बायलाइन | नीली घास पे निर्णायक क्षण

  • 4:57 pm
  • 3 February 2022

अपनी ख़िताबी तस्वीर के बारे में बोलते हुए उस फोटोग्राफ़र को बाक़ी के लोग पूरी शाइस्तगी से सुनते रहे. पर मजाल है कि किसी ने उसे इस बात पर टोका हो कि पट्ठे ज़िंदगी में पहली बार जिस ख़ूंख़ार जानवर से मुठभेड़ पर तुम इतना इतरा रहे हो, वह चीता नहीं है. अपने मुल्क में तो चीते को आख़िरी बार सरगुजा के महाराज आरपी सिंह देव ने ही देखा था, वह भी 1948 में. वह साथी दरअसल तेंदुए के बारे में बात कर रहे थे.

मुझे ज़रा भी हैरानी नहीं हुई, डॉ.वीरेन डंगवाल ज़रूर याद आए. फ़ोटोग्राफ़र के लिखे कैप्शन पर झुंझलाते तो कहते, ‘यार, ये तुम्हारी बिरादरी वाले इतने अनपढ़ क्यों होते हैं?’ मैं उनसे क्या कहता भला. फ़ोटोग्राफ़र बिरादरी के बीच अख़बारनवीस समझा जाता था और अख़बारनवीसों की बिरादरी में ‘छाया: प्रभात’!

फिर याद आया कि सिबश्शिओ सालगाडो फ़ोटोग्राफ़ी स्कूल में दाख़िले के बजाय नौजवानों को इतिहास, समाजविज्ञान, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र या मनोविज्ञान पढ़ने का मशविरा क्यों देते हैं. उनका तर्क साफ़ है – फ़ोटो खींचना सीखने के लिए स्कूल जाना इतना ज़रूरी नहीं, जितना कि फ़ोटो के कॉन्टेंट के लिहाज से अपने समय और समाज की, संस्कृति और इतिहास की समझ ज़रूरी है. एक लाइन में कहें तो अच्छा फ़ोटोग्राफ़र होने के लिए जीवन की गहन समझ अनिवार्य शर्त है. इस बात को और ढंग से समझने के लिए उन तस्वीरों पर ग़ौर कर सकते हैं, जो पूरी दुनिया में देखी-पहचानी जाती हैं.

कवि दिलीप चित्रे की कविता ‘ग्रुप फ़ोटो’ पर हरि मृदुल की एक टिप्पणी थोड़ी देर पहले पढ़ी है. इस कविता पर बात करते हुए हरि लिखते हैं कि जो बातें इतिहास से छूट जाती हैं, वे साहित्य में मिल जाती हैं. जिस कविता को उन्होंने सौ साल पहले के बंबई की डॉक्युमेंट्री की उपमा दी है, उसका उत्स दिलीप चित्रे के पुरखों की 1920 में खींची गई तस्वीर है. दिलीप चित्रे हमारे दौर के विलक्षण कवि रहे और अपने कुटुंबियों की तस्वीर के हवाले से ऐसी असरदार कविता वे रच सकते थे. मेरा नुक़्ता-ए-नज़र दरअसल वह तस्वीर है, जो एक संवेदनशील सर्जक की चेतना पर इस क़दर छाई कि नए सृजन का ज़रिया बन गई.

सृजन की दूसरी विधाओं की तरह फ़ोटोग्राफ़ी में भी बुनियादी जानकारी के साथ ही व्यापक समझ और अपने नज़रिये की ज़रूरत तो पड़ती ही है. और यह जो नज़रिया है, यह फ़ोटोग्राफ़र का स्टेटमेंट है – नितांत निजी. उसने जिस एक क्षणांश को तस्वीर में बदलकर दुनिया के सामने रखा है, उसके पहले और बाद में जो कुछ भी होगा वह ठीक तस्वीर के जैसा नहीं होगा – तालाब के ठहरे पानी पर पत्थर फेंकने से हुई हलचल की तरह. फ़ोटोग्राफ़र अपनी तस्वीर के ज़रिये दुनिया को वहीं दिखाना-बताना चाहता है, जो उसकी अपनी समझ से महत्वपूर्ण और ज़रूरी है. उसकी तस्वीर के हवाले से तमाम तरह के राजनीतिक-सामाजिक निहितार्थ निकाले जा सकते हैं, निकाले भी जाते हैं.

एक तस्वीर दरअसल कैमरे से कही गई ऐसी कहानी है, जो सुनने और सुनाने वाले के विवेक और अनुभव के मुताबिक अर्थ ग्रहण करती है. मगर चीता? तो क्या यह मान लिया जाए कि फ़ोटोग्राफ़र के तेंदुए को लगातार चीता कहते जाने पर विद्वजनों की ख़ामोशी उनकी विनम्रता या शिष्टाचार का तक़ाज़ा थी और न सिर्फ़ बोलते वक़्त बल्कि बाद में भी किसी ने उसे सुधारने की कोशिश इसलिए नहीं की कि वह बेचारा कहीं शर्मिंदा न हो जाए? या फिर यह उस शेर की तरह का आचरण था, जिसने चीते को बताया था कि तुम जानते हो कि घास नीली नहीं, हरी होती है तो फिर इस पर बहस करके अपना और मेरा वक़्त ज़ाया क्यों किया?

इसी फ़ोटो पर अपना नज़रिया ज़ाहिर करते हुए एक बड़े सीनियर फ़ोटोजर्नलिस्ट ने ‘डेसीसिव मॉमेंट’ का वीटो लगाया था. आमतौर पर ऐसी बातें महफ़िल को सदमे में डालने के इरादे से बीच में लाई जाती हैं. कार्तिए-ब्रेसां के जिस सिद्धांत को उन्होंने तुरुप के इक्के की तरह फेंका, उस पर फ़्रेंच में लिखी कार्तिए-ब्रेसां की 1952 की किताब ‘इमेजेज़ ऑन द रन’ के अंग्रेज़ी अनुवाद की प्रस्तावना कॉर्निडल डे रिट्ज़ की इस उक्ति से शुरू होती है – ‘देयर इज़ नथिंग इन दिस वर्ल्ड दैट डज़ नॉट हैव अ डेसीसिव मॉमेंट.’ तो अब इक्के का क्या करें?

‘स्टुडियो ढाई’ में अदब के बाबत एक प्रोग्राम में सुने हुए मोइन अख़्तर के एक जुमले ‘रेहन पर ज़ेहन’ की चुभन कभी नहीं जाती. याद करता हूँ तो फ़ोटोग्राफ़ी की दुनिया अचानक अदब के काफ़ी क़रीब आ गई लगती है.

कवर | pixabay

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