एनसीजेड़सीसी के दिन | सेनानी करो प्रयाण अभय

उस कलाकार का इरादा पक्का था और संगीत के सफ़र में दूर तक जाने की इच्छा शक्ति. हर दिन एक न एक ऐसा कलाकार मिल ही जाता, जो अपने मज़बूत इरादों से मेरे मार्ग को और प्रशस्त करता और मैं कुछ और करने की सोचने लगता था. साथ ही दफ़्तर में आए दिन चलने वाले साँप-सीढ़ी के खेल से भी अब वाकिफ़ होने लगा.

मेरा पाथेय
एक दिन चैत की अलसाई-सी दोपहरी मैं दफ़्तर में बैठा भविष्य की योजनाओं की उधेड़बुन में लगा था. कार्यक्रम समिति की बैठक हो चुकी थी. सातों राज्यों – उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश और बिहार के लिए कार्यक्रम तय हो चुके थे. इस बैठक के साथ ही कार्यक्रमों की रूपरेखा, बजट, स्थान सब कुछ निर्धारित हो जाता था. इसके बावजूद कुछ नया करने का विचार आता रहता था. लगता था जैसे करने को बहुत कुछ है और कुछ छूटा जा रहा है. तभी अचानक एक युवा कलाकार ने मेरे कमरे में प्रवेश किया. कहा – मैं…शास्त्रीय संगीत की कलाकार हूं. अभी तक एनसीज़ेडसीसी से कभी प्रोग्राम नहीं किया. क्या आपके पास हम जैसे युवा कलाकारों के लिए भी कोई कार्यक्रम की योजना है, जहां हम अपनी प्रस्तुति दे सके? बात बहुत सीधी-सादी थी, लेकिन इसका असर बहुत दूर तक हुआ.

भारत सरकार की छात्रवृत्ति प्राप्त युवा कलाकारों के लिए प्रतिभा उत्सव कार्यक्रम इसी दिशा में एक मज़बूत कदम था. अब प्रश्न यह था कि इलाहाबाद और उसके आसपास के कलाकारों के लिए, जो छात्रवृत्ति नहीं पा सके हैं, उनको कैसे मंच दिया जाए? तय हुआ कि स्थानीय कलाकारों को इस कार्यक्रम में स्थान दिया जाए और छात्रवृत्ति की अनिवार्यता ख़त्म कर दी जाए. उन्हीं दिनों में एक रोज़ दूरदर्शन के निदेशक क़मर साहब का फ़ोन आया कि लाइव प्रसारण के लिए उनके यहां एक नई ओ.वी. वैन आई है. उन्होंने कहा कि अगर आप एक सांस्कृतिक संध्या एनसीज़ेडसीसी में कर सकें तो दूरदर्शन अपनी ओ.वी. वैन के ज़रिये कलाकारों की प्रस्तुति लाइव दिखा देगा. उन्होंने यह भी जोड़ा कि ऐसे आयोजन के लिए उनके पास कलाकारों को मानदेय देने की सुविधा, रक़म और बजट नहीं है. निदेशक नवीन प्रकाश जी भी सहमत हो गए. मैंने चार कलाकारों को इस कार्यक्रम के लिए बुलाया, जिसमें से एक एक वही युवा कलाकार थीं जो अच्छा गाना चाहती थीं.

बात बहुत ही सलीक़े से और प्रभावशाली ढंग से कही गई थी. मैंने उन युवा कला साधिका से कहा – आप अपना बायोडाटा दे दीजिए, हम लोग ज़रूर कुछ करेंगे. जाते समय उन्होंने कहा – हम सिर्फ़ गाना चाहती हैं. अच्छा गाना चाहते हैं. हमारे घर में संगीत की परंपरा नहीं है लेकिन मैं अच्छा गाना चाहती हूं. गुणीजनों से सीखना चाहती हूं. हमारे छोटे शहर में संगीत और उस पर से शास्त्रीय संगीत की संभावनाएं बहुत कम है. उसके इरादे देखकर इमरजेंसी के दौरान का नारा ‘एक ही जादू, कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, दूरदृष्टि’ याद आ गया. उस कलाकार का इरादा पक्का था और संगीत के सफ़र में दूर तक जाने की इच्छा शक्ति. हर दिन एक न एक ऐसा कलाकार मिल ही जाता, जो अपने मज़बूत इरादों से मेरे मार्ग को और प्रशस्त करता और मैं कुछ और करने की सोचने लगता था.

एनसीज़ेडसीसी इतनी जल्दी युवाओं के लिए कार्यक्रम, वह भी नियमित रूप से करेगा, यह सुनकर उनको भी आश्चर्य हुआ. ख़ैर कार्यक्रम हुआ, अच्छा हुआ. लाइव के साथ-साथ कलाकारों की परीक्षा भी हो गई. आज इस बात की ख़ुशी है कि अपने कार्यकाल में शुरू किया गया वह कार्यक्रम प्रतिभा उत्सव बहुत से कलाकारों का पाथेय ही नहीं, साध्य ही बना. पूरे ज़ोन में सैकड़ों की संख्या में युवा कलाकार प्रतिभा, उत्सव के मंच से निकलकर राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी प्रतिभा की रोशनी बिखेर रहे हैं. संजीव शंकर, अश्वनी शंकर, मनीषा नायक, स्वाति वान्गनू, राम शंकर, ज्ञानेश पाण्डेय, रश्मि मालवीय, डॉ. शिवानी मातनहेलिया, एमिली घोष, अंजुल शर्मा, भुवनेश कोमकली सरीखे कलाकार उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.

उन तमाम युवा मित्र कलाकारों को धन्यवाद, जिनके निवेदन ने मुझे इस तरह के कार्यक्रम के संयोजन का श्रेय दिया और आगे चलकर प्रतिभा उत्सव कार्यक्रम सभी सातों क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्रों में शुरू किया गया. जिस युवा कलाकार ने उस दिन यह प्रश्न उठाया था, उनके लिए दो पंक्तिया तो बनती ही हैं…
सेनानी करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है
ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है.

समोसे का साइज़
दफ़्तर में आए दिन चलने वाले सांप-सीढ़ी के खेल से अब मैं धीरे-धीरे परिचित होने लगा था. पेमेंट, एडवांस, वेंडर, कलाकारों की बुकिंग में यह खेल साफ़-साफ़ दिखाई देता था. अपने विवेक से मैं उसका समाधान, निराकरण, निष्पादन भी करता रहता था. बच्चों की ग्रीष्मकालीन कार्यशाला में बच्चों के लिए केंद्र की ओर से जलपान की व्यवस्था की जाती थी. कोई न कोई व्यक्ति इसकी जिम्मेदारी ले लेता था. फिर कार्यशाला पूरी होने के बाद संबंधित ठेकेदार का भुगतान कर दिया जाता था.

एक दिन एक वेंडर मेरे पास आया और बोला, ‘सर अभी तक मेरा पेमेंट नहीं हुआ है. ग़रीब आदमी हूं. बहुत दिक्कत हो रही है. दो महीने से अधिक हो गया. हो सके तो जल्दी से भुगतान करा दें.’ मैं सोच में पड़ गया. सामान्यतः पेमेंट की कोई भी फ़ाइल मेरे या निदेशक की मेज़ पर रूकती नहीं थी. मैंने संबंधित प्रभारी को बुलाकर पूछा तो जवाब मिला कि इनकी सप्लाई में कुछ गड़बड़ी है. मैंने कहा, ‘जो भी गड़बड़ी हो ठीक करके आज ही इनका भुगतान करा दीजिए.’ फिर कुछ सोचकर मैंने उनसे कहा, ‘जरा फ़ाइल लेकर चले आइए, अभी आप से चर्चा करके समस्या का समाधान कर लेते हैं.’

काफ़ी आनाकानी, मान-मनुहार के बाद वह फ़ाइल लेकर आए. मैंने उनसे पूछा, ‘आखिर दिक़्क़त क्या है.’ उन्होंने फ़ाइल खोलकर दिखाते हुए बताया कि सर इन के समोसे का साइज़ बहुत छोटा था. मैं उनके इस तर्क से अवाक रह गया. ऐसे में अगर मैं सीधे उस ग़रीब का भुगतान करा देता तो शर्तिया कहा जाता कि आप तो वेंडर का पक्ष लेते हैं. मैंने सामान्य विवेक का इस्तेमाल किया. उन साहब से पूछा कि वेंडर को जो वर्क आर्डर दिया गया था, वह कहां है? उन्होंने वर्क आर्डर मेरे सामने रख दिया. मैंने उसे ध्यान से पढ़ा. उसमें कहीं भी समोसे के साइज़ या वजन का ज़िक्र नहीं था.

मैंने मुस्कुराते हुए उनसे कहा, ‘इस वर्क आर्डर में कहीं भी साइज़ का उल्लेख नहीं है. फिर आप कैसे कह सकते हैं कि साईज़ छोटा था.’ अब उनके निरुत्तर होने की बारी थी. बोले, ‘नहीं सर, ऐसी बात नहीं है. भुगतान तो करा ही देते. सोचा थोड़ा सा इनको पता चल जाए.’ मैंने उनसे कहा, ‘आप तो इलाहाबाद के हैं. हरि का समोसा साइज़ में छोटा होता है मगर उसके दाम ज़्यादा हैं. अगर वेंडर यह तर्क दे कि हमने हरि का समोसा खिलाया है तो हमारा क्या उत्तर होगा?’ अब उनके पास कोई जवाब नहीं था. यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि ‘ठीक है, आप कहते हैं तो अभी फ़ाइल बढ़ा देता हूं.’

ख़ैर, फ़ाइल बढ़ गई. उसी दिन भुगतान भी हो गया. लेकिन दफ़्तरों की भूलभुलैया से निकलने का एक और रास्ता दिखाई पड़ गया. इलाहबाद के एक कमिश्नर ने एक बार बातचीत में कहा था कि सरकारी दफ़्तरों में सबसे सफल कर्मचारी वह माना जाता है जो फ़ाइलों को सबसे लम्बा खींच सके.
अब यह फ़ैसला आप जैसे सुधि पाठकों पर छोड़ता हूँ कि यहाँ पर फ़ाइल की लम्बाई बढ़ी कि नहीं?

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