बायलाइन | बिच्छी का मंतर और हमारे भीतर का जंगल

  • 8:55 pm
  • 4 April 2021

उन कहानियों को सुनते हुए तब जंगल का इतना ही मतलब समझ आता था कि वहाँ तरह-तरह के पेड़-पौधे और जानवर हैं, जिनकी अपनी दुनिया है. वहाँ शेर की माँद है, ख़रगोश के बिल और दीमक की बाँबी भी. लोमड़ी है कि दिन भर बिल खोदती है और अंधेरा होने पर वह जाने कहाँ बिला जाता है. फिर पूरी रात वह ख़ुद को याद दिलाती रहती है – होत सबेर बिल खोदबौं-खोदबौं.

पढ़ने लायक़ हुए तो चंपक मिली – जानवरों की जादुई दुनिया चित्रों और कहानियों में बदल गई. जानवरों को नए नाम मिल गए – चीकू, भोलू, पलटू, भूरा, लंबू. इन कहानियों ने ही बताया कि सियार, लोमड़ी और कौए चालाक होते हैं, ख़रगोश, बंदर और तोता चुलबुले मगर बुद्धिमान, सारस और हिरन भोले, शेर-चीता-तेंदुए तेज़ और ताक़तवर, गधा एकदम बुद्धू. शेर और साँप और बिच्छू से डरना सिखाया. नेवले की फुर्ती और साँप से उसके रिश्ते भी समझाए.

जंगल की उस दुनिया में एक ही राजा होता था. राजा बूढ़ा हो जाता तो उसका पेट भरने के लिए हर रोज़ एक जानवर उसके पास भेज दिया जाता. इसे ही आत्मोत्सर्ग कहते हैं, तब कहाँ पता था! नील की नाँद में गिरे सियार का ख़ुद को राजा घोषित कर देने वाली कहानी कौन भूला होगा भला!! और शेर को दूसरे राजा से मिलाने के लिए कुँए पर ले जाने वाला सियार भी तो याद ही होगा!!!

जंगल जानते थे और राजा भी, राजा की ताक़त और उसके वफ़ादारों की फ़ौज जानते थे, कुटिलता और साजिशों के खेल पंचतंत्र के क़िस्सों से और उन क़िस्सों की नैतिक शिक्षा भी थोड़ी-थोड़ी समझ में आने लगी थी मगर जंगलराज बहुत बाद में सुना. हद तो यह कि जंगल और राज के युग्म वाली इस उपमा का पहले सुनी हुई कहानियों से बहुत मेल नहीं था.

अख़बार के दिनों में किसी ख़बर में जंगलराज पढ़ता तो तुलना के लिए हमेशा ही कोई न कोई पुरानी कहानी याद आ जाती. ख़ुद अपनी ख़बरों में ऐसी उपमा लिखने से भरसक बचता रहा. फिर इस उपमा का विरोध करने वाले अपनी परिभाषा लेकर आए – अराजकता को जंगलराज कहा जाना ठीक नहीं है इसलिए कि जंगल में जो कुछ घटता है, वह क़ायदे से बंधा होता है, क़ुदरत के क़ायदे से बंधा हुआ. इकोसिस्टम में जो जानवर मांसाहारी हैं, अपनी भूख मिटाने के लिए दूसरे जानवरों को मारता है, वहाँ जानवरों के बीच घृणा का कोई रिश्ता नहीं होता, कोई ख़ूबसूरत दिखने वाली चिड़िया किसी कम ख़ूबसूरत या बदसूरत परिंदे से नफ़रत करती हो ऐसा भी नहीं देखा गया आदि-आदि.

बहुत सभ्य होने से पहले हमारे पुरखे जानवरों के साथ ही तो रहते आए थे, सो जानवरों का किरदार अच्छी तरह पहचानते भी हैं, इसी लिए उपमाएं, उक्तियां हमने जंगल और जानवर में ही तलाश कीं. बगुला भगत, चालाक लोमड़ी, नटखट बंदर, धूर्त सियार, खट्टू बैल, वफ़ादार कुत्ता, सीधी गइया, तेज़निगाह बाज़, चपल चीता, बहादुर शेर, घोंघा बसंत, गधे की तरह गधा और इसी तरह कितने ही विशेषण इंसानों की बिरादरी में आम हैं.

भैंस के आगे बीन बजावै, भैंस खड़ी पगुराय, जब बखत पड़े बांका तो गदहे को कहें काका, शेर कभी घास नहीं खाता, बिल्ली के भाग से छींका टूटा, छाती पे सांप, ऊंट के मुंह में ज़ीरा, हाथी के दांत, आस्तीन का सांप, अदरक का स्वाद, काठ का उल्लू, जंगल में मोर….कहावतें याद करने बैठे तो पन्ने के पन्ने रंग जाएंगे मगर बात ख़त्म नहीं होगी.

इतने तो जंगल में जानवर भी नहीं बचे हैं, जितनी कि कहावतें हमने ईजाद कर ली थीं. जंगल उनके और बस्तियाँ हमारी थीं. मगर कहावतों से मन नहीं माना. बहादुरी की सनद के तौर पर हमने घर की दीवारों पर शेर और बारहसिंगों के सिर टांगे, बाघ की ट्राफ़ी ड्राइंगरूम में सजाई, मर्दानगी की ख़ातिर गेंडे के सींग का गिलास बना डाला, शेर के नाख़ून का ताबीज़ गले में डाला.

हाथी, घोड़ा, ऊंट को रोज़गार पर लगाया. कुत्तों को घर में पाला तो दुलार और फ़ौज में पाला तो ओहदा भी दिया. बकरी दूध तो बकरा बलि में काम आया. सिद्धी पाने के लिए तपस्या करने वाले व्याघ्रचर्म और मृगचर्म पर जाकर जम गए. तीर-तलवार और बंदूक उठाकर मांसख़ोर आखेट के लिए निकल गए. हांका लगाने और ढोल-कनस्तर पीटने वालों के झुंड भी उन्हीं के साथ गए.

अकेला बहेलिया जाल बिछाकर किसी पेड़ की ओट में सुस्ताता. फिर रंगीन परिंदों के पिंजरे लिए चिड़ीमारान के दड़बों में जाकर ग़ुम हो जाता. सह-अस्तित्व में भरोसा रखने वाले थोड़े से लोग जाकर सर्कस में भर्ती हो गए, तोते को साइकिल चलाने, हाथी को फ़ुटबाल खेलने और शेर को क्लासरूम के बच्चों की तरह स्टूल पर बैठने के लिए साधा. जो ये सब न कर सके, उन्होंने भालू, बंदर और साँप का तमाशा सजाया.

साइंस के आले बेचने वाली उस दुकान के शीशे के पीछे कितनी ही क़िस्म के लेबल वाले जार के भीतर फ़ार्मलीन में डूबकर बुत बन गए कनखजूरा, केंचुआ, कछुआ, घोंघा, सांप, स्टार फ़िश, जेली फ़िश, मेंढ़क और टोड दिखाई देते. स्कूल की लैब में उनके दिखाई पड़ने से पहले फ़ार्मलीन की तेज़ गंध से साबका पड़ता. कई बार उन चूहों का ख़्याल भी आता जो इंसानी तजुर्बों के लिए अहम् बन गए. और वह बिल्ली जिसकी जाने कौन-सी पुरखिन हज को गई थी कि लोग बहाने-से उसे अब भी याद कर लेते हैं.

याद तो कंगारू की वह तस्वीर भी आती है, जिसमें आग की लपटों के सामने पेट से अपने शिशु को चिपकाए सहमा-सा खड़ा कंगारू दिखाई देता है. वह हिमालयन पैंथर भी, जो हिमाचल की सड़क पर सैलानियों की सेल्फ़ी का केंद्र बन गया था. लॉकडाउन की ख़ामोशी वाले दिनों में शहर की सड़कों पर चहलक़दमी करते जानवरों की तस्वीरें भी भूली नहीं हैं.

इन दिनों जब पहाड़ के जंगल धधक रहे हैं, मैदानों में भी आग है. बांधवगढ़ और शिवपुरी में नेशनल पार्क वाले इलाक़े में आग क़ुदरती वजहों से नहीं, इंसानी लालच के चलते लगी है. आग कैसे भी लगे, ख़ामियाजा जानवरों को ही भुगतना पड़ता है. यों सदियों से भुगतते आए ही हैं. पेरिस का समझौता, अलास्का की बर्फ़, अमेज़न के जंगल, ऑस्ट्रेलिया की बुशफ़ायर, असम का चुनाव, मंगल पर यान, चंद्रमा पर प्लॉटिंग की दुकान – ये सब जंगलराज का नतीजा हैं?

सूबा, मुल्क या दुनिया जीतने के मंसूबे बांधना क्या हमने जानवरों से सीखा? नहीं न! मगर इस बात पर यक़ीन करने का मन ज़रूर होता है कि एक जंगल तो हमारे भी भीतर बसता है. कितना झाड़-झंखाड़, कितनी तरह के बनैले और हिंस्र पशु जहाँ बेख़ौफ़ विचरते हैं, ज़रूरत-बेज़रूरत आखेट पर निकलते हैं और जिन्हें बाँधने या नाँधने या साधने की कोशिश सभ्य समाज का हिस्सा नहीं लगती. जंगल और जानवरों को बचाने के दावों, पशु-प्रेम जताने के नारों के बीच जो डुगडुगी बजाते हैं न, उस पर बंधा चाम भी उसी का होता है जिसे बचाने के बेशुमार दावे होते हैं.

सम्बंधित

बायलाइन | ऊँट की चोरी कि अमानत में ख़यानत

बायलाइन | बाज़ार हैंड्सअप नहीं कहता सो आला-ए-नक़ब नदारद है

बायलाइन | किताबों के धंधे में पाठक की हैसियत


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.