चाँद कभी मामा है तो कभी महबूब के चेहरे की उपमा, नाज़ुकी और शीतलता का पर्याय भी है, वह ऐसा उजला गोला है, माँ जिसके माप का झिंगोला बनवा नहीं सकती और बच्चों की कल्पना में जाने कब से वहाँ बैठी एक बूढ़ी नानी चरखा कात रही हैं. [….]
लोकनाट्य और मनोरंजन की पुरानी परंपराओं में भाँड़ों का शुमार भी हुआ करता था. और वे हाव-भाव की नक़ल करने वाले नक़्क़ाल भर नहीं थे, उनके फ़िकरों और उनकी ज़बान की लज़्ज़त लोगों को लुभाती भी थी. लखनऊ के भाँड़ों पर श्री जुगुल किशोर का यह लेख सन् 1996 में इलाहाबाद के कैंपस थिएटर की पत्रिका में छपा था, [….]