बायलाइन | कुल्हड़ में कोक को ऑर्गेनिक ही मानेंगे!

  • 12:39 am
  • 17 January 2021

कुल्हड़ में पीने से कोक में चरणामृत की तासीर पैदा नहीं हो जाती, न ही पतरी पर परोसने से पिज़्ज़ा के गुणों में कोई बदलाव आता है. हाँ, पतरी-कुल्हड़ ऑर्गेनिक-पात्र जान के ये सारे जतन करने से जातक का पातक बोध कम होता हो तो कोई और बात है.

यह जो ऑर्गेनिक है न! जब से बाज़ार के हत्थे चढ़ा, फ़ैशन बन गया है. ऐसा लेबल जिसका ज़िक्र करके इतराया जा सकता है, टेंट ढंग से ढीली कराई जा सकती है और एक ख़ास तरह की तुष्टि का व्यापार संभव बनाया जा सकता है. पिछड़ेपन की निशानी मानकर छोड़ दी गई चीज़ें ऑर्गेनिक के नाम पर किस तरह लौट रही हैं, किस भाव लौट रही हैं, वह किसी से छुपा नहीं है.

सभ्य हो रहे समाज ने दोना-पतरी को गंवारों के इस्तेमाल की चीज़ मान लिया था, अब जब वह बायोडिग्रेडेबिल प्रेस्ड लीफ़ प्लेट्स की शक़्ल में लौटी हैं तो वोग ठहरीं. इसी समाज ने कुल्हड़ सिर्फ़ उपमा के लिए रिज़र्व रख छोड़ा, बाक़ी जगह प्लास्टिक, थर्मोकोल और काग़ज़ ने ले ली. पच्चीस-तीस साल प्लास्टिक बरतने के बाद सुधि आई तो कुल्हड़ वोग.

अलबत्ता कुम्हार की चाक पर बने कुल्हड़ में वो बात नहीं कि मॉल में किसी तूफ़ानी क़िस्म के नाम वाले स्टार्ट अप के टी-स्टॉल में जगह दी जा सके, सो मशीन से बने हुए डिज़ाइनर्स कुल्हड़ आ गए. कुल्हड़ चाय, कुल्हड़ चाट, कुल्हड़ कॉफ़ी, कुल्हड़ कुल्फ़ी और भी तमाम अल्लम-गल्लम. ज़ाइक़े के किसी आलिम ने नई ईजाद की – तंदूरी चाय. कुल्हड़ तंदूर में झउंसने के बाद उससे चाय में तड़का लगाते हैं.

सरकोनी में मोछे की दुकान पर इमरती, रसगुल्ला या गीली बरफी चौड़े मुँह के छोटे कुल्हड़ में मिला करती. मिठाई खाकर लोग लोटे से उसी कुल्हड़ में पानी उंडेलते और पीने के बाद उस फेंक देते. बेतहाशा गर्मी के उन दिनों में मटके का वह पानी रेफ़्रीजरेटर के पानी-सा बर्फ़ीला नहीं होता था मगर उसे पीने के बाद प्यास ज़रूर बुझ जाती थी.

पुरेंव वाली चाय की दुकान के कुल्हड़ पतले और लम्बे होते. चाय पीकर फेंकने के बाद टूट जाया करते थे. हलवाई की दुकानों पर दही मिट्टी के कूंडे में जमाया जाता और दूध-दही ख़रीदकर घर ले जाने के लिए अलग-अलग साइज़ के कुल्हड़ हुआ करते – सौ ग्राम से लेकर आधा किलो तक के लिए.

ये कुल्हड़ हलवाई की चाक पर बनते थे, न कि किसी फ़ैक्ट्री की मशीन में. और दाम ज़ाहिर है कि इतने ही हुआ करते थे कि आज पन्नी में दूध-दही बेचने वाले तब कुल्हड़ बरत सकते थे. हाँ, तब वह फ़ैशन नहीं था, सलीका था. अभी लखनऊ वाले शर्मा के यहाँ शीशे के गिलास में जो चाय पंद्रह रुपये की मिलती है, वह कुल्हड़ में आकर पच्चीस रुपये की हो जाती है.

मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूँ जो दस मिनट की बातचीत में यह एक लफ़्ज़ बारह बार सामने वाले के मुँह पर दे मारते हैं. अभिजात ज़ाहिर करने से कहीं ज़्यादा उनका मकसद सामने वाले को अहसासे-कमतरी में डुबाने का होता है. ऐसे ही लोग अपने किचन गार्डेन की लौकी या गाजर-मूली, धनिया के बारे में बताते हुए ऑर्गेनिक का प्रीफ़िक्स ज़रूर इस्तेमाल करते हैं. स्टोर में उस शेल्फ़ से ही सामान उठाते हैं, जिनके पैकेट पर ऑर्गेनिक वाला टैग लगा हो, ब्रांड कोई भी हो सकता है. इस वर्ग के लिए ऑर्गेनिक का मतलब उस लोगो से सहमति भर है.

कई बरस पहले कुलीनों के एक बाबा के बारे में पढ़ा था कि वह नोबेल के दावेदार हैं और उनके दावे का आधार यह था कि उन्होंने भारत में ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए बहुत काम किया. जिस देश में गाय और बैल सदियों से ग्राम्य जीवन का अटूट हिस्सा रहे हों, जहाँ परती पड़े खेतों में भेड़ों के रेवड़ ठहराने के लिए गड़ेरियों का इंतज़ार रहता हो, जहाँ घरों के पिछवाड़े बने घूर खेतों की ज़रूरत भर खाद बना देते हों, निमकौड़ियाँ और राख पेस्टीसाइड माने जाते रहे हों, मिट्टी के कोरे बर्तन और पत्तल शुद्ध समझकर बरते जाते रहे हों, उसी देश के लोगों को ऑर्गेनिक खेती समझाने-सिखाने वाले बाबा के उस दावे को पढ़कर वैसा ही लगा जैसे कि इलाहाबाद कुंभ के मेले में इस्कॉन के कैंप में देहात से आए लोगों की भीड़ को कृष्ण के बारे में समझाता हुआ वह अंग्रेज़ बाबा जो कंस के किरदार को समझाने लिए उनसे कह रहा था – ‘कम्सा टुक आउट हिज़ सोर्ड टु किल देवकी, हिज़ ओन सिस्टर यू नो. व्हॉट अ रास्कल ही वॉज़.’

कइयों को ईमान का हवाला देकर पूछता हूँ कि ऑर्गेनिक माने क्या? बस इतना ही न कि फलाँ सब्ज़ी-फल-या अनाज उगाने में रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं हुआ या जैविक खाद ही डाली गई वगैरह!! वे एक साँस में रासायनिक खाद के वे सारे ख़तरे गिना डालते हैं जो उन्होंने यहाँ-वहाँ पढ़े-सुने हैं मगर मेरी इस बात का कोई जवाब नहीं देते कि ऑर्गेनिक सब्ज़ियों को जब शेल्फ़ में रखे किसी सॉस के साथ पकाकर या हफ़्ते भर से फ़्रिज में रखे पिज़्ज़ा बेस पर सजाकर खाते हैं तब भी उनको पक्का यक़ीन है कि सब ऑर्गेनिक ही है?

खली-भूसा और घास खाने वाली गाय-भैंस का दूध क्या तब भी ऑर्गेनिक ही माना जाएगा, जब ऑक्सिटोसिन का इंजेक्शन देकर उन्हें दूहा गया हो? ज़मीन के पानी में जो ज़हर घोला हमने, पीने के लिए उसे फ़िल्टर कर लेते हैं मगर सिंचाई के लिए? इस ज़हरीले पानी की सिंचाई से पैदा हुई सब्ज़ी या अनाज को ऑर्गेनिक ही मानने की ज़िद तो है, वजह मगर नहीं बताते.

ऑर्गेनिक का मतलब प्रकृति से आत्मीयता का रिश्ता क्यों नहीं है? जीने का सलीका क्यों नहीं ऑर्गेनिक है? ऐसी जीवन पद्धति जिसमें प्रकृति पर हमारी निर्भरता ज्यादा से ज़्यादा हो, जैसे कि हमारे पुरखों का जीवन था. जिसमें कुदरत और कुदरती चीज़ें हमारी सेहत की सीधी ज़िम्मेदार हुआ करती थीं. जब किसी ब्रांडेड कंपनी का पानी साथ लेकर चलने के बजाय पास के झोले में लोटा होना काफ़ी होता था.

डिज़ाइनर्स कुल्हड़, प्रेस्ड लीफ़ प्लेट या ऑर्गेनिक के आकर्षक टैग में जो नकलीपन निहित है दरअसल वह बाज़ार के एक और फ़ॉर्मूले से ज़्यादा कुछ नहीं. इसीलिए मुझे यह सारा नए तरह के फ़ैशन का हिस्सा लगता है, ख़ालिस पाखण्ड, जो ऑर्गेनिक हरगिज़ नहीं, इसका विलोम ज़रूर हो सकता है.

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