तमाशा मेरे आगे | मदर्स डेः जय माता दी

मोगरे के गुच्छे को अपने सिरहाने सजा देखकर माँ दिन भर मुझ से कहती हैं कि इन फूलों की ख़ुशबू बहुत अच्छी है. डेमेंशिया से ग्रसित माँ को एक मिनट पहले कही या सुनी बात भी याद नहीं रहती और वो किसी भी बात को बार-बार दोहराती रहती हैं. जितनी बार भी मैं माँ के पलंग के पास से गुज़रूँ या उनसे कोई बात करने के लिए उनके सामने रुकता हूँ, उस “अच्छी और प्यारी ख़ुशबू” के बारे में वो मुझे कई बार बताती या दोहराती हैं.

माँ की तरह मोगरे की महक भी दिन भर कमरे में पसरी रहती है बेसुध, बेख़बर. आजकल माँ भी बेख़बर और बेसुध सोती हैं, देर तक. शांत अंधेरे में आत्मिक उपस्थिति-सी. इस गर्मी में भी उनकी सुबह 11 बजे होती है. आँख खुलते ही अगर उन्हें फूल दिख जाएँ तो वो ख़ुश और मुस्कुरा कर उठती है. माँ को फूल अच्छे लगते हैं. सुबह की सैर से वापिस आते वक़्त उनके लिए कुछ फूल या तो मैं बाग से ले आता हूँ या फिर अपनी बग़ीची के फूलों का गुलदस्ता उनके लिए रोज़ ही उनके सिरहाने रख देता हूँ.

मेरे लाए फूलों के साथ आज सुबह उनके लिए फूलों का एक बड़ा गुलदस्ता और आ पहुंचा. सुबह 10.30 बजे घंटी बजी और जैसा की आजकल होता है दोस्त, रिश्तेदार या मिलने वाले कम और कूरियर या डिलिवरी वाले ज़्यादा. बाहर डिलिवरी वाला लड़का खड़ा मुस्कुरा रहा था. पहली मंज़िल की छत से फूलों का बुके देख मैं ये समझ नहीं पाया कि ये फूल किसके लिए आए हैं और आज मौक़ा क्या है.

मेरे माँ को मिलने से पहले ही गुलदस्ता माँ के सामने की मेज़ पे सजा दिया गया था ताकि आँख खुलते ही माँ की नज़र उस पे पड़े. उस पे लगे कार्ड को देख मुझे याद आया कि मई का महीना माताओं का होता है. अंतर्राष्ट्रीय मातृ दिवस मई महीने के दूसरे रविवार को मनाया जाता है जो इस बार, आज 11 मई को था. माँ के लिए ये गुलदस्ता और कुछ मीठा उनके छोटे बेटे ने कनाडा से भेजा था. चलो इसी बहाने ही सही माँ की याद तो आई. माँ बेसुध सो रही थी. जाग भी रही होतीं तो उन्हें मातृ दिवस के बारे में समझाना मुश्किल खेल होता. हाँ, सात समंदर पार रहने वाले अपने बेटे का नाम सुन कर वो ख़ुश हो गईं और इस बहाने हमने उन्हे मीठा खिला दिया गया. फूल देखकर वो खिल उठीं. हो गया मातृ दिवस.

पश्चिमी सभ्यता या फिर यूँ कहें की पश्चिमी देशों से आने वाले ये उत्सव बीसवीं सदी के उदार पूंजीवाद सोच की उपज है. किसी भी तरीक़े से अगर पैसा कमाया जा सकता हो तो उसे मनाना चाहिए चाहे वो बरसी या अन्त्येष्टि ही क्यूँ न हो. ऐसा नहीं कि पूरब से, यानी हमारी तरफ़ से, उधर कम कचरा गया हो.

हमारे यहाँ ये और इस तरह के और कई उत्सव युवा लोगों के लिए जश्न या ख़ुशी मनाने का सबब तो बनते हैं पर हमारे बुज़ुर्ग, ख़ासतौर पे बीमार बुजुर्ग, लोग ऐसे उत्सवों को समझ नहीं पाते और इस से जुड़े हो-हल्ला को कुछ हद तक खोखला पाते हैं.

मेरे लिए मदर्स डे आर्चीज़ कार्ड के साथ प्रकट हुआ था. सुंदर छपाई वाले रंग-बिरंगे कार्ड जिनके अंदर संदेश पहले से चुन के लिखा होता था. मगज़मारी करने की भी ज़रूरत नहीं. ऊपर और नीचे नाम भरो, तारीख़ के साथ ‘ढ़ेर सारा प्यार’ लिखो और बस. 1975 से पहले दिल्ली में मदर्स डे को कोई नहीं जानता था, फिर एक तूफ़ान आया ‘इंटरनेशनल डे ऑफ़ …” . हर मौके पे कार्ड भेजने का तूफ़ान – फादर्स डे, मदर्स डे, टीचर्स डे, बर्थ डे, ब्रदर्स डे, सिस्टर्स डे और जाने क्या-क्या. और लो बन गया मातृ दिवस.

खाने पीने, गाने बजाने और नाच-धमाल करते युवा और सयाने लोग भी इसे अब तोहफ़ा देने, सेल्फ़ी खींचने और रील बनाने का बेहतरीन मौक़ा मानते है. रात होते-होते फ़ेसबुक, इंस्टा और बाक़ी सोशल मीडिया पे माँ के साथ अपनी तस्वीरों और विडियो को लेप देते हैं. अगली सुबह से वो विडियो और तस्वीरें घर वालों के वाट्सऐप ग्रुप पर प्रकाश की गति से दौड़ रही होती हैं. उन तस्वीरों के साथ हिन्दी फ़िल्मों के गानों के हवाले से अपना प्यार माँ पर उँड़ेलकर पूरी दुनिया से बेटे-बेटियाँ शाबाशी बटोरते है. तब तक थकी और कुछ प्यार वाली बातों का इंतज़ार करती दादी, नानी, माँ या बुआ सोने की तैयारी कर चुकी होती हैं. हो गया मातृ दिवस.

    मोगरे की महक़ और माँ की ख़ुशी. फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा

आख़िर हिंदुस्तान में क्यूँ मनाया जाता है मातृ दिवस? इसमे ऐसा क्या ख़ास है, जिसके मनाने से हम मातृत्व को कोई बड़ी श्रद्धांजलि देकर माँ को दिए सारे दुखों और कष्टों का अपना बोझ कम कर लेते है. या शायद इसे मना कर और माँ को खुश करके अपने लिए स्वर्ग में जगह पक्की कर लेते हैं. “उसको नहीं देखा हमने कभी, पर इसकी ज़रूरत क्या होगी, ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी, क्या होगी.” मुझे तो मातृ दिवस दशकों से गली-गली में होने वाले माता के जागरण का बौना रूप दिखता है.

91 साल की हो चली हमारी माँ को मातृ दिवस तो छोड़ो अपने जन्म की सही तारीख भी नहीं मालूम. पासपोर्ट पे कुछ लिखी है, वो कुछ और बताती हैं और 93 साल की उनकी बड़ी बहन कुछ और. ख़ैर हम सब कोशिश करते हैं कि सब तारीख़ों पे उनकी सालगिरह मना ही ली जाये ताकि उन्हें कुछ कमी न लगे. जहां तक मुझे याद आता है कि हमारे बचपन में मैंने उनका जन्मदिन मनाते किसी को नहीं देखा अलबत्ता हम सब का जन्मदिन माँ ज़रूर मनाती थीं.

बचपन में दिल्ली के जिस इलाक़े में हम रहते थे, वहाँ देवी जागरण या जगराता हर दूसरे घर में होता था. उन दिनों के डिस्को टाइप गायक कान-फोड़ू, गगनभेदी संगीत के साथ रात भर दुर्गा माँ को रिझाने के लिए ताली पीट-पीट कर माँ के लिए अपना प्यार ज़ाहिर करते थे. चोरी की गई फ़िल्मी धुनों पर बनी ‘माँ की भेटें’ सुबह-शाम मोहल्ले में बजती थीं. मैंने कभी नहीं देखा कि देवी माँ उस मोहल्ले पर कभी दयावान रही हों.

गली-कूचों में होने वाले उन जागरणों को उत्तर भारत के कोने-कोने में पहुँचने वाले और कई हज़ार लोगों के कान के पर्दे बर्बाद करने वाले नरेंद्र चंचल अपनी ख्याति और प्रसिद्धि में इतने अव्वल थे कि 1980 के दशक में वो सात घंटे का जागरण करने के लिए वो अकेले एक लाख रुपए की फ़ीस लेते थे. उनके साथ उनकी टोली के 16 लोग— आठ वाद्य यंत्रों का ऑर्केस्ट्रा, छह माइक, पूरा म्यूज़िक कोनसोल और दुर्गा माँ की गुफा का पूरा सेट— दो ट्रकों में चलता था. इस सब के पैसे अलग से. वो ऐसे दिन थे कि गली में होने वाले जागरण का बैनर देखकर ही मैं शहर के दूसरे हिस्से में रहने वाले अपने दोस्त के घर चला जाता था.

हमारे ज़माने का ‘जय माता दी’ वाला जागरण ही मातृ दिवस हुआ करता था. वैसे वाले मातृ दिवस साल में सौ दिन मनाए जाते थे. हम किसी दोस्त की माँ के पैर छू कर आशीर्वाद ले लिया करते थे, कोई कार्ड देने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. देवी जागरण की तरह और भी कई प्रकार के मातृ दिवस हुआ करते हैं या मनाए जाते हैं, जिन सब के केंद्र में माँ रूपी देवी ही हैं. नवरात्रि में दुर्गा अष्टमी पर देवी पूजन, माँ सरस्वती का पूजन और फिर दिवाली पे लक्ष्मी माँ के पूजन को भी मातृ दिवस ही माना जाता है. कुछ घरों में अब भी देवी जागरण का छोटा रूप “माता की चौकी” भी साज़-संगीत के साथ मनाया जाता है. हालांकि इन सब मौक़ों पे बेचारी माँ रिश्तेदारों को ख़ुश करने के लिए रसोई से पंडाल तक दौड़ती ही रहती है. मेरी माँ को इन देवी जागरणों से कुछ लेना-देना नहीं था. माँ को नींद बहुत प्यारी थी कुछ भी हो वो 11 बजे के बाद जागी नहीं रह सकती थीं. चार बच्चों को पालने वाली माँ को हर माँ के दुख और ज़िम्मेदारियां मालूम थीं, फिर वो चाहे देवी माँ ही क्यूँ न हो.

साफ़ मन और त्याग की भावना रखने वाले कुछ बे-गरज़ या निःस्वार्थ लोगों ने कोलकाता में सिस्टर्स ऑफ़ चैरिटीज़ की मदर टेरेसा को माँ मान कर अपनी ज़िंदगी कोढ़ियों की सेवा करने में बिता दी या फिर पांडिचेरी में आध्यात्मिक गुरु माँ मीरा के आश्रम में जन सेवा में लगा दी. ये हुआ न असल मातृ दिवस का जश्न.

दिल्ली के धनी और समृद्ध इलाक़ों में बहुत से आधुनिक क्लब और मॉल मातृ दिवस को सामाजिक पर्व की तरह मनाते हैं. यहाँ अमीर लोगों के परिवार घर की महिलाओं के साथ मातृ दिवस पूरे जोश के साथ मनाते हुए शॉपिंग करने का एक और मौक़ा भुनाते हैं.

मातृ दिवस की धूमधाम के बीच हम माँ को पीछे छोडते गए और साल में उसका ‘एक’ दिन मनाते रहे. बाकी 363 दिन? उन लोगों के बारे में सोचिए, जिनकी माँ या उनके घर की कोई और प्रिय महिला (चाची, ताई, बड़ी बहन, बुआ, दादी, नानी) किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हों तो? मुझसे पूछिए जब माँ बीमार होती हैं, ज़ेहनी तौर पे नाख़ुश या अब जब वो बहुत मुश्किल दौर से गुज़र रही हैं, तब मदर्स डे मनाना बहुत मुश्किल हो सकता है. क्या फूलों का गुलदस्ता, कोई उपहार, कुछ मीठा ‘आपकी’ जगह ले सकता है? क्या माँ किसी गिफ़्ट, मिठाई, साड़ी या गहने को देख कर उतनी ख़ुश हो सकती है, जितनी आप को देख कर. माँ के दिल में तो बेटी या बेटे की तस्वीर ही बसी होती है उसे वो चीज़ों से कैसे बदल दे.

मेरे लिए मदर्स डे जश्न मनाने का दिन न हो कर माँ और अपने अतीत के, बीते कल, बचपन, जवानी और सुखद यादों को माँ से साझा करना है, जिनसे उसे ख़ुशी मिल सके. परिवार के साथ गुज़ारे माँ के बीते साल, छुट्टियों में की गई घुमक्कड़ी, कुतुब मीनार में हुई पिकनिक का धमाल, तांगे की सैर, स्कूल में मास्टर जी की डांट या साल दर साल की जीवन बदलने वाली घटनाएँ उनके साथ बैठ सब याद करना ही माँ को ख़ुशी देना या सचमुच उनका, माँ का, दिन मनाना है.

यह सब मैं माँ के ठीक सामने बैठा लिख रहा हूँ. अभी तक वो चैन से सो रही थीं, अभी आँख खुली है. गुलदस्ते के पार माँ का चेहरा देख एक बार फिर मैं कहता हूँ “हैप्पी मदर्स डे, माँ”. वो हैरान सी मुझे देख रही हैं और धुंधली आँखों से शायद पहचानने की कोशिश कर रही हैं. माँ पूछती है, “तुम लोग यहां पहले से आये हुए हो? कब आए? हम तो कल रात पहुंचे थे, बड़ा डर लगा रहा था, मैं तो बहुत थक गई हूँ अभी थोड़ी देर और सोना है.”

वो फिर से आँख बंद कर लेती है. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा. उसके शांत चेहरे को देख मेरे मुँह से अनायास ही निकलता है, “जय माता दी” और तब तक लैपटाप स्लीपिंग मोड में चला जाता है.

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