सही है कि आज़ादी के बाद से अब तक गाँवों का चेहरा काफ़ी बदल गया हैं, संसाधन और सोच बदली है और लोग भी, मगर इतना भी नहीं बदले हैं कि बनकट गाँव और वहाँ के बाशिंदों को पहचानने में कोई ख़ास मुश्किल पेश आए. हाल ही में आए शिवमूर्ति के उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ को पढ़ते [….]