ज़ायक़ा | उत्पम वाया सरसों का साग और कुंभ मटर मसाला

  • 7:42 pm
  • 8 July 2020

वहां पंजाबी ढाबा के बैनर थे, मूंज की रस्सी की चारपाई थी, पान का काउण्टर और एक अदद ब्रांड न्यू ट्रैक्टर खड़ा था. पंजाबी स्पेशल खिलाने का वादा करने वाले उस ठिकाने को इस दुपहरी में तलाशते हुए कलक्टरगंज तक जाना बेकार गया, जब टाई वाले एक युवक ने इत्तला दी कि ढाबे पर तो वे केवल डिनर सर्व करते हैं. फिर दिलासा भी दिया कि ‘पंजाबी ही खाना है तो हमारे रेस्तरां में मिल जाएगा.’ अब गए तो खाना खाने ही थे, तो हमारे लिए क्या ढाबा और क्या रेस्तरां – अंदर चले गए.

पंजाबी ढाबे का ख़ास तौर पर तैयार मेन्यू मिला, लम्बी लिस्ट थी और तमाम सारी डिश नॉन-वेजिटेरियन. तो बेयरे को बुलाकर पूछ ही लिया कि शाकाहारी क्या है? जवाब मिला, ढाबा वेजिटेबिल, पनीर टकाटक, दाल, सरसों का साग और मक्के की रोटी. गेहूं कटकर खलिहान में पहुंच गया है, ये सरसों का साग कहां से ला रहे होंगे? मतलब क्या मेंथी की तरह सुखाकर रखा हुआ सरसों का साग भी! ख़ैर साग-रोटी खाने का इरादा किया, बता भी दिया. मगर आर्डर लेने से पहले बेयरा रसोई में गया और लौटकर ख़बर दी – साग नहीं मिल सकता, रोटी मिल जाएगी. उसका बेमन वाला रवैया देखकर वहां से उठ जाने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं था.

वहां निकले तो इस उम्मीद कि इतनी दूर आए हैं तो पास वाले फूड कोर्ट में चलते हैं, सो प्रवीण को साथ लेकर हम वहां पहुंच गए. मोमो और किसी रेड करी वाली डिश के बड़े-बड़े विज्ञापनों के बीच मि.कैश के काउण्टर पर मेन्यू देख ही रहे थे कि काउण्टर पर खड़ी युवती ने पूछ लिया, ‘आपका आर्डर क्या है?’ लगा कि वह काफी जल्दी में है क्योंकि वहां केवल हम दोनों ही खड़े थे. भीड़-भाड़ होती तो यह जल्दबाज़ी भी समझ में आ सकती थी. इस मेन्यू में एक दिलचस्प डिश दर्ज थी – कुंभ मटर मसाला. मटर और मसाला तो ख़ैर समझ में आते हैं मगर कुंभ यहां क्या कर रहा है?

कौन जाने इलाहाबादी प्रवीण की ख़ातिर ख़ास रहा हो. कौतूहलवश उससे पूछ लिया कि यह कौन सी सब्जी है? उसने तुरंत फ़ोन उठाकर किसी से पूछना शुरू किया और तब तक पूछती रही, जब तक हम लोग वहां से बाहर नहीं निकल आए. इतनी मशक्कत के बाद प्रवीण का मशविरा था कि साउथ इंडियन थाली मंगा लेते हैं. तो लगा कि जब साउथ इंडियन ही खाना है तो फिर उडुपीवाला के यहां क्यों नहीं? सुखसागर के ज़ायके के बड़े मुरीद हैं अमित. कई बार बड़े मुग्धभाव से बता चुके हैं. हां, वहां फ़्राइड इडली नहीं मिलती, इतना तो मुझे भी पता है.

सीबीगंज से इज्जतनगर के क्रॉसिंग पर रुकते हुए सुखसागर पहुंचे तो ख़ासी भीड़ थी वहां. बैठने का ठिकाना मिल गया तो मेन्यू देखा – थोड़ा सा साउथ इंडियन और ढेर सारा पनीर बटर मसाला, मिस्सी रोटी, चाउमीन, मंचूरियन और फ़्राइड राइस पढ़ गए. चीन ने हमें कहां-कहां पछाड़ा है, यह इस दक्षिण भारतीय भोज की विशेषता वाले रेस्तरां के मेन्यू से भी अंदाज़ सकते हैं. रेस्तरां में बिजली नहीं थी और फ्लाई ट्रैपर एक कोने में खामोश पड़ा था. प्रवीण को काफी गरिमामयी साइज़ का उत्पम परोसा गया. इलाहाबाद के कॉफी हाउस में मिलने वाले उत्पम से काफी बड़ा और मोटा.

हालांकि खाने के बाद उन्होंने बताया कि ऊपर की तरफ दिखने वाली कालिमा दरअसल प्याज़ के जलने की वजह से बनी है और वह उसके स्वाद में भी शामिल है. पसीने से तरबतर बाहर निकले तो उन्हें आइसक्रीम खिलानी चाही – अंदर के तजुर्बे के बाद कुछ अच्छा महसूस करने के इरादे से. मगर बास्किन रॉबिन का नाम आने पर प्रवीण ने वहीं चलने की इच्छा जताई. उसके कोन और बवेरियन चॉकलेट का मुरीद तो ख़ैर मैं भी हूं. अंदर आइसक्रीम खाने बैठे तो पता चला कि मक्खियां वहां हमसे पहले से मेहमान हैं.

बताया गया कि फ़्लोर पर फ़िनायल का पोंछा नहीं लग सका है, एयर कर्टेन बहुत प्रभावी नहीं, बिजली नहीं है और शीशे में दरवाज़े में ऊपर की तरफ कुछ जगह ख़ाली है, मक्खियां वहीं से चली आती हैं. वह कुछ इस तरह बता रहा था गोया पोंछा लगाना हमारी ज़िम्मेदारी रही हो और हम बेकार ही ऐतराज कर रहे हों. सुखसागर में तो 17 रुपये का डिस्काउंट मिला था, पसीना बहाने के ऐवज में मगर यहां वैसी कोई सदाशयता भी नहीं. सुनील का वह ऑस्ट्रेलियन मित्र बहुत याद आया जो पहाड़गंज के ठिकानों पर बैठता तो आर्डर देते वक़्त हमेशा ख़्याल रखता था – वन लस्सी विदआउट मक्खी.

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