‘शऊर की दहलीज’ का मलयालम् अनुवाद छपा

  • 5:07 pm
  • 19 January 2021

‘शऊर की दहलीज’ का मलयालम् में हुआ अनुवाद छपकर आ गया है. हिंदी के कथाकार-आलोचक डॉ.प्रेमकुमार की इस किताब का अनुवाद प्रो.बी.पी.मुहम्मद कुंज मेत्तर ने किया है. यह किताब उर्दू अदब के नौ नामचीन रचनाकारों के इंटरव्यू का संकलन है.

बकौल अनुवादक, मलयालम् भाषी लोग उर्दू ज़बान और साहित्य को लेकर तमाम ग़लतफ़हमियां पाले हुए हैं. उनकी धारणा है कि उर्दू मुसलमानों की ज़बान है और उर्दू के सारे साहित्यकार मुसलमान. डॉ.गोपीचंद नारंग और जोगिंदर पाल से डॉ.प्रेमकुमार के इंटरव्यू गवाह हैं कि उर्दू के पोषण-संवर्धन में लगे साहित्यकारों को किसी एक धर्म से जोड़ना अनुचित और निरर्थक है. इनके साथ ही शहरयार, क़ुर्रतुलऐन हैदर, काज़ी अब्दुस्सत्तार, इंतिज़ार हुसेन, अहमद फ़राज़, आले अहमद सुरूर और मुइन अहसन जसबी के लंबे इंटरव्यू किताब में शामिल हैं.

प्रो.कुंज मेत्तर ने लिखा है कि प्रतिभावान व्यक्तित्वों के विचारों की दृष्टि से ये भेंटवार्ताएं ख़ासी रमणीय और रोचक हैं. डॉ.प्रेमकुमार के बातचीत के कौशल का ज़िक्र करते हुए कहा है कि इसे उनकी वाकपटुता का जादू ही कहेंगे कि कुर्रतुलऐन हैदर जैसी अभिमुख विमुख साहित्यकार को विवश होकर अपना मौन छोड़ना पड़ा है. इसी प्रकार काज़ी अब्दुस्सत्तार जैसे बिना रोक-टोक के बात करते रहने वाले साहित्यकार की बढ़ती वाग्धारा को अपने सवालों से विराम डालकर अपने रास्ते पर ले जाने की कला डॉ.प्रेम कुमार ही जानते हैं.

बात न करने वाले को बात करने के लिए विवश करना और बड़े बातूनी को बात करने से रोकना सरल नहीं. डॉ. प्रेमकुमार ने उर्दू साहित्य का गहरा मंधन-मनन किया है. तभी तो वे उर्दू के इन चोटी के साहित्यकारो के ज्ञान की गहराई मापकर पाठकों के सामने रखने में कामयाब हो सके.

कुर्रतुलऐन हैदर से बात करने के लिए मुश्किल से टाइम लेकर वह उनके निवास पर पहुंचकर उनसे बात कर रहे थे कि इत्तिफ़ाक़ से लेखिका की पाकिस्तानी मित्र भी वहाँ पहुंच गई. उन दोनों की निजी बातचीत में भी दाख़िल होकर प्रेमकुमार जी अपनी जगह बना लेते हैं. यहीं उनकी दक्षता ज़ाहिर होती है. रचनाकारों की सृजनात्मकता और सृजन तंत्र को उन्होंने जिस सरल और सरस भाषा में अंकित किया गया है, वह पाठकों को अपनी ओर खींचती है.

किताब के पुरोवाक्‌ में प्रो.एन.साम ने लिखा है कि इन भेंटवार्ताओं की बड़ी ख़ूबी यह है कि इनमें मुल्क के बंटवारे के बाद की असीम वेदना का मार्मिक चित्रण भी मिलता है. ये साहित्यकारों के राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चिंतन के साथ-साथ साहित्यिक चिंतन का भी आईना हैं. उन्होंने उम्मीद जताई कि चूंकि मलयालम् भाषा-भाषी सामान्यतः उर्दू से अपरिचित है, इसलिए यह किताब उनके बड़े काम की साबित होगी. यह भी है कि उर्दू में तमाम शब्द और मुहावरे अरबी मलयालम् में भी इस्तेमाल होते हैं, इसलिए उर्दू और अरबी मलयालम् के अंतर्सबंधों पर शोध में यह किताब सहायक होगी.

किताब महाकवि मोइनकुट्टी वैद्यर स्मारक मॉप्पिला कला अकादमी ने छापी है. प्रसंगवश मोइनकुट्टी 19वीं सदी में मल्लपुरम् के वैद्य परिवार में जन्मे ऐसे कवि थे, 1892 में अल्पायु में ही जिनका निधन हो गया था मगर जिनकी रचनाएं, ख़ासतौर से मॉप्पिलापट्टु, आज भी ख़ूब लोकप्रिय हैं. अरबी और संस्कृत के विद्वान महाकवि मोइनकुट्टी ने 17 साल की उम्र में बदरुल मुनीर और हुस्नुल जमा के प्रेम को आधार बनाकर महाकाव्य की रचना की थी.

किताब के अनुवादक प्रो.बी.पी.मुहम्मद कुंज मेत्तर लंबे समय तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहे हैं.

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