वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे/ जो इश्क़ को काम समझते थे/ या काम से आशिकी करते थे/ हम जीते जी मसरूफ रहे/ कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया/ काम इश्क़ के आड़े आता रहा या/ इश्क़ से काम उलझता रहा/ आखिर में तंग आकर हमने/ दोनों को अधूरा छोड़ दिया.. [….]
उर्दू की प्रगतिशील धारा के कवियों में जनाब वामिक़ जौनपुरी एक रौशन मीनार की तरह दीप्तिमान हैं. एक प्रगतिशील कवि होने के नाते वामिक़ साहब विचारधारात्मक प्रोपगंडे को साहित्य के लिए ज़रूरी मानते हैं पर उनकी शायरी में नारा अपनी कलात्मकता के साथ इस तरह दिखलाई पड़ता है कि वह काव्य सौन्दर्य का एक अंग बन जाता है. [….]
विज्ञान और विज्ञान पढ़ाने वालों को नीरस मानते हुए अक्सर कला-संस्कृति की दुनिया से अलग ही समझा जाता है. शिक्षण संस्थानों में यह भेद और साफ़ नज़र आता है, मगर इन दोनों दुनिया के बीच सामंजस्य की एक पहल ने न सिर्फ़ बंटवारे की रेखा धुंधली कर दी बल्कि विज्ञान पढ़ाने वालों की सांस्कृतिक प्रतिभा को देखने-समझने का मौक़ा भी दिया. [….]