यादों में शहर | रबर फ़ैक्ट्री की वह गंध ताउम्र याद रहेगी

नॉर्थ कैरोलिना की वेक फ़ॉरेस्ट यूनिवर्सिटी में मेरे स्कूल की बिल्डिंग दस मिनट पैदल की दूरी पर है. सुबह-सुबह कैम्पस में बहुत कम ही लोग दिखाई पड़ते हैं – ज़्यादातर बुज़ुर्ग और बस के इंतज़ार में खड़े स्कूली बच्चे. दस मिनट की यह वॉक मुझे बरेली कैण्ट में कर्नल सहाय के साथ मॉर्निंग वॉक की याद दिलाती है. रामपुर बाग़ में सिस्टम्स के दफ़्तर में हुई मुलाक़ात के बाद हम मॉर्निंग वॉक पर अक्सर साथ जाते. वह बेहतर ढंग से जीने की अपनी संकल्पना पर रोज़ ही चर्चा करते, जिसे उन्होंने ‘लिव स्मार्टली’ नाम दिया था. बिना थके वह घंटों बोल सकते थे. मॉर्निंग वॉक के बाद वह मुझे बर्डवुड लेन में अपने घर ले जाते, जहाँ फलों का दिव्य नाश्ता हमारा इंतज़ार करता मिलता. कर्नल सहाय को जगजीत सिंह बहुत पसंद हैं. उनके साथ ग़ज़लें सुनना आज भी याद है और उनका ख़ुद का गाया हुआ भी. वह अच्छा गाते हैं.

यहाँ यूनिवर्सिटी में बिताया हुआ हर क्षण मुझे अपने स्कूली दिनों की याद दिलाता है. काठगोदाम का निर्मला कॉन्वेंट स्कूल और बरेली में जाट रेजीमेंट सेंटर का केंद्रीय विद्यालय. हाँ, रूहेलखंड यूनिवर्सिटी भी, जहाँ मैंने एमबीए की पढ़ाई की. सुबह-सुबह अपनी लाल चमचमती हीरो साइकिल से केंद्रीय विद्यालय जाना, ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो. तब यह स्कूल शाहजहाँपुर रोड पर हुआ करता था. कैण्ट की सपाट और चिकनी सड़कों पर साइकिल चलाने का मज़ा ही कुछ और है. कैण्ट से गुज़रते हुए सेना के जवान हाथों में बंदूक लिए मार्च करते अक्सर दिखाई देते. स्कूल के बाद हम जेआरसी कैफ़ेटेरिया भी जाते, जहाँ गर्मागर्म-कुरकुरी जलेबियाँ भी मिलती थीं. कपड़ों पर शीरा टपकाये बग़ैर जलेबी खाना मुश्किल काम है. दरअसल यह एक कला है. एक बार मैं और मेरे साथ पढ़ने वाले अरुण में इस बात पर लम्बी बहस चली कि हमें शीरा ज़मीन पर टपकाना चाहिए या फिर मेज़ पर ताकि उसे जल्दी साफ़ किया जा सके. उन रंगरूटों को देखकर हमें कम अचंभा नहीं होता, जो सीढ़ियों पर बैठे-बैठे दो दर्जन केले मिनटों में चट कर जाते.

39 साल की उम्र में मैंने यहाँ अमेरिका में एमबीए किया, एक केमिकल कंपनी ज्वाइन की, जिसके ऑफ़िस दुनिया के तमाम देशों में हैं. कंपनी के काम से एक बार जब मैं टैक्सस में था तो मेरी नज़र एक मर्सडीज़ पर गई, जिसकी नंबर प्लेट पर लाहौर लिखा हुआ था. मुझे अपने शहर बरेली की बेपनाह याद आई. मन हुआ कि मैं भी अपनी गाड़ी की रजिस्ट्रेशन प्लेट पर बरेली लिखाऊं. अब बरेली का कोई शॉर्ट कट तलाश रहा हूँ क्योंकि फ़ीस देकर अधिकतम सात अक्षर का नाम ही लिखा जा सकता है.
टैक्सस में मेरी कंपनी का एक रबर प्लांट है. प्लांट के पास पहुंचते ही एक जानी-पहचानी गंध नथुनों में भर गई. साथ चल रहे मेरे बॉस के चेहरे के भाव से लगा कि उन्हें वह गंध पसंद नहीं आई. मनुष्य महसूस करने के साथ ही वर्तमान को स्मृतियों से भी तो जोड़कर चलता है. स्टाइरीन, ब्यूटाडीन और दूसरी गैसों की उस मिश्रित गंध ने मुझे बरेली की रबर फ़ैक्ट्री की याद दिला दी. वही फ़ैक्ट्री, जहाँ मैंने सन् 1991 में दो महीने की इंटर्नशिप पूरी की थी.

रबर फ़ैक्ट्री जाने के लिए मैं सवेरे रघुवंशी कॉम्प्लेक्स से बस पकड़ता. दोपहर को लंच के बाद कॉलोनी में अपने दोस्त के घर जाकर कुछ देर आराम करता. उन दिनों शाम का वक़्त या तो स्वीमिंग पूल में बीतता या क्लब हाउस में टेबल टेनिस खेलते हुए. शाम को अक्सर एक फेरीवाला मिलता, जो बेहद रियायती दामों पर स्नैक्स बेचता था. अपने दोस्त के साथ कॉलोनी की साफ़-सुथरी सड़कों पर टहलते हुए मैं उन लोगों के बारे में बातें करता, जिनके साथ काम करते हुए मुझे अब तक दो-चार रोज़ हो गए थे, टाइप ए, टाइप बी, टाइप सी, क्लब हाउस और न जाने क्या-क्या देखता. इन्हें देखकर मैं सोच में पड़ जाता कि आख़िर इतना सब कुछ बनाने के लिए किसी के पास इतना धन कहाँ से आता है? मेरी हैसियत तो इतनी भी नहीं कि कॉलोनी के घरों में लगा एक ड्रेन पाइप भी ख़रीद सकूँ. (अब यह पूछिएगा कि उस समय ख़रीदने के लिए मैं ड्रेन पाइप के बारे में ही क्यों सोचता था, क्योंकि यह तो मुझे भी पता नहीं है.)

एक बार फ़ैक्ट्री में सेठ किलाचंद से सामना हुआ, जब उन्होंने एक मशहूर गायक और केंद्र सरकार के एक बड़े नौकरशाह को फ़ैक्ट्री में किसी आयोजन के लिए बुला रखा था. मैंने तब उन्हें पहली बार देखा था. दूसरी बार तब देखा, जब एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग के लाउण्ज में मैं किसी का इंतज़ार कर रहा था. अचानक सिक्योरिटी गार्ड ने मुझे खड़े हो जाने के लिए कहा, क्योंकि सेठ किलाचंद अंदर आ रहे थे. उसकी बात सुनकर मैं सकते में आ गया था. मुझे लगा कि हम अब भी राजशाही के दौर में जी रहे हैं, जहाँ महाराजा के गुज़रने पर सभी को खड़े होकर सिर झुकाना पड़ता हो. लेकिन यहाँ अमेरिका में यह सब बिल्कुल ही अलग क़िस्म का है. मेरी कंपनी के सीईओ सुनील लखनऊ के रहने वाले हैं, यहां सभी उनको उनके नाम से ही बुलाते हैं. वह उसी कैफ़े में लंच करते हैं, जहाँ हम बैठते हैं. अपनी गाड़ी भी वह ख़ुद ही चलाते हैं. हालांकि वह दो करोड़ डॉलर की कंपनी देखते हैं.

उम्मीद है कि हिन्दुस्तान में भी अब तक ये बदलाव आ चुके होंगे. टैक्सस में हमारी कंपनी का रबर प्लांट अब भी वही मशीनें और उत्पादन तकनीक इस्तेमाल करता है, जो कभी बरेली की फ़ैक्ट्री में थीं. हैरत है कि वैसे ही इन्फ़्रास्ट्रक्चर वाली कोई कंपनी अमेरिका में मुनाफ़ा कमा सकती है, तो क्या वजह होगी कि बरेली में फ़ैक्ट्री बंद करनी पड़ी? हालांकि यह सोचने के लिए अब काफी देर हो चुकी है मगर सिंथेटिक रबर की गंध मुझे ताउम्र याद रहेगी.


(रमेश बरेलवी हैं. अगस्त 2010 में जब उन्होंने यह संस्मरण लिखा था, वह न्यू जर्सी में रहते थे और एक केमिकल फ़ैक्ट्री में इंटरनल ऑडिटर रहे.)

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