यादों में शहर | गर्दन पर उस्तरे के बीच शौर्य गान

  • 3:51 pm
  • 2 September 2020

उस रोज बाल कटाने गया. मालिकाना दबदबे वाले वह सज्जन नदारद थे, जो वहां अक्सर मिलते थे. उनके शागिर्द के तौर पर काम करने वाला, घनी मूछों और घुंघराले बालों वाला वह युवक मिला, जिसकी काली जैकेट की पीठ पर खोपड़ी और हड्डी के निशान के साथ धुंधला गए कुछ शब्द भी थे और जिस ठसके से वह ट्रेन के कम्पार्टमेंट के गलियारे सी तंग जगह वाले सैलून में घूमता फिरता, कई बार भ्रम हो जाता कि आसपास कहीं ट्राली पर कैमरा भी रोल कर रहा होगा.

वहाँ एक युवक और भी था मगर मैं उस हीरो के हिस्से में ही आया. मेरी गर्दन के गिर्द कपड़ा कसते हुए वह पास की कुर्सी में दाढ़ी बनवा रहे शख़्स से मुखातिब था और बातचीत के केंद्र में मोटरें थीं. हीरो टैक्सी के बिज़नेस के बारे में अपना ज्ञान उंडेले दे रहा था और दूसरी ओर बैठे सज्जन अपनी नई एसएक्स 4 के बारे में बता रहे थे, जो उन्होंने किसी को मंगनी में दे दी और जो कहीं एक्सीडेंट का शिकार होकर क्षतिग्रस्त हाल में वापस मिली थी. और कैसे उन्होंने अपने पास से खर्च करके गाड़ी की मरम्मत कराई और कैसे गाड़ी मांगकर ले जाने वाले मास्साब अब सामने पड़ने पर नज़र बचाकर गुज़र जाते हैं कि कहीं वह ख़र्च हुई रकम मांग न लें. हीरो ने बताया कि अगर उन्हें सस्ता एलईडी वगैरह ख़रीदना हो तो उसके एक परिचित हैं, जो इनाम जीतते रहते हैं और सस्ते में बेच देते हैं. उसने हाल ही में पांच हजार रुपये में एक एलईडी ख़रीदा है, कहीं गिफ़्ट देना था.

शेख़ी मारने का यह मुक़ाबला अभी और चलता मगर तब तक उनके चेहरे पर ऑफ़्टर शेव लोशन की घिसाई शुरू हो गई. उनकी दाढ़ी बन गई और मेरी शामत आ गई क्योंकि सुनने वाला अब मैं अकेला बचा था. मेरे पास उसे सुनाने के लिए क़िस्से भले न हों मगर उसके क़िस्से सुनते हुए हां-हूं तो करनी ही पड़ेगी. कैंची-उस्तरा तो आख़िर उसी के पास था न! बाल कतरने के लिए उपयुक्त कैंची तलाशते हुए अचानक वह अपनी जेबें तलाशता हुए बोला, “अरे लो, आख़िरी डोज़ था और दवाई हम जेब में रखे भी थे कि खाना न भूल जाएं मगर जैकेट ही बदल गई.” यह बात शायद उसने अपने आपको सुनाने के लिए ही कही हो (फ़िल्मों में अभिनेता अक्सर ख़ुद से बातें करते पाए जाते हैं) मगर मैंने सौजन्यवश सुझाया कि बाज़ार से दवा लेकर खा ले. जवाब आया, “शाम का तो हमारा नियम है. अब कोई दवाई नहीं. दरअसल मुंह में हमारे इन्फ़ेक्शन हो गया था, उसी का दवा खा रहे थे. का बताएं दांत में एक ठो होल हो गया है. कौन जाने उसी की वजह से हुआ हो.”

अचानक उसने हाथ रोका और दाईं ओर काले रंग के कवर में लिपटा सामान उठाकर बाईं ओर खड़े होकर कुछ करने लगा. कवर खुला, उसमें से एक टेबलेट झांक रहा था. उसे चार्जिंग पर लगाते हुए उसने साथी को सहेजा, “जाओ हो. ज़रा शाम का सामान जुटा लाओ.” “केतना ली आईं.” “अरे, ले लो चार सौ ग्राम. दो-दो सौ ग्राम दोनों जने खा लेंगे.” यह मुर्ग़ की दावत की तैयारी थी. चलने से पहले नोट हाथ में लेकर साथी ने दिन पूछा और फिर बाहर निकल गया.

टूटी हुई गौरव गाथा का सिलसिला फिर आगे बढ़ा, “अरे देखाए थे एक दांत वाले को. कुछ भरे नहीं थे दांत में. ऐसेई दवा दिए थे, ठीक हो गया. पांच साल तक ठीक रहा. अब फिर वैसेई हो गया. हालांकि हम वो गुटका-गुटकी नहीं खाते बिल्कुल.” मैं इस शौर्य प्रदर्शन पर कुछ कह पाता कि गर्दन पर उस्तरा चलाते हुए बताया, “गुटका हम तभी खाते हैं, जब अब अपने गांव जाते हैं. दो गुटका लेकर चलते हैं और रास्ते में खाते निकल जाते हैं. नींद आने लगता है न हमको. चालीस किलोमीटर में दो गुटका से काम चल जाता है. बाक़ी हम शाम को दो ठो खरीदकर रख लेते हैं. हमारे एक कस्टमर हैं, वो आ जाते हैं तो एक वो खाते हैं और एक हम. बाक़ी जब हमारा किसी कस्टमर से बात करने का मन नहीं होता है तो मंगाकर मुंह में रख लेते हैं, बस !” गुटका खाने के उसके नियम वाक़ई मुतासिर करने वाले थे.

मेरी गर्दन की मुक्ति का वक़्त हो चला था. ब्रेश वाला उसका हाथ तेज़ी से चल रहा था. इसी बीच फिर एक सवाल आया, “शेव भी बनानी है क्या?” मना करते हुए मैंने पूछ लिया कि हेयर ऑयल है? उसने ख़राब सा मुंह बनाकर इन्कार किया. “नहीं है. होता तो भी कौनो फायदा नहीं होता. हम खाली सिर में तेल लगा देते. ऊ ठोका-ठोकी हम नहीं करते.”
दुकान में लगी मेहनताने की लिस्ट में दर्ज़ हेड मसाज़ पर गौर करते हुए भी मुझे यक़ीन था कि मेरा सवाल उसे अपनी नायक वाली छवि के ख़िलाफ़ हत्तक लगा और इस वजह से उसकी ओर से सफाई ज़रूरी हो गई थी.

गोरखपुर की कितनी ही अविस्मरणीय यादें हैं. अरुण ने उस सैलून का रास्ता दिखाया था. दफ़्तर के क़रीब था और देर शाम ख़ाली मिल भी जाता था. सो उस शहर में रहते हुए कहीं और हजामत का कोई तजुर्बा नहीं मगर उस रोज़ हीरो ने जो हजामत बनाई थी, वह हर बार से अलग और यादगार रही. आइंदा उसके उस्ताद से ही पाला पड़ा वरना इस क़िस्से को और लम्बा लिखने की ज़रूरत पड़ती. हां, वह हीरो इस मायने मे भी अलग हज्जाम था कि औरों की तरह किसी नए आदमी के बाल काटने से पहले बालों में उंगलियां फिरा कर यह नहीं पूछा – बड़े ख़राब बाल काटे हैं. किस बेवकूफ़ के यहां कटा लिए थे आपने.

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