मंटो मेरा दुश्मन | संस्मरण का संस्मरण

  • 6:58 pm
  • 9 October 2021

(यह संस्मरण है भी और नहीं भी. दरअसल यह मंटो पर लिखे उपेंद्रनाथ अश्क के ख़ासे लंबे संस्मरण की किताब की लंबी भूमिका का एक हिस्सा है. इसके समर्पण में अश्क ने लिखा – उन ‘बुद्धिमानों’ के नाम जिन्होंने इस संस्मरण को मंटो के ख़िलाफ़ समझा. सन् 1956 में आई किताब की यह भूमिका मूल संस्मरण के बारे में तो बताती ही है, इलाहाबाद के उस दौर की साहित्य की दुनिया और उस पर अश्क के नज़रिये का पता भी देती है.)

“मेरे श्रृंगार-गृह में कोई कंघी नहीं, कोई शैम्पू नहीं, कोई घुंघर पैदा करने वाली मशीन नहीं. मैं सिंगार नहीं जानता – आग़ा हश्र की भैंगी आँख मुझ से सीधी नहीं हो सकी. उसके मुँह से गालियों के बदले में फूल नहीं झड़ा सका. ‘मीराजी’ के पतन पर मुझ से इस्त्री नहीं हो सकी और न मैं अपने दोस्त श्याम को मजबूर कर सका कि वह (अपनी ग़लत समझ के मुताबिक) औरतों को सालियाँ न कहे – इस किताब में जो भी फ़रिश्ता आया है, उसका मुंडन हुआ है और यह रस्म मैंने बड़े सलीक़े से अदा की है.”

ये पंक्तियाँ उर्दू के बदनाम, लेकिन शक्ति-सम्पन्न कहानी-लेखक सआदत हसन मंटो की पुस्तक ‘गंजे फ़रिश्ते’ की अन्तिम पंक्तियाँ हैं. ‘गंजे फ़रिश्ते’ में पाकिस्तान के क़ायदे आज़म ‘जिन्ना’ से लेकर ‘फ़िल्म इंडिया’ के सम्पादक बाबू राव पटेल तक, मंटो ने उन तमाम लोगों के संस्मरण दिए हैं, जिनसे वह अपनी ज़िन्दगी में मिला और जिनके साथ उतने कुछ दिन गुज़ारे.

चूंकि इन संस्मरणों पर पाकिस्तान के पुरातनपंथी अख़बारों में बड़ा शोर मचा, इसलिए मंटो ने जब इन्हें ‘गंजे फ़रिश्ते’ में संकलित किया तो पुस्तक के अन्त में अपनी सफ़ाई दी, जिसकी अन्तिम पंक्तियाँ मैंने ऊपर उद्धरित की हैं.

ये पंक्तियाँ मंटो के संस्मरणों की तरह उसकी साफ़-गोई, बेबाकी और फक्कड़पने की साक्षी हैँ. जिन लोगों ने उसे कुछ देर के लिए भी देखा हैँ या उससे बातें की हें, वे इनमें मंटो को उसकी तमाम झल्लाहट और तीखेपन के साथ देख सकते हैं. मंटो ने अपने घनिष्टतम मित्र श्याम अथवा अपने श्रद्धास्पद गुरु ‘बारी’ अथवा पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना के बारे में भी लिखा तो इसी साफ़-गोई से काम लिया.

मंटो मेरा दुश्मन था, यह बात मुझे स्वयं अपनी कलम से कभी न लिखनी पड़ती, यदि मित्रों ने इसका प्रचार न कर दिया होता और कृष्णचन्द्र ने मंटो के बारे में अपना लेख लिखते हुए, मंटो की ज़िन्दगी ही में लोगों की इस धारणा पर अपनी मुहर न लगा दी होती.

गत वर्ष जब मंटो की असामयिक मृत्यु की ख़बर मुझ तक पहुँची तो मेरे पास पत्र पर पत्र आने शुरू हुए कि मंटो के सम्बन्ध में मैं कुछ ज़रूर लिखूं; कि मैंने उसके साथ कई बरस गुज़ारे हें; मेरे साथ उसकी दोस्ती भी रही है और दुश्मनी भी और मैं मंटो के चरित्र पर नज़दीक से रोशनी डाल सकता हूँ.

यह अजीब बात है कि मंटो के मरते ही, उन लोगों में भी, जिन्होंने ज़िन्दगी में उसके लिए अपने दरवाज़े बन्द कर लिए थे, उसके लिए एक अजीब-सा प्यार उमड़ आया. पाकिस्तान रेडियो ने मंटो की कृतियों को ब्रॉडकास्ट करना बन्द कर दिया था. बहाना चाहे उसके पाकिस्तान-विरोधी लेख अथवा मुस्लिम लीग-विरोधी कहानी अथवा पाकिस्तान में उस पर चलने वाले मामलों को लेकर बनाया गया, पर वास्तव में पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल श्री जुलफ़िकार अली बुख़ारी, (छोटे बुख़ारी साहब) उससे व्यक्तिगत रूप से असन्तुष्ट थे.

मैंने जब यह बात सुनी तो मेरे सामने विभाजन से पहले की वह शाम गुज़र गई, जब छोटे बुख़ारी साहब ने (जो उस समय ऑल इंडिया रेडियो बम्बई में स्टेशन डायरेक्टर थे और एक साथ कांग्रेसी और मुस्लिम लीगी नेताओं के साथ साँठ-गाँठ रक्खे हुए थे) हमें – मुझे, कृष्ण और मंटो को – रेडियो प्रोग्रामों को नया रंग देने के सिलसिले में बुलाया था और यद्यपि कृष्ण चुप रहा था, लेकिन मंटो ने उनकी बड़ी गत बनाई थी. वे यद्यपि कौच पर बैठे थे, पर मंटो कौच पर बैठने के बदले उनके सामने नीचे गलीचे पर निहायत बेतकल्लुफ़ी से लगभग लेट गया और बहस-बहस में ख़ासी खरी-खरी उसने बुख़ारी साहब को सुना दी थीं.

बुख़ारी साहब उस झाड़ को कैसे भूले होंगे? यदि किसी बहाने से उन्होंने रेडियो पाकिस्तान के दरवाज़े उस पर बन्द कर दिए तो अजीब बात नहीं! अजीब बात यह है कि जब मंटो की मृत्यु हुई तो पाकिस्तान रेडियो ने आधे घंटे का प्रोग्राम प्रसारित किया. लेकिन मुझे इसमें भी आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि बड़े आदमियों के साथ हमेशा से यही होता आया है.

इलाहाबाद आने पर चाहे मंटो से किसी तरह का सम्बन्ध न रह गया था तो भी कुछ तो उस स्नेह के कारण जो कौशल्या को सफ़िया भाभी से था और कुछ उन उच्चकोटि की कहानियों के कारण, जो मंटो ने पाकिस्तान में जाकर सृजीं, मैं उसकी गति-विधि की ख़बर रखता रहा.

मंटो ने पाकिस्तान में जाकर बहुत-सी कहानियाँ लिखीं. उनमें से अधिकांश उसे शराब की एक बोतल का ख़र्च जुटाने के लिए लिखनी पड़ीं. जब-जब उसे ज़रूरत पड़ी, वह प्रायः हर रोज़ एक कहानी लिखता रहा.

प्रकट है कि उनका साहित्यिक-स्तर, मंटो की लेखनी के समस्त गुणों के बावजूद, ऊंचा नहीं रह सका. लेकिन उसने कुछ कहानियाँ ऐसी भी लिखीं जो उसकी पहली कहानियों के मुक़ाबिले में कहीं महान्‌ थीं और उनका सामाजिक यथार्थ कहीं गहरा और चोट पहुँचाने वाला था – ‘खोल दो’, ‘टोबाटेक सिह’ और ‘नंगी आवाज़ें’, ऐसी ही कहानियाँ हें और मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि दूर रह कर भी, मेरा तथाकथित शत्रु होकर भी, इन कहानियों के द्वारा मंटो कहीं मेरे निकट आ गया था.

तो भी अपनी घोर व्यस्तता में, मंटो पर मैं कभी इतना लम्बा संस्मरण न लिखता, यदि कृष्णचन्द्र के छोटे भाई महेन्द्रनाथ ने (जो स्वयं बड़े अच्छे कहानी-लेखक और उपन्यासकार हैं) बम्बई से मुझे यह न लिखा होता कि यदि मैंने मंटो पर कुछ न लिखा तो वह कभी (दूसरी दुनिया में भी) मुझे माफ़ न करेगा.

महेन्द्र बम्बई से ‘शायर’ का मंटो-विशेषांक निकाल रहे थे. न जाने महेन्द्र के उस वाक्य में कैसा अनुरोध था कि मैं मान गया और मैंने लिख भेजा कि उनके विशेषांक के लिए मैं ज़रूर कुछ लिखूंगा.

मंटो की मृत्यु के कुछ ही महीने पहले पाकिस्तान से ‘मकतबा-जदीद’ के मालिक और मेरे पुराने दोस्त चौधरी बशीर अहमद आए थे. उनसे मैंने मंटो की किताबें भेजने के लिए कहा था, उन्होंने जाते ही मंटो का पूरा सेट भेज दिया था और मैंने मंटो की नई-पुरानी सभी चीजें एक बार फिर पढ़ी थीं. मैंने महेन्द्र को पत्र तो लिख दिया, पर तब यह सवाल पैदा हुआ कि मैं शोक-संतप्त कोई वैसा लेख लिखूं जैसा कि कृष्णचन्द्र ने ‘आइना’ में लिखा था या ऐसा, जो मंटो को उसके तमाम गुण-दोषों, बड़ाई और छुटाई के साथ पढ़ने वालों के सामने रख दे.

मैं मान लेता हूं कि ‘गंजे फ़रिश्ते’ के लेखक के प्रति मुझसे बद-दयानती नहीं हो सकी और मैंने पूरी सचाई और पूरी दयानतदारी के साथ, लगातार डेढ़ महीने के अनवरत श्रम से, यह संस्मरण लिखा और चूँकि इतना लम्बा संस्मरण ‘शायर’ में छप न सकता था, इसलिए यह ‘नक़ूश’ लाहौर के दो अंकों में छपा. वादा तो सम्पादक ‘नक़ूश’ ने इसे एक ही अंक में छापने का किया था, पर जब संस्मरण उन्हें मिल गया तो उन्होंने न केवल उसे दो अंकों में छापा, बल्कि पहली किस्त को छापते समय यह भी नहीं लिखा कि इसका अन्त दूसरे अंक में होगा. न केवल यह, बल्कि संस्मरण को दो स्वतन्त्र भागों में बांटने के उद्देश्य से उन्होंने इसका एक महत्त्वपूर्ण पैरा भी काट दिया. हालाँकि यह मेरे साथ ज़्यादती थी, पर सम्पादकों के पास लेख देने, न देने, रोक लेने या काट-छाँट कर देने के बीस बहाने हैं. मैंने जब पत्र लिखा तो उन्होंने पाकिस्तान में काग़ज़ के अभाव का बहाना कर दिया.

मुझे यह मानने में भी संकोच नहीं कि उर्दू में मेरी कोई भी रचना इतनी नहीं पढ़ी गई और न किसी पर इतने पत्र आए. कराची से लेकर कलकत्ता और काश्मीर से हैदराबाद तक उर्दू भाषा-भाषियों में इसकी चर्चा रही.

कृष्णचन्द्र ने इसके बारे में लिखा-

“मंटो: मेरा दुश्मन – में अश्क ने सचाई और साफ़-बयानी को सामने रखा है. इस लेख में उन्होंने मंटो के व्यक्तित्व के दोनों पहलू दिखाए हैं और उसके चरित्र के – जीवन-दर्शन और कृतित्व के -सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर प्रकाश डाला है. कहीं-कहीं वे अपनी साफ़-बयानी में तीखा लहजा इख़्तयार कर गए हैं. लेकिन अश्क का मंटो पर लिखना एक तीखे मिज़ाज वाले साहित्यकार का एक तीखे मिज़ाज वाले साहित्यकार पर लिखना है और इसीलिए बेहद दिलचस्प है, जीवन कथात्मक है, व्यंग्य भरे चुटकलों से भरा है ओर ऊंचे दर्जे का रेखा-चित्र है.”

बेदी (राजेन्द्र सिंह बेदी) ने एक पत्र में लिखा –

“मंटो पर तुम्हारा लेख पढ़कर महसूस हुआ कि मंटो के नामनिहाद (तथाकथित) दोस्तों के मुकाबिले में तुम दुश्मन होकर भी उसके कितने नज॒दीक थे.”

इन सब पत्रों में, जो मुझे इस संस्मरण के सम्बन्ध में मिले, सब से महत्व-पूर्ण और क़ीमती पत्र सफ़िया भाभी (मिसेज़ मंटो) के हैं.
पहले पत्र में उन्होंने लिखा –

“….‘नक़ूश’ में आपका मज़मून पढ़ा. अगरचे सआदत साहब की बहन को तो पसन्द नहीं आया, लेकिन मुझे बड़ा अच्छा लगा. आपने सब बातें सच्ची-सच्ची लिखी हैं.”

मैंने उन्हें लिखा कि संस्मरण आधा छपा है. पूरा छप जाय तो उनसे पूछकर फिर लिखिएगा. ‘नक़ूश’ का दूसरा अंक निकलने के बाद फिर उनका ख़त आया –

“आपके मज़मून का दूसरा हिस्सा हम सब ने साथ मिलकर पढ़ा. बहुत अच्छा लगा. बहन की आँखों में तो आँसू आ गए.”

इस संस्मरण को पाकिस्तान में छपे लगभग एक साल होने को आया है, लेकिन अभी तक वहाँ इसकी चर्चा बाक़ी है. अभी 17 जून को रावलपिंडी से कवि मुख़्तार सिद्दीक़ी का एक पत्र आया है, जिसमें उन्होंने दूसरी बातों के अलावा इस संस्मरण का भी उल्लेख किया है –

“इस दौरान में आप की दो-चार चीज़ें भी पढ़ीं, जिनमें सबसे हंगामाख़ेज़ मंटो पर आपका मज़मून है. इसका यहाँ बड़ा तज़किरा रहा. लिखने-पढ़ने वाले लोगों का ख़याल है कि मंटो पर जो कुछ निहायत रोमानी और निहायत इनसिंसीयर अन्दाज़ में मुख़तलिफ़ लोगों ने लिखा है, वह सब-का-सब ग़ैर-हक़ीक़ी और मसनूई’ है, काम की चीज़ अश्क का मज़मून है और बस.”

लेकिन हिन्दी में इसकी प्रतिक्रिया भिन्न भी हुई और दिलचस्प भी.

मेरे मित्र और पड़ोसी श्री भैरवप्रसाद गुप्त (सम्पादक कहानी) मंटो के बड़े भक्त हैं. जिन दिनों मैं यह संस्मरण लिख रहा था, उनसे बराबर इस सिलसिले में बात-चीत होती थी. बल्कि यों कहें तो ठीक होगा कि मैं जितना रोज़ लिखता था, उन्हें सुना देता था. इस संस्मरण में दो-एक घटनाएं, जो मैं साधारणतः न देता, मैंने उनके अनुरोध पर ही दीं – मंटो के नाटक की काट-छाँट के बाद स्टेशन डायरेक्टर के कमरे में जो झगड़ा हुआ, उस पर अपनी प्रतिक्रिया मैंने लेख में पहले नहीं दी थी.

जब मैंने भैरव से उसका उल्लेख किया तो उन्होंने कहा, “इसका ज़िक्र तुम्हें ज़रूर करना चाहिए.” और मैंने अपनी प्रतिक्रिया ज्यों-की-त्यों उसमें बढ़ा दी. हालाँकि वह मेरे चरित्र का एक बड़ा ही कमज़ोर पहलू पाठकों के सामने रखती है, लेकिन जैसा कि भैरव ने कहा था – ऐसा न करना कायरता होती.

जब पूरा संस्मरण लिखा जा चुका, तब भी एक शाम मैंने भैरव ही के यहाँ कुछ प्रगतिशील लेखकों के सामने इसे पढ़ा और सबने बड़ा पसन्द किया. न केवल यह, बल्कि अनुरोध किया कि मंटो लाख उर्दू का लेखक सही, पर अब ‘माया’ और कहानी” के द्वारा हिन्दी वाले उसे जान गए हैं और चूंकि हिन्दी के लिए यह संस्मरण-शैली एकदम नई है, इसलिए इस संस्मरण को हिन्दी में भी लिखा जाय.

मैंने इसे हिन्दो में भी लिखा और यह सोच ही रहा था कि इसे कहाँ छपने के लिए भेजूं कि उन्हीं दिनों ‘नया पथ’ के सम्पादक श्री शिव वर्मा इलाहाबाद आए. भैरव ने उनसे इस लेख का ज़िक्र किया और अनुरोध किया कि यह लेख ‘नया पथ’ में ज़रूर छपे. ‘नया पथ’ से मेरा सम्बन्ध उस समय से है, जब वह ‘नया पथ’ के बदले ‘नया साहित्य’ था और बम्बई से निकलता था. तब मेरी कई रचनाएं उसमें छपी भी थीं, लेकिन जब से यह ‘नया पथ’ हुआ, मेरा सम्बन्ध उससे लगभग कट गया. फिर जब यह लखनऊ से प्रकाशित होने लगा तो लगभग एक वर्ष पहले रमेश सिन्हा आए और उन्होंने ज़ोर दिया कि अब वे फिर अपना क्षेत्र विस्तृत कर रहे हें और मैं उसमें अवश्य लिखूँ और मैंने एक आलोचनात्मक लेख भी दिया.

मैं इस बात के कारणों और औचित्य के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना चाहता, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि ‘नया पथ’ के सम्पादकों और पाठकों के मन में उत्तम कलाकृतियों के लिए कुछ अन्यमनस्कता अथवा विरोध-भाव-सा रहा है. उपादेयता ‘नया पथ’ का माप-दण्ड है. लेकिन किसी कलाकृति को उपादेयता कितनी है, इसके बारे में सदा दो मत रहे हें. उत्तम कलाकृति यदि उपादेयताहीन है तो मेरे ख़याल में उसमें कला का अभाव है. इसके साथ ही ऐसी कृति जिसकी उपादेयता स्पष्ट होती है, कई बार अनगढ़ और कला-विहीन होती हैँ. उत्तम कलाकृति में प्रायः उपादेयता छिपी रहती है, फूहड़ रूप से ऊपर नहीं आती.

राजेन्द्र सिंह बेदी की एक बड़े ही ऊँचे स्तर की कहानी ‘नया पथ’ में छपी. उस पर पाठकों के जो पत्र आए, उन्हें पढ़कर मेरा यह निश्चय और भी पक्का हो गया. इसीलिए मैं इस संस्मरण को ‘नया पथ’ में देने के विरुद्ध था. शिव वर्मा जब मेरे पास आए तो मैंने उनसे कहा भी कि यह संस्मरण ‘नया पथ’ के योग्य नहीं – पहले तो यह कि इतने लम्बे संस्मरण को आप किस्तों ही में छाप सकेंगे और किस्तों में छपने पर इसका ठीक मूल्यांकन न हो सकेगा; दूसरे इसकी शैली हिन्दी के लिए बिलकुल नई और व्यक्तिगत है; तीसरे यह आपकी पॉलेसी के अनुरूप नहीं, वर्माजी ने मुझे विश्वास दिलाया कि इधर उन्होंने पॉलेसी बदल दी है और वे अच्छी कलापूर्ण चीज़ें भी छापने लगे हैं और सभी लेखकों से सहयोग ले रहे हें. इस पर भी मैंने उन्हें विवश किया कि वे सारा लेख सुनें तब लेकर जाएं.

उन्होंने लेख सुना और ले गए. लेकिन मैंने इसी पर संतोष नहीं किया. लेख के सम्बन्ध में मैंने एक नोट लिख भेजा कि इसे पहली किस्त के शुरू में दे दीजिए. मैंने उस नोट में (जो पहली किस्त पर छपा) यह भी लिखा कि संस्मरण बहुत लम्बा है. पाठकों से निवेदन हे कि इसे पूरा पढ़े बिना, इसके बारे में कोई राय क़ायम न करें. टुकड़ों में पढ़े जाने पर यह गलत इस्प्रेशन भी दे सकता हे.

संस्मरण ‘नया पथ’ के नवम्बर 1955 के दीवाली नव-वर्षांक से छपना शुरू हुआ और पहली किस्त को पढ़कर कुछ लोगों ने प्रशंसा के पत्र भी लिखे और एक-आध ने आपत्ति भी की, लेकिन दूसरी किस्त के बाद ही कुछ लोगों ने (जिन्होंने शायद मेरा वह नोट नहीं पढ़ा, या पढ़कर भी उसकी माहियत नहीं समझा) उसका विरोध किया. इधर इलाहाबाद में कुछ प्रगतिशील मित्र व्यक्तिगत कारणों से मुझसे बेहद नाराज़ हो गए. इनमें से एक का नाम ‘नया पथ’ के सलाहकार सम्पादकों को सूची मे भी जाता हें. उन्होंने न केवल अपने कुछ चेलों से इसके विरोध में चिट्ठियाँ लिखवाईं, बल्कि स्वयं भी बिना लेख को पढ़े ‘नया पथ’ के सम्पादक को एक कार्ड लिख भेजा कि जब मंटो इस संस्मरण का उत्तर देने को मौजूद नहीं तो ऐसा लेख क्यों छापा जा रहा है, इसको तत्काल बन्द कर दिया जाय.

और ‘नया पथ’ के ‘बुद्धिमान’ सम्पादक ने बिना मुझे सूचित किए, लेख का छापना रोक दिया. बाद में उन्होंने लिखा कि वे शेष सम्पादकों की राय जानने के लिए पत्र लिख रहे हैं. मैं यह नहीं समझ सका कि बिना पूरा लेख पढ़े, शेष सम्पादक कैसे उस पर राय दे सकते थे.

मुझे शिकायत न ‘नया पथ’ के उन पाठकों से है, जिन्होंने उस नोट के बावजूद, बिना पूरा लेख पढ़े, राय देना उचित समझा; न ‘नया पथ’ के उन सलाहकार सम्पादक से, जिन्होंने व्यक्तिगत विद्वेष के कारण निहायत बद-दयानती से, बिना लेख की एक भी किस्त पढ़े, वह आदेश लिख भेजा. क्योंकि पहले तो हर पाठक से पूरी-पूरी समझदारी की आशा नहीं की जा सकती और मूर्खों के सिर सींग नहीं होते, फिर जैसा कि चेख़व ने लिखा है- झूठ, रयाकारी, बद-दयानती और कायरता साधारण लोगों ही में नहीं, लेखकों में भी होती है.

मुझे शिकायत केवल ‘नया पथ’ के सम्पादक से है, जिन्होंने मेरे नोट के बावजूद उन चिटिठयों का नोटिस लिया और भेजने वालों को यह लिखने के बदले कि पूरा पढ़कर तब लिखिएगा, न केवल उन विरोधी चिट्ठियों को छापकर अपनी बुद्धिमत्ता का सबूत दिया, बल्कि उस वक़्त लेख रोक दिया जब मंटो की कला और उसके व्यक्तित्व की प्रशंसा वाला उसका भाग छपने को शेष था. यह न केवल मेरे, वरन्‌ मंटो के साथ भी अन्याय था.

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