सत्ते पे सत्ता की दुनिया में कभी तीर कभी तुक्का

  • 10:57 am
  • 26 February 2021

थिएटर की दुनिया के उस्ताद बंसी कौल से मुलाक़ात के कितने ही प्रसंग पिछले दिनों याद आते रहे. उनके हुनर का सम्मोहन दुनिया जानती है, क़रीब से जानने वाले उनकी शख़्सियत की तमाम ख़ूबियों से भी वाक़िफ़ होंगे. दिल्ली में हमारी मुलाक़ात और उनका यह जुमला कभी नहीं भूलता – रंग विदूषक की भाषा में कहें तो सत्ते पे सत्ता की दुनिया में कभी तीर-तुक्का भी लग जाता है.

आईएएस कोमल आनंद उन दिनों संस्कृति मंत्रालय की जे.एस. और अतिरिक्त सचिव भी थीं. कला-संस्कृति में ख़ास दिलचस्पी के रखने के साथ ही सांस्कृतिक केंद्र के आयोजनों के मामले में उनकी ख़ास पहल बड़ी मददगार साबित होती. बाद में वह ग्रामीण विकास मंत्रालय की स्वायत्तशासी संस्था ‘कापार्ट’ की महानिदेशक बनीं. प्रगति मैदान में हर वर्ष 14 नवंबर से 15 दिनों का आईआईटीएफ़ (अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला) लगता, जिसमें कई मंत्रालयों के उत्पाद दुनिया के सामने लाने का मौक़ा भी मिलता है.

श्रीमती आनंद ने उस बार तय किया कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से लगाई जाने वाली प्रदर्शनी में आतंरिक सज्जा और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का दायित्व किसी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को देने के बजाय यह सब क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्रों के माध्यम से कराया जाए.

पवेलियन नंबर सात ग्रामीण विकास मंत्रालय के लिए आवंटित था. श्रीमती आनंद ने सभी सांस्कृतिक केन्द्रों को यह ज़िम्मेदारी दी कि पवेलियन के बाहर सांस्कृतिक कार्यक्रम और अंदर की साज-सज्जा का काम ज़ेडसीसी के ज़िम्मे दे दिया जाए. सारी औपचारिकताएं पूरी हुई. सभी निदेशकों ने फ़ील्ड में जाकर वस्तुस्थिति की जानकारी ली. क्या करना है, कौन क्या करेगा, काम कब तक पूरा होगा – यह सब भी तय हो गया.

सभी केन्द्रों को अलग-अलग काम बाँट दिए गए. मुख्य द्वार बनाने और सजाने का काम ईज़ेडसीसी के सुपुर्द था और बाहर निकलने वाले गेट का काम एनसीज़ेडसीसी के. सभी क्षेत्रीय केंद्रों के कर्मचारी लगन और उत्साह से काम में जुटे ताकि समय-सीमा से पहले पूरा कर सकें. एनसीज़ेडसीसी के जूनियर इंजीनियर के.के.श्रीवास्तव को मैंने दिल्ली भेज दिया कि गेट बनवाने के काम में वह सहयोग करें.

तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को उद्घाटन करना था. इसके दो दिन पहले मैं भी दिल्ली पहुंच गया. और सबसे पहले प्रगति मैदान गया. अंदर दाख़िल होते ही पवेलियन नंबर 7 था. मैं पवेलियन में अंदर जाता इसके पहले ही बंसी सर मिल गए. एनसीज़ेडसीसी के बनाए हुए गेट में उन्होंने इतनी ख़ामियाँ गिना दीं कि मेरा तो मन ही डूबने लगा. बंसी सर ने चुटकी ली – शाम को मैडम कोमल आनंद आएंगी तो तुम्हारा गेट हवा में तैरता हुआ नज़र आएगा.

उनकी बताई हुई कमियाँ दुरुस्त करने के लिए वक़्त दरकार होता और कुछ घंटों बाद ही मैडम मुआयने के लिए आने वाली थीं. यानी अब कुछ नहीं किया जा सकता था. के.के. श्रीवास्तव ने आशंका भरी नज़रों से मुझे देखा. उनकी आँखों में सवाल था कि अब क्या किया जाए? मैंने उनको आश्वस्त किया कि वह अपने काम पर ध्यान लगाएं, मन से फ़िनिशिंग पूरी करा लें. बाक़ी सब अच्छा ही होगा.

बंसी दा मुझे साथ लेकर अपना गेट दिखाने ले गए. प्रवेश द्वार के डिज़ाइन की परिकल्पना उन्होंने ही की थी. 40 x 16 फ़ीट का ख़ूब भव्य गेट. इसे काले बांस से सीढ़ी नुमा क्रॉस करके बनाया गया था. दूर से ही गेट की भव्यता के साथ ही उसके आर्कषण का असर पड़ता.बंसी दा की क्राफ्ट्समैनशिप और डिज़ाइन की दुनिया कायल है और हम सारे भी उनके मुरीद.

वह गेट देखकर मेरा आत्मविश्वास एकबारगी तो हिल ही गया हालांकि डिगा नहीं. शाम को डीजी कोमल आनंद, एडीजी सिद्धार्थ बेहुरा, निदेशक पी.के.मोहंती, आर.टी. जिंदल, भगवान शंकर और तमाम अफ़सर हमारी तैयारियों का मुआयना करने निकले. हमने बड़े आत्मविश्वास के साथ शुरुआत बंसी दा के डिज़ाइन किए हुए मुख्य द्वार से की.

वहां पहुंचकर गेट देखते ही सिद्धार्थ सर एकदम उखड़ गए. नाराज़ी भरे स्वर में उन्होंने पूछा – दिस इज़ द गेट! यू कॉल इट गेट !! कहां-किस गाँव में आपने काले रंग से रंगे इस तरह के गेट देखे हैं? हमारे यहाँ तो तीज-त्योहारों में और मांगलिक कामों में काला रंग इस्तेमाल ही नहीं होता.

उनके हाव-भाव देखकर हम सब का बुरा हाल था. अब उन्होंने कहा – न्नो, नो. यह तो नहीं चलेगा. इसे यहाँ से हटाइए. हमारे केंद्र के निदेशक भगवान शंकर ने एक बार मेरी तरफ़ देखा जैसे पूछ रहे हों कि अपना तो सब ठीक-ठाक है न! बातें करते-करते सारे लोग निकास द्वार की तरफ़ बढ़े.

यह गेट एनसीज़ेडसीसी ने बनवाया था – एकदम सादा. प्लाईवुड के ऊपर मिट्टी और गोबर से लिपाई और उस पर गोंड-भील आदिवासियों की परंपरागत चित्रकारी. वह गेट देखकर सिद्धार्थ सर तो एकदम खिल उठे. उनकी यह ख़ुशी देखकर हमने राहत की साँस ली. उन्होंने कहा – यह गेट गाँव की असली छवि है. ग्रामीण विकास मंत्रालय की सोच और काम की झलक इसमें है. उन्होंने हमारे केंद्र के निदेशक से पूछा कि क्या इस गेट को शिफ़्ट किया जा सकता है.

जवाब में मैंने उन्हें बताया कि अब हमारे पास टाइम नहीं बचा है. इसलिए इसे शिफ़्ट करना मुमकिन नहीं होगा. मौक़े पर ही तय किया गया कि उद्घाटन के लिए मुख्य अतिथि को इसी द्वार से अन्दर ले जाया जाएगा. यानी कि पुराने प्लान में जो निकास द्वार था, वह अब प्रवेश द्वार होगा.

वहाँ मौजूद अफ़सरों के चेहरे का तनाव पिघल गया. यह उल्लेख ज़रूरी लगता है कि इस द्वार पर आदिवासी परंपरा के चित्र भूरी बाई ने बनाए थे. हाल ही में उन्हें पद्मश्री सम्मान मिला है. उस रोज़ शाम को बंशी दा से भेंट हुई तो हँसते हुए बोले – तेरा गेट तो चल निकला. रंग विदूषक की भाषा में कहें तो सत्ते पे सत्ता की दुनिया में कभी तीर-तुक्का भी लग जाता है.

रूद्र प्रसाद सेनगुप्ता की कायल करने वाली सदायशता

कोलकाला में नांदिकार नाट्य समारोह के संस्थापक और विख्यात रंग निर्देशक रूद्र प्रसाद सेनगुप्ता के नाम से तो मैं ख़ूब परिचित था, मगर उनसे कभी मुलाक़ात नहीं हुई थी. कोलकाता में उनकी संस्था की ओर से होने वाला नांदिकर थिएटर फ़ेस्टिवल की अलग पहचान है. बहुत ख्यात रंग-निर्देशक भी नांदिकार में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के ख़्वाहिशमंद हुआ करते.

एक रोज़ एक फ़ोन आया. धीर-गंभीर और भारी-भरकम आवाज़ आई, मैं रूद्र प्रसाद सेनगुप्ता नांदिकार कोलकाता से बोल रहा हूं. जवाब मैंने बंगला में दिया, “हां दादा बोलून”. उन्होंने पूछा, “आप क्या बंगला बोल लेते हैं”. मैंने बताया, “जी,हां”, तो फिर उन्होंने बंगला में बात करनी शुरू कर दी. उनका आग्रह था कि एनसीज़ेडसीसी नांदिकार फ़ेस्टिवल में जो नाटक प्रायोजित करे, वह किसी बड़े निर्देशक का हो तो अच्छा रहेगा. उन्होंने अपनी तरफ़ से दो-एक नाम भी सुझाए. नाम सुझाने का मकसद यह कि हमारी ओर से जाने वाला नाटक नांदिकार की गरिमा के अनुरूप हो.

मैंने रूद्र दा से अनुरोध किया कि इस बार वो एनसीज़ेडसीसी से एक नहीं, दो नाटक ले सकते तो बढ़िया रहता. इतना सुनते ही उन्होंने कहा था – यह तो ख़ूब अच्छा होगा. मैंने फिर आग्रह किया कि इस बार एनसीज़ेडसीसी कुछ नए लोगों को भी फ़ेस्टिवल में भेजना चाहता है.

मैंने उनसे कहा – आपके मंच पर प्रस्तुति देने के बाद रंग जगत का छोटा नाम भी बड़ा हो जाएगा और यह किसी नए और उभरते रंग-निर्देशक के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. मेरे लिए यह सचमुच संतोष और गर्व की बात थी कि बिना किसी लाग-लपेट या ना-नूकुर के रूद्र दा दो नए निर्देशकों के नाम पर तुरंत सहमत हो गए. भोपाल से अनूप जोशी के नाटक “अर्थ दोष” और इलाहाबाद से सुषमा शर्मा के तीजन बाई के जीवन पर आधारित “चोला मोर माटी” नाटकों को रुद्र दा ने नांदिकार रंग महोत्सव में शामिल होने को मंज़ूरी दे दी.

सन् 2005 के नांदिकर उत्सव में दोनों नाटकों की प्रस्तुति हुई और इस तरह युवा निर्देशकों को इस भव्य समारोह में अपनी प्रतिभा दिखाने का मौक़ा मिल सका. बाद में रूद्र दा ने फ़ोन करके दोनों नाटकों की तारीफ़ करते हुए बताया कि वे सचमुच नांदिकर की गरिमा के अनुकूल रहे. प्रस्तुति के बाद उन्होंने मंच से घोषणा की कि एनसीज़ेडसीसी के कार्यक्रम अधिकारी का विशेष आग्रह था कि हम नांदिकर में कुछ नए लोगों को भी मौक़ा दें और हमें ख़ुशी है कि हमारा यह प्रयोग सफल रहा. दो युवा निर्देशक इस समारोह के बाद रंग जगत को यह बता पांएगे कि उन्होंने नांदिकार में अपने नाटक किये हैं.

आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, इन रंग-निर्देशकों को लगातार सक्रिय और रंगकर्म के प्रति समर्पित पाता हूँ तो रूद्र दा से किए गए वादा को पूरा होता हुआ भी पाता हूँ.

कवर | लड्डू बाई का चित्र

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