वर्मा मलिक | बारात का एंथम रचने वाले गीतकार

  • 1:25 pm
  • 15 March 2021

फ़िरोजपुर वाले बरकत राय मलिक को आप शायद नहीं जानते होंगे. अच्छा तो सोचकर बताइए कि बारातों में जिस गाने ‘आज मेरे यार की शादी है..’ की धुन पर आप अक्सर लोगों को झूमते-सिर धुनते देखते हैं, वह गीत किसने लिखा है. जी, वह वर्मा मलिक दरअसल बरकत राय मलिक ही हैं.

हिंदी फ़िल्मों की दुनिया के एक सदी से ज्यादा लंबे सफ़र में बहुत से गीतकार ऐसे भी हैं, जिन्होंने बेहद कम लिखा है, लेकिन लोकप्रियता के मानक पर बहुतों से बहुत आगे हैं. वर्मा मलिक का शुमार इन्हीं में है. ‘आदमी सड़क का’ फ़िल्म के उनके गाने ‘आज मेरे यार की शादी है…’ के साथ ही ‘जानी दुश्मन’ के गीत ‘चलो रे डोली उठाओ कहार..’ की लोकप्रियता और शादी-ब्याह के मौक़े पर इनकी अहमियत से इस बात का अंदाज़ आसानी से लगाया जा सकता है. देखा जाए तो हिंदी पट्टी में ब्याह-बारात का एंथम हैं उनके गाने. इतने वर्षों बाद भी लोगों को इनके बोल में अपने जज़्बात की झलक दिखाई देती है. किसी गीतकार के लिए इससे बड़ा सम्मान भला कौन सा हो सकता है?

उस दौर में फ़िल्मी दुनिया के तमाम बड़े गीतकारों से ज्यादातर की ज़बान उर्दू और पंजाबी थी. कई तो देवनागरी से नावाक़िफ़ थे. उनके लिखे हुए गानों से मगर इसका पता नहीं चलता. वर्मा मलिक की मादरी ज़बान पंजाबी थी और उस ज़माने के एतबार से उनकी पढ़ाई-लिखाई उर्दू में हुई थी. फ़िल्मों में उनका सफ़र भी पंजाबी फ़िल्मों के गीत लिखने से हुआ. मगर अपनी लगन और मेहनत से बाद में उन्होंने हिंदी में इस क़दर दस्तरस हासिल की कि उनका शुमार हिंदी के कामयाब गीतकारों में होता है. किशोर कुमार की आवाज़ में ‘प्रिय प्राणेश्वरी, सिद्धेश्वरी यदि आप हमें आदेश करें’ सुनने वाले भला कब मानेंगे कि कभी वर्मा मलिक को हिंदी नहीं आती थी.

बरकत राय मलिक की नौजवानी का दौर आज़ादी के संघर्ष का दौर था. कांग्रेस के सरगर्म मेंबर बने तो ज़ोर-ओ-ज़ुल्म के ख़िलाफ गीत लिखने लगे. कांग्रेस के जलसों में जाते तो अपने गीत सुनाते. हुकूमत को नागवार गुज़रा तो उन्हें जेल हो गई. नाबालिग़ थे तो जल्दी छूट भी गए. बंटवारे के वक़्त उनके परिवार ने भी दंगों से जान बचाकर दिल्ली में पनाह ली. जिंदगी जब पटरी पर आई, तो ग़म-ए-रोजगार की चिंता सताने लगी.

बरकत राय मलिक को जो हुनर आता था, उन्होंने उसी में अपना कॅरिअर बनाने का इरादा कर लिया. संगीतकार हंसराज बहल के भाई बरकत राय के अच्छे दोस्त थे. उन्हीं की सिफ़ारिश पर बंबई जाकर वह हंसराज से मिले. गीत लिखने की उनकी क़ाबिलियत से हंसराज काफी मुतासिर हुए और पंजाबी फ़िल्म ’लच्छी’ में गीत लिखने का मौक़ा दे दिया. फ़िल्म हिट हुई और बरकत राय के गाने भी. फिर तो वह पंजाबी फ़िल्मों के हिट गीतकार बन गए.

तभी दोस्तों ने उन्हें अपना नाम बदलने का मशविरा दिया और इस तरह वह वर्मा मलिक हो गए. वर्मा मलिक ने हंसराज बहल के साथ ‘यमला जट’ समेत तीन पंजाबी फ़िल्मों में काम किया, और तक़रीबन 40 पंजाबी फ़िल्मों में गीत लिखे. ‘छाई’, ‘भांगड़ा’, ‘दो लच्छे’, ‘गुड्डी’, ‘दोस्त’, ‘मिर्ज़ा साहिबान’, ‘तकदीर’, ‘पिंड दी कुड़ी’, ‘दिल और मोहब्बत’ वगैरह वह सुपर हिट फिल्में हैं, जिनमें उन्होंने गाने लिखे. इसके अलावा उन्होंने दो-तीन फ़िल्मों के संवाद लिखे, संगीत दिया और कुछ फ़िल्मों का निर्देशन भी किया.

मगर छठे दशक की शुरूआत के साथ बंबई में पंजाबी फ़िल्मों का बाज़ार एकदम ख़त्म हो गया. उन्हें काम मिलना बंद हो गया. हालांकि पंजाबी फ़िल्मों में काम करते हुए उन्होंने कुछ हिंदी फ़िल्मों ‘चकोरी’, ‘जग्गू’, ‘श्री नगद नारायण’ और ‘मिर्जा साहिबान’ में गाने लिखे थे, मगर हिंदी में बहुत मौक़े मिले नहीं. पंजाबी फ़िल्म इंडस्ट्री बंद होने से वर्मा मलिक के सामने नए सिरे से शुरुआत करने की चुनौती आ पड़ी. कुछ अरसे तक उन्होंने कोई काम नहीं किया.

सन् 1967 में ओ.पी. नैयर ने उन्हें फिल्म ‘दिल और मोहब्बत’ के गाने लिखने का मौका दिया. ‘आंखों की तलाशी दे दे मेरे दिल की हो गयी चोरी’ काफ़ी भी मकबूल हुआ. मगर हिंदी फ़िल्मों में काम मिलना दुश्वार ही रहा.

गर्दिश के उन्हीं दिनों में एक रोज़ फ़ेमस स्टूडियो के सामने से गुज़र रहे थे, तो उन्हें अपने दोस्त निर्माता-निर्देशक मोहन सहगल की याद आई. वह उनसे मिलने पहुंचे, तो बातों-बातों में कल्याणजी-आनंदजी का ज़िक्र छिड़ा. मोहन सहगल ने उन्हें कल्याणजी-आनंदजी से मिलने को कहा. उस दिनों यह संगीतकार जोड़ी मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ का संगीत तैयार कर रही थी. वर्मा मलिक जब उनसे मिलने पहुंचे, तो मनोज कुमार भी वहां मौजूद थे. वह उन्हें पहले से जानते थे और उनके पंजाबी गीतों के मुरीद भी थे.

वर्मा मलिक ने उन्हें अपने कुछ गीत सुनाए, जिसमें एक गीत मनोज कुमार को बेहद पसंद आया. उन्होंने अपनी फ़िल्म ’उपकार’ के लिये यह गीत उनसे ले लिया. मगर क़िस्मत को अभी और इम्तिहान लेना था. फ़िल्म में इस गीत की वाजिब सिचुएशन न होने की वजह से गाना इस्तेमाल नहीं हो पाया. मनोज कुमार गाने को संभाल कर रखे रहे और जब फ़िल्म ‘यादगार’ बनने की बारी आई, तो उन्होंने इस गाने को कुछ बदलाव के साथ फ़िल्म में इस्तेमाल किया.

कल्याणजी-आनंदजी ने गाने की जितनी शानदार धुन बनाई, उतने ही बेहतरीन अंदाज में मुकेश ने इसे गाया. फ़िल्म के गाने जब रिलीज़ हुए, तो यह गाना ‘इकतारा बोले तुन तुन’ सुपर हिट साबित हुआ. सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दशा पर तीख़ा कमेंट करता यह गाना सुनने वालों को ख़ूब भाया. फ़िल्म की कामयाबी से वर्मा मलिक की क़िस्मत भी चमक उठी. एक के बाद एक उनकी कई फ़िल्मों के गाने इसी तरह सुपर हिट हुए. ’पहचान’, ’बेईमान’, ’अनहोनी’, ’धर्मा’, ’कसौटी’, ’विक्टोरिया न. 203’, ’नागिन’, ’चोरी मेरा काम’, ‘हम तुम और वो’, ‘जानी दुश्मन’, ‘शक’, ‘दो उस्ताद’, ‘कर्त्तव्य’, ’रोटी कपड़ा और मकान’, ’संतान’, ‘बेरहम’, ‘हुकूमत’, ’एक से बढ़कर एक’ आदि वे फ़िल्में हैं, जिनमें वर्मा मलिक के गाने शामिल हैं.

सत्तर का पूरा दशक वर्मा मलिक के नाम रहा. इस दहाई में उन्हें दो बार ‘फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड’ मिला. पहली बार 1971 में ’पहचान’ के गीत ‘सबसे बड़ा नादान वही है’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवार्ड मिला. गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि इसी गाने के लिए मुकेश को सर्वश्रेष्ठ गायक और शंकर-जयकिशन को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला. दो साल बाद इस टीम ने ‘बेइमान’ में अपने गीत-संगीत से फिर जादू जगाया. ‘जय बोलो बेइमान की जय बोलो’ गाने के लिये वर्मा मलिक को सर्वश्रेष्ठ गीतकार अवार्ड मिला.

उन्होंने मनोज कुमार की फ़िल्मों ‘सन्यासी’ और ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के गाने लिखे. ‘तेरी दो टकयाँ दी नौकरी..’ के साथ ही ‘बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई’ ने देश भर में धूम मचा दी. महंगाई और बेरोजगारी के शिकस्ता माहौल में जब यह गाना आया तो जैसे अवाम की आवाज़ बन गया. लगा कि उनके दर्द को अल्फ़ाज़ में पिरो दिया गया. लोगों में इसके असर को देखते हुए सरकार ने कुछ अरसे तक इस पर पाबंदी भी लगाई. लेकिन पाबंदी का उल्टा असर हुआ, गाना और भी लोकप्रिय हो गया.

उन्होंने उस दौर के सभी अहम् संगीतकारों के साथ काम किया पर सोनिक-ओमी के साथ उनकी जोड़ी ख़ूब जमी. उन्होंने क़रीब 35 फ़िल्मों में साथ काम किया. इस जोड़ी ने सबसे पहले 1970 में आई ‘सावन भादों’ का गीत-संगीत तैयार किया. फ़िल्म ख़ूब चली और इसमें गीत-संगीत की बड़ी भूमिका थी. ख़ासतौर पर ‘कान में झुमका चाल में ठुमका कमर पे चोटी लटके’ और ‘सुन सुन ओ गुलाबी कली तेरी मेरी’ गानों ने कमाल कर दिखाया. 1976 में आई ‘नागिन’ और 1979 में आई ‘जानी दुश्मन’ और ‘कर्तव्य’ में लिखे उनके गाने ख़ूब चले – ‘तेरे संग प्यार में नहीं तोड़ना’, ‘तेरे इश्का का मुझ पे हुआ ये असर’, ‘तेरे हाथों में पहना के चूड़ियां’, ‘ले मैं तेरे वास्ते सब छोड़ के’, ‘कोई आएगा, लाएगा दिल का चैन’, ‘चंदा मामा से प्यारा मेरा मामा’ ने सचमुच तहलका मचा दिया.

जहाँ भी गुंजाइश मिली, वर्मा मलिक ने अपने गीतों से सामाजिक संदेश दिया, सरल अल्फ़ाज़ में नसीहत दी. आम आदमी की मुश्किल, परेशानियों और सुख-दुःख को आवाज़ दी. व्यंग्य की शैली में गीत कहने का उनका अंदाज़ अनूठा था. ‘यादगार’, ‘पहचान’, ‘बेईमान’, ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ फ़िल्मों के शीर्षक गीत इस बात की नज़ीर हैं.

गीतकार तो वह थे ही, संगीत की भी अच्छी समझ रखते थे. अपने कई सुपर हिट गानों की धुन ख़ुद उन्होंने ही बनाई थी. हालांकि इसका क्रेडिट उन्हें कभी नहीं मिला. हर शख़्स का या यों कहें कि हर नज़रिये और मिज़ाज का एक दौर होता है. और फिर वह दौर अतीत हो जाता है. आठवें दशक में अमिताभ बच्चन का ज़माना आया. उनकी एंग्री यंग मैन की छवि के मुताबिक फ़िल्मों में एक्शन बढ़ा, तो गीत-संगीत हाशिये पर चला गया. ऐसे में वे गीतकार और संगीतकार भी गुमनामी में चले गए, जिन्होंने फ़िल्मी दुनिया में अपने गीत-संगीत के मेयार से कभी समझौता नहीं किया.

इस दरमियान वर्मा मलिक पर एक सानेहा और गुज़रा. उनकी पत्नी का इंतिकाल हो गया. फ़िल्मी दुनिया में बदलाव और इस वाक़ये का उन पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने फ़िल्मों से दूरी बना ली. 15 मार्च, 2009 को उनका इंतिकाल हो गया. उनके गीत हिंदी की दुनिया की धरोहर हैं.

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