‘मतलब हिन्दू’ पढ़ लेने के बाद मुझे लगता है कि अम्बर पाण्डेय के इस उपन्यास का शीर्षक किसी पहेली की तरह है, जिसे दरअसल पढ़ने वाले को ही बूझना है, जिसका जवाब देना है, यह कुछ वैसे ही है जैसे कि हम ‘ख़ाली जगह भरो’ वाले अभ्यास के दिनों में किया करते थे. मतलब के पहले की ख़ाली जगह भरने के लिए पाठक उपन्यास के अपने अनुभव और अपनी मनोदशा [….]