तौर पर है. ‘अंक’ का सफ़र 1976 में शुरू हुआ, जो उनके इस दुनिया से जाने के आठ साल बाद भी जारी है. रंगमंच हो, टेलीविज़न या फिर सिनेमा – हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी अलग छाप छोड़ी. [….]
मक़बूल फ़िदा हुसेन कई बार अपनी बनाई तस्वीरों के मुक़ाबले ख़ुद कहीं ज़्यादा चर्चा में रहते. उनकी शख़्सियत और अख़लाक़ बहुतों को मुतासिर करता. जो उनके सम्पर्क में रहे वे तो ख़ैर क़रीब से देखते-जानते, मगर उनसे कभी न मिलने वाले भी उन पर बात करके संतुष्ट हो लेते. [….]
गुरशरण सिंह हमारे दौर के विलक्षण सांस्कृतिक लोकनायक थे. ऐसी मशाल जो मनुष्य-विरोधी अंधेरों के ख़िलाफ़ रोशनी के इरादे से हमेशा आगे रहती. लोक चेतना के लिए उन्होंने जो किया और जैसा जीवन जिया, उसे आगे की पीढ़ियां भुला नहीं सकेंगी. [….]
बरेली में प्रभा सिनेमा के बराबर का वह संकरा रास्ता दरअसल एक विशाल अहाते में खुलता है..कई भव्य कोठियां, एकाध मोटर गैराज, एक बन्द शटर के माथे पर ब्लिस फ़िल्म का बेमेल-सा बोर्ड..बरसों पहले रिपोर्टिंग के दिनों में मैं पाल को खोजने के लिए इस अहाते में दाख़िल हुआ करता था. [….]
एक दौर था जब ख़ुमार बाराबंकवी के क़लाम का नशा उनके चाहने वालों के सिर चढ़कर बोलता था. जिन्होंने मुशायरों में उन्हें रु-ब-रु देखा-सुना है या उनके पुराने वीडियो देखे हैं, वे ख़ुमार के जादू से ज़रूर वाक़िफ़ होंगे. [….]
हिन्दुस्तानी अदब में सज्जाद ज़हीर की शिनाख्त तरक़्क़ीपसंद तहरीक के रूहे रवां के तौर पर है. वे राइटर, जर्नलिस्ट, एडिटर और फ़्रीडम फ़ाइटर भी रहे. 1935 में थोड़े से तरक़्क़ीपसंद दोस्तों के साथ मिलकर लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की दागबेल डालने वाले सज्जाद ज़हीर [….]
भीत-सी आँखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेश-पत्र लौटाते हुए कहा – ‘आपने आयु ठीक नहीं भरी है. ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी.’ [….]
फ़िल्मी गीतों की मार्फ़त ही शैलेंद्र को पहचानने वाले मुमकिन कि यह न जानते हों कि बरसों से सड़कों पर जो नारे वे सुनते आए हैं, दीवारों पर पढ़ते आए हैं, उनमें से कितने ही शैलेंद्र की देन हैं – ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है..’ [….]
बात 1381 साल पहले की है. यह अजब जंग थी. इंसानी तहज़ीब और तारीख़ का सबसे ख़तरनाक अंधा मोड़. जब कर्बला में अंधेरों ने सच की उजियारे को निगल जाने की नाकाम कोशिश की थी. [….]