सतुआ संक्रांति | क़ुदरत से तालमेल का ज़रिया

भारतवर्ष त्योहारों का देश है, बचपन से हिंदी की परीक्षा की तैयारी के दौरान किसी भी त्योहार पर निबंध लिखाते समय यह पंक्ति गुरूजी स्थायी रूप से बताते थे. होली, दिवाली, दशहरा, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी सभी के साथ यह एक वाक्य स्थायी रूप से जोड़ा जाता था. पंद्रह अप्रैल को जब अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देखें, तो पता चला कि अपने यहाँ एक ही दिन में कई-कई त्योहार होते हैं.

कई राज्यों में नए वर्ष की शुरुआत पंद्रह अप्रैल से हुई, उत्तर भारत का नव वर्ष, बंगला पहला बैसाख, असम का रोंगाली बिहू, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु में नए साल की शुरुआत तथा पंजाब में बैसाखी इसी परंपरा की पोषक है. इस बार रामनवमी, रमज़ान, चैत्र नवरात्रि, हनुमान जन्मोत्सव, महावीर जयंती, गुड फ़्राइडे सभी त्योहार आसपास ही रहे, तो यह आभास भी हुआ कि अपने मुल्क में एक ही दिन में कई त्योहार एक साथ ट्रेड फ़ेयर की तरह आते हैं.

उत्तर भारत में सतुआ संक्रांति का पर्व हमारी प्राचीन परंपरा, खानपान और बदलते मौसम में क़ुदरत से तालमेल बनाकर स्वस्थ्य रहने की हमारे पुरखों की चेतना का बोध कराती है. संक्रांति हमारी लोक परंपरा, पर्व और जनमानस में गर्मी की शुरुआत का उद्घोष भी है. प्रकृति के परिवर्तनों के बीच हम अपने परिवेश से किस तरह सामंजस्य बैठाते हैं, किस तरह हमारे खान-पान में बदलाव होता है, सतुआ संक्रांति उसी का प्रतीक है.

सतुआ संक्रांति पर इस बार अम्मा की याद कुछ पुरानी स्मृतियों को लेकर जग गई. चौदह अप्रैल से पहले उनका आदेश होता था कि कल दोपहर में सबको सत्तू खाना है. सतुआ संक्रांति से पहले बाज़ार से चने का सतुआ, नया झज्जर, सुराही, आम की कैरी, ताड़ के पंखे तथा गुड़ या शक्कर लाकर रख दिया जाता था. सतुआ खाने के पहले इन चीजों को किसी मंदिर के पुजारी या पंडित को विधि-विधान के साथ दान देने का काम भी अम्मा करती थीं.

मतलब यह था ख़ुद घर में खाने से पहले इन चीज़ों को, समाज के लिए भी एक अंश के रूप में भेंट किया जाए. इसी के साथ घर में सुराही का ठंडा पानी पीने की शुरुआत होती थी. सतुआ संक्रांति के पहले न सुराही का पानी पिया जाता था, न कच्चे आम खाए जाते थे, और ही न पंखे का इस्तेमाल होता. चैती के साथ जिस गर्मी की शुरुआत होती, संक्रांति के साथ उसी गर्मी का उद्बोधन होता था.

जब घर में नया घड़ा, सुराही नेवास ली जाती थी, तो हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं होता था, क्योंकि अब बाहर से आने पर ठंडा पानी पीने की इज़ाजत होगी. शेफ़ संजीव कपूर बताते हैं कि आपका सबसे अच्छा भोजन वह है जो सबसे नज़दीक से आता है. सतुआ संक्रांति से जुड़ा हुआ सतुआ, सुराही का पानी, पंखा उसी गर्मी के विरुद्ध हमारी परंपरा के उद्घोष थे कि किस तरह से हम अपने परिवेश से सामंजस्य बैठाकर प्रकृति को अपने साथ लेकर चलने की परंपरा का पारण करते थे.

गर्मी के चार महीनों चैत्र, वैशाख, जेठ, आषाढ़ में शीतला अष्टमी मनाई जाती है. इन चार दिनों में घर में उस दिन चूल्हा नहीं जलता था, एक दिन पहले ही अम्मा कचौड़ी, पूरी, सब्ज़ी बनाकर रख देतीं. दूसरे दिन शीतला देवी की पूजा के साथ बासी भोजन का भोग लगता था. कहा जाता था कि तपिश बहुत है, चूल्हा एक दिन ठंडा रहना चाहिए.

पश्चिम बंगाल में भी नव वर्ष यानी पहला वैशाख के बाद सत्तू या छातु खाने की परंपरा रही है . शीतल षष्ठी के दिन बंगाल में भी अरंधन की पुरानी परंपरा आज भी बची हुई है. गर्मी के दिनों में इस दिन घर में चूल्हा नहीं जलाया जाता है. एक दिन पहले का बना हुआ विभिन्न प्रकार का भोजन इस दिन खाया जाता है. पूर्वोत्तर के असम से लेकर पंजाब तक, रंगोली बिहू से बैसाखी तक ग्रीष्म लहर चल रही है. मिथिलांचल का जुड़ शीतल पर्व भी गर्मी की तपिश को शांत करने के लिए किया जाता है.

ग्रीष्म ऋतु के स्वागत के लिए सतूआन उसी पर्वों की श्रृंखला की कड़ी है. आज जब नए शब्दों में हम इको-फ्रेंडली होने की बात करते हैं, हमारे यह पर्व-त्योहार हमें यह याद दिलाते हैं कि किस तरह बरसों-बरस से हम प्रकृति के साथ अपने को जोड़कर संतुलन और परंपरा के संरक्षण का काम करते आ रहे हैं. गर्मी के दिनों में उड़ीसा बंगाल में पंता भात उसी गर्मी को शांत करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. गर्मी के काटने के हमारे पास वे तमाम उपाय थे, जिनके लिए हमें किसी बाहरी शीतलता या बनावटी परिवेश या वातानुकूलन की ज़रूरत नहीं पड़ती थी.

प्रकृति का पूरा सहयोग जनमानस का उसके साथ संतुलन की हमारी पर्वों की सबसे बड़ी ताक़त रही है. आज भी सब सड़कों पर आम के पना की दुकान, गन्ने के रस की गाड़ियां, सतुआ घोल कर पीते लोगों को देखता हूँ तो लगता है कि प्रकृति चाहे जितना प्रकोप करे किन्तु जीत जायेंगे हम क्योंकि मनु नहीं मनुपुत्र हैं.

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