पिछले दिनों फ़ेसबुक पर प्रियदर्शन जी की एक पोस्ट पढ़ी. पुस्तक मेला और अपनी आने वाली किताबों के संदर्भ में उन्होंने लिखा है – लेकिन किताब आ भी जाएगी तो क्या होगा? सत्रह किताबें अब तक आ चुकी हैं. पाता हूं कि लोग फेसबुक पोस्ट से आगे पढ़ते ही नहीं. [….]
जैसे हाउस वाइफ़ का काम कोई नौकरी नहीं है, ठीक वैसे ही हाउस हसबैंड होना या बनना कोई करियर नहीं है. बावजूद इसके सुबह से लेकर शाम तक कोई न कोई काम लगा रहता है. कोई नोटिस करे या न करे लेकिन खुद और टांगों को पता रहता है वह ड्यूटी पर हैं. अपनी पी-एच.डी. पूरी करने की ख़ातिर अख़बार [….]
कुल्हड़ में पीने से कोक में चरणामृत की तासीर पैदा नहीं हो जाती, न ही पतरी पर परोसने से पिज़्ज़ा के गुणों में कोई बदलाव आता है. हाँ, पतरी-कुल्हड़ ऑर्गेनिक-पात्र जान के ये सारे जतन करने से जातक का पातक बोध कम होता हो तो कोई और बात है. [….]
दो रोज़ पहले गोरखपुर वालों ने सोशल मीडिया वाले चिंतकों को धमाल मचाने का जो मसाला मुहैय्या कराया, किताबों से मुग़ल दरबार की बेदख़ली का मसला भी उसी में आ जुड़ा है. सोशल कहलाने वाले मीडिया में ‘हा हंत’ का शोर है. आख़िर ‘त्राहिमाम’ कहकर पुकारें तो भी किसको! [….]
मियाँ ख़लील ख़ाँ ने अपना नाम ज़रूर बदल लिया है मगर अब भी फ़ाख़्ता ही उड़ाते हैं – कभी-कभी पर वाली मगर ज़्यादातर बेपर की. और नाम भी क्या धरा – मीडिया. चूंकि उड़ाने का किरदार मेल खाता है, इसीलिए बहुत लोगों ने ग़ौर भी नहीं किया, बस उड़ती हुई फ़ाख्ताएं देखते हैं. [….]