ये मई का महीना है. साल है दो हज़ार इक्कीस. इस वक़्त भारत में लॉक-डाउन लगा हुआ है. मैं घर में हूँ, और कर्म गति पर चिंतन कर रहा हूँ. कबीरदास जी याद आ रहे हैं – करम गति टारे नाहिं टरी. [….]
एक मित्र ने अभी दो दिन पहले सेना (भारतीय नहीं) में पद भार सम्भाला है, और दूसरे ने आर्मी (इंडियन नहीं) जॉइन की है. एक मित्र तो सीधे किसी यूथ ब्रिगेड का ब्रिगेडियर बन गया है. मैंने तीनों मित्रों का संघर्ष देखा है. इन पदों को प्राप्त करने के लिए उन्होंने दिन-रात एक कर दिया, तब जाकर यह गौरवपूर्ण क्षण आया है. [….]
कोरोना के इस लॉक-डाउन से एक बात बख़ूबी समझ आ रही है कि चुनाव सम्बंधी एक्ज़िट पोल क्यों फ़ेल हो जाते हैं. क्यों बड़े-बड़े विद्वानों के भी अनुमान गलत हो जाते हैं.
लॉक-डाउन के सम्बंध में लेखकों का अनुमान था कि अब पाठक फ़ुर्सत में हैं तो उनके लेख, कविताएं, कहानी, अधिक पढ़े जाएंगे. परन्तु ऐसा हुआ नहीं. उल्टा पाठकों की संख्या कम हो गई. [….]
“अरे बेटा बरुन जल्दी करो, लेट है गये हैं.” दादाजी ने स्कूटर से उतर कर तेजी से क़दम बढ़ाते हुए कहा.
बहोड़ापुर से सागरताल की तरफ़ जाने वाली सड़क पर आज जाम लगा हुआ था. उस सड़क पर कतार से ईडन-गार्डन बने थे, जहाँ हर सहालग में अनेक आदम और हब्बा ऑरिजिनल सिन करने के लिये एकत्र होते थे. इन ईडन-गार्डन्स को मैरिज-गार्डन के नाम से जाना जाता था. [….]
शाम को टहलते हुए सोच रहा था कवि ने ऐसा क्यों कहा- अरुण यह मधुमय देश हमारा? वह कह सकता था -देखो यह मधुमय देश हमारा, अथवा – अहो यह मधुमय देश हमारा. कविगण भूत, भविष्य, वर्तमान एक साथ देखने की क्षमता रखते हैं. वे त्रिकालदर्शी होते हैं. अपना घर छोड़ कर, कवि सब देख लेते हैं. कवि ने यदि ‘अरुण’ कहा है, तो इसका निश्चय ही कोई प्रयोजन होगा. [….]
मदन जी पूरी रात नहीं सोए. और करवट भी नहीं बदल पाए. एक तरफ़ कनक भूधराकार सरीरा उनकी पत्नी सो रही थीं. जो समर भयंकर अति बलबीरा भी थीं. जिनके खर्राटे उनके हृदय में रणभेरी जैसी धमक पैदा कर रहे थे. और दूसरी तरफ़ तो वो ख़ुद करवट लिए ही हुए थे. रात भर सुबह की योजनाएं बनाते रहे. कानों में बस एक ही वाक्य बार-बार गूंज रहा था – पैला रंग तौ मेई लगाऊंगी. [….]
उनके जैसा ज्वलनशील व्यक्ति मिलना मुश्किल था. लोग कहते हैं कि उनके माथे पर लिख दिया जाना चाहिये था- अत्यंत ज्वलनशील, दूरी बनाए रखें. थोड़े-बहुत ज्वलनशील तो हम सभी होते हैं, वे अत्यंत ज्वलनशील थे. झट से जलने, और जलाने वाले. उनका ऑक्टेन नम्बर बिल्कुल सटीक था. न तो इतना कम, कि कोई जले ही न, और न ही इतना अधिक, कि भक से जल कर मामला ख़त्म हो जाए. वे लम्बे समय तक जलाते थे. [….]