ख़त्म उन के कभी सितम न हुए
कहानी एक लफ़्ज़ की | सितम
ख़त्म उन के कभी सितम न हुए/ सर हमारे अगरचे ख़म न हुए. अभेकुमार बेबाक ने ऐसा कहा तो ज़ाहिर है कि वह सितमगरों की तारीफ़ में नहीं, उन लोगों के साथ खड़े होकर कह रहे हैं जिन्हें सिर ऊंचा करके जीना आता है. इस दुनिया-ए-फ़ानी में कुछ भी मुफ़्त नहीं, हर चीज़ की तरह सिर ऊंचा किए रखने का भी मोल देना पड़ता है. इतिहास यही बताता है, रवायत भी यही कहती है.
अत्याचार करने वाला, अंधेर मचाने वाला सितमगर है और सितमकश अत्याचार सहने वाला है. फ़ारसी ज़बान में एक और लफ़्ज़ है – सितमईजाद और इसके मायने हैं – नए-नए अत्याचार ईजाद करने वाला. फिर कोई ताज़ा-सितम वो सितम-ईजाद करे….पुरानी हिंदी फ़िल्मों के विलेन जो नायक को अक्सर धमकाते – मैं तुझे ऐसे नहीं मारूंगा, तड़पा-तड़पा के मारूंगा, ऐसे कि मौत भी काँप उट्ठेगी वग़ैरह-वग़ैरह.
नई फ़िल्मों में सितमगर के तरीके एकदम बदल गए लगते हैं. अपने फ़िल्मी पुरखों की तरह अब वह डिस्क्लेमर वाले डायलॉग नहीं बोलता. बल्कि खलनायकों के डायलॉग से तो पब्लिक के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता. कई बार तो विलेन नायक की तरह भलामानुस या हितैषी लगने लगता है, मगर इसलिए कि वह बोलता नहीं. वह तो पब्लिक को तब मालूम पड़ता है, जब वह कुछ कर गुज़रता है.
याद कीजिए, पहले के सितमगर ख़ास क़िस्म के हुलिये वाले हुआ करते थे – घुटने तक पहुंचते हुए जूते और घोड़े की जीन के साथ झूलता हंटर, कोई बहीखाते लिए डेस्क के पार बैठा कुटिल मुस्कराहट बखेरता, दूसरी-तीसरी उंगली में फंसाकर सिगरेट पीता, चेन से बंधा लेंस आंख पर चढ़ाकर पढ़ता या फिर भी समुद्री लुटेरों के अटायर का हिस्सा बन गई हरी वाली आई कैप चढ़ाए मिलता.
माथे पर काला टीका लगाए भवानी के नाम का जयकारा लगाने वाले के चेहरे से हटकर कैमरा नीचे आते ही धोती के ऊपर कमर में बंधी कारतूस की पेटी उसको एलानिया खलनायक बताती. मगर नए हिंदुस्तान में ये सब छवियां तिरोहित हो गईं. सितमगर अब सितमज़रीफ़ (जो हँसी-हंँसी में अत्याचार करे) हुए. जलील मानिकपुरी की बात पर ग़ौर कीजिए,
उन्हें आदत हमें लज़्ज़त सितम की
उधर शमशीर इधर तक़दीर चमकी.
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