किताब | साइकिल से दुनिया की सैर

  • 11:46 am
  • 23 March 2024

साइकिल यात्री और बेहतरीन क़िस्सागो होने के लिए अलग तरह की लियाक़त की दरकार होती है और इस लिहाज़ से देखें तो बिमल दे दोनों ही तरह के हुनर से भरपूर घुमक्कड़ हैं. बांग्ला में छपी उनकी किताब ‘सुदूरेर पियासी’ का हिन्दी अनुवाद ‘साइकिल से दुनिया की सैर’ पढ़ते हुए बार-बार लगता रहा कि दुनिया घूमने के लिए जैसी ज़िद, जोश, जज़्बा और हौसला चाहिए, जितनी समझ और ज्ञान की ज़रूरत है, जतन करके वह सब हासिल कर लेने के बाद भी अपने तजुर्बे का ऐसा सरस और दिलचस्प बयान ग़ैर-मामूली प्रतिभा से ही संभव है.

कलकत्ता (अब कोलकाता) से 1967 में शुरू हुआ उनका यह सफ़र पाँच सालों में पूरा हुआ और इस दौरान वह ईरान, तुर्की, रूस, अफ़गानिस्तान, इराक, सूडान, मिस्र, इटली, स्वीट्ज़रलैंड, स्पेन, मोरक्को, ऑस्ट्रेलिया, फ़्रांस, जर्मनी और अमेरिका के तमाम शहरों में गए, कुदरत के कितने ही रंगों, कितनी ही संस्कृतियों-धर्मों वाली छटाओं को क़रीब जाकर देखा, कितनी तरह के लोगों से मिलते रहे, लोगों की हिक़ारतें झेली और बेशुमार दोस्त बनाए, उनके घरों में आश्रय और सफ़र में उनका सहयोग पाया. साइकिल से चले, साइकिल लेकर पैदल चलते आल्प्स पार किया, नौकाओं और हवाई जहाज में सफ़र किया और अतंतः वह सब कर सके, जो उनका अभीष्ट था – दुनिया के रंगों को अपनी निगाह से देखने का संकल्प. और हमें बताने के लिए वह सब याद रखा.

यह किताब नितांत अन्जान देशों और एकदम अन्जाने लोगों के बीच बिताये गए दिनों, जोख़िम से भरी उनकी यात्राओं का बेहद रोचक आख्यान है. हालांकि यह उनकी अकेली यात्रा नहीं थी. सन् 1972 में विश्व भ्रमण से लौटने के बाद आठ साल तक उन्होंने पर्वतारोही सैलानी की तरह दुनिया भर के पहाड़ों की यात्रा की. 1981 से 1989 के बीच तीन बार उत्तरी ध्रुव और दो बार दक्षिणी ध्रुव भी हो आए. अपनी तरह के अनूठे सैलानी और दार्शनिक बिमल दे को गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के कहे पर हमेशा भरोसा रहा है – देश-देश में है मेरा देश, घर-घर में हैं परम आत्मीय… उनका दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु भी है, और परम मित्र भी. अपनी यात्रा के शुरुआती प्रसंग में हज़ारीबाग़ के जंगलों से होकर गुज़रते हुए मिल गए एक राहगीर और काठगोदम के घने अरण्य में मिले मददगारों के हवाले से वह इसे रेखांकित करते भी हैं.

‘साइकिल से दुनिया की सैर’ में उन्होंने मुख्यतः तेहरान, तुर्किस्तान, यूनान, वेनिस, लंदन और ग्रीनलैंड में बिताए दिनों के अपने तजुर्बे विस्तार से दर्ज किए हैं. वहाँ के क़िस्सों के बारे में जान लेने से पहले इतना और जान लीजिए कि कलकत्ता से रवानगी के वक़्त बिमल दे के पास अपनी मामूली साइकिल, पासपोर्ट और ओढ़ने-बिछौने के सामान के साथ जेब में कुल सोलह रुपये थे. पास में सोलह रुपये और जज़्बा दुनिया को घूमकर अपनी आँखों से देखने का.

परदेस में न तो पहचान का कोई सूत्र और न ही जेब में दाम, तो नतीजा यह कि लंदन में पार्क में सोते हुए कपड़े गए तो रात हवालात में बिताई और पुलिस अफ़सर को धन्यवाद देने के साथ ही यह बताकर निकले कि रात को कोई औऱ बंदोबस्त न हुआ तो फिर मिलेंगे. वीज़ा की मियाद गुज़र जाने की वजह से सीमा चौकी पर पकड़ लिए गए तो ताशकंद की जेल में रहे. 15 दिन की जेल हुई थी मगर नेक चाल-चलन, जेल में अपनी मशक़्क़त और ख़ुशमिज़ाजी के चलते दस दिनों बाद ही छोड़ दिए गए.

ग्रीनलैंड में एस्किमो लोगों के साथ बंजारों की तरह लंबे अर्से तक घूमते रहे, वहाँ भूख लगती तो सूखा माँस, मछली का शोरबा यानी कुछ न कुछ मिल जाता मगर न्यूयॉर्क में दाख़िल हुए तो जेब में कुल सात डॉलर तीस सेंट थे. ऐसे में भूख लगने पर पेट भरने के उनके उद्यमों से इस बात का पता ज़रूर मिलता है कि जिंदा रहने की इच्छाशक्ति रास्ता खोजने में बड़ी मददगार होती है. वहाँ वर्ल्ड फ़ेयर में ओरिएंटल कुकिंग स्पेशलिस्ट मिसेज़ मिलर के स्टॉल पर भारतीय भोजन बनाने के साथ ही भोजन करने के तरीक़े के महत्व का प्रदर्शन करते हुए भरपेट खाना खाने का प्रसंग उतना ही मनोरंजक और गुदगुदाने वाला है, जितना कि तेहरान के रास्ते में मिल गए तस्करों से अपनी साइकिल और साज़ो-सामान बचाने का सनसनीख़ेज़ वाक़या.

ताशकंद में तो कुछ दिन एक चोर के साथ गुज़ारे, उसके मना करने और अपना परिचय देकर चेताने के बाद भी न सिर्फ़ खंडहर में उसके साथ रहे बल्कि दोस्त भी बन गए. वेनिस में उनका बसेरा शहर का कूड़ा-कचरा इकट्ठा करने वाली नाव थी. दिन भर शहर भर से कचरा इकट्ठा करने में म्युनिसिपल कर्मचारी की मदद करते और नहरों वाले उस शहर को देखते हुए उसका भूगोल समझते. वेनिस की इमारतों के इतिहास, उनकी स्थापत्य कला, वहाँ की कला-वीथिकाओं और संग्रहालयों में देखी गई कलाकृतियों का उन्होंने बहुत सुरुचिपूर्ण और विस्तृत ब्योरा दिया है.

इगलू में रहते हुए एस्किमो लोगों की ज़िंदगी को उन्होंने देखा-महसूस किया और उनकी भाषा से बिल्कुल अन्जान होने के बावजूद उनकी ज़िंदगी के तमाम छोटे-बड़े पहलू इतने असरदार तरीक़े से बयान किए हैं कि कई बार उन्हें पढ़ते हुए सिहरन होने लगती है. ग्रीनलैंड के उस सफ़र में ब्रोंकाइटिस का हमला पढ़ते हुए बेचैनी ज़रूर होती है मगर दिल बैठने की वैसी अनुभूति नहीं होती, जैसे कि सउदी अरब में मरुभूमि से गुज़रने के दौरान रेत की आँधी में फंसकर भूखे-प्यासे चार दिन बिताने का क़िस्सा पढ़ते हुए होती है.

उनके इस सफ़रनामे में आहलुवालिया, उरान, नाजो, शिवराम कृष्ण, ब्रायन स्कॉट, लिज़, जैफ़, मारिया लिगास, ट्रिप, बिवेस, पियासिंटिनी, डोमिनिक और मोहम्मद जैसे कई किरदार हैं, जो संवेदनशील इंसान हैं, इंसानियत की ज़बान समझते हैं सो अपनी-अपनी तरह से बिमल के मददगार भी हुए. मगर इस पूरे क़िस्से में तेहरान के जहाँगीर इरमेन जैसा दिलचस्प शख़्स कोई दूसरा नहीं मिलता. और बिमल ने उनकी शख़्सियत का ख़ाका भी इतने मज़ेदार ढंग से खींचा है कि उन पर खीझा जा सकता है, पर दया का भाव भी जागती है. जहाँगीर के साथ उनकी मुठभेड़ और उनकी रिहाइश साझा करने के साथ ही एक समसनीख़ेज़ रहस्य उनकी बीवी के बारे में भी है, जिसके सौंदर्य का बखान करते हुए वह बार-बार बिमल को चेतावनी देते रहते – ख़बरदार, जो उसकी ओर आँख उठाकर भी देखा! और जो रहस्य है, यहाँ उसके बारे में बहुत चर्चा करके भावी पाठकों का मज़ा किरकिरा क्यों करना.

बिमल दे कहते हैं कि आम तौर पर भ्रमणकारियों या घुमक्कड़ों का कोई तयशुदा नियम नहीं होता. मन की उदारता और विस्तार ही शायद सबसे बड़ी सम्पदा होती है. बड़ी अद्भुत और वैचित्र्यमय है यह दुनिया. क़दम-क़दम पर हैं अनुभव – और उन अनुभवों के संचय के लिए हमें अतिक्रमण करने पड़ते हैं अनेक सुख-दुख, कड़वे-मीठे रोमांच तथा स्थान-काल व पात्र. इन सभी को ग्रहण करने के लिए स्वयं को प्रस्तुत रखने की बात मैं नहीं कहता, किन्तु इस बात का ज्ञान हो रास्ता काफ़ी सहज हो उठता है.

वो यह भी कहते हैं कि उनकी इस किताब को ट्रेवल-गाइड के तौर पर न लें, क्योंकि यह भू-पर्यटन के उनके निजी अनुभव हैं. ज़ाहिर है, उनके इस सफ़र के बाद आधी सदी का वक़्त बीत चुका है, भूगोल बदला है, नियम-क़ायदे औऱ इतिहास भी बदले ही हैं, कितना तो पुराना रीत-छीज गया होगा, नया बन गया होगा, वक़्त के साथ संस्कृति भी तो बदलती ही है पर इतने सबके बावजूद मनुष्य और मनुष्यता के भरोसे ऐसे रोमांचकारी सफ़र और क़िस्सों का भरोसा अब भी बना हुआ है.

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किताब | साइकिल से दुनिया की सैर
लेखक | बिमल दे
अनुवाद | प्रेम कपूर
प्रकाशक | लोकभारती पेपरबैक्स
दाम | 350 रुपये
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